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INTERVIEW: रुपहले पर्दे पर दुनिया को अलग तरीके से दिखाना है सिनेमेटोग्राफी - फारुख मिस्त्री

प्रसिद्ध सिनेमेटोग्राफर फारुख मिस्त्री ने सिनेमा और सिनेमा सिनेमेटोग्राफी को लेकर खास बातचीत की।

By Rahul soniEdited By: Published: Mon, 18 Jun 2018 03:43 AM (IST)Updated: Thu, 21 Jun 2018 11:55 AM (IST)
INTERVIEW: रुपहले पर्दे पर दुनिया को अलग तरीके से दिखाना है सिनेमेटोग्राफी - फारुख मिस्त्री
INTERVIEW: रुपहले पर्दे पर दुनिया को अलग तरीके से दिखाना है सिनेमेटोग्राफी - फारुख मिस्त्री

राहुल सोनी, मुंबई। कैमरा एक कांच के टुकड़े की तरह है। इसके जरिए आप दूसरी दुनिया को अलग अंदाज में और अलग तरीके से देख पाते हैं। यही सिनेमेटोग्राफी है और इसकी खूबसूरती सरलता में है जिससे दर्शक खुदको जोड़ सके। यह कहना है फिल्म इंडस्ट्री के मशहूर सिनेमोटोग्राफर फारुख मिस्त्री का जो कि प्रसिद्ध सिनेमोटोग्राफर फली मिस्त्री और गुजरे जमाने की मशहूर अदाकारा श्यामा के बेटे हैं। सिनेमा में सिनेमेटोग्राफी को लेकर जागरण डॉट कॉम से फारुख मिस्त्री ने खास बातचीत में इसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की। बॉलीवुड की तमाम फिल्मों में सिनेमेटोग्राफी कर चुके फारुख ने फिल्म अंग्रेजी में कहते हैं में भी सिनेमेटोग्राफी की है जिसमें मुख्य कलाकार संजय मिश्रा, एकावली खन्ना, पंकज त्रिपाठी, अंशुमन झा और शिवानी रघुवंशी हैं। 

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सिनेमेटोग्राफी सरलता में है

फिल्म अंग्रेजी में कहते हैं की शूटिंग बनारस में हुई है तो इसको लेकर फारुख बताते हैं कि, इस फिल्म में सिनेमेटोग्राफी चैलेंजिंग थी। लेकिन सिनेमा के सफर में मैं जैसे-जैसे अागे बढ़ा हूं, जितना सिनेमाटोग्राफी को समझ सका हूं तो यह जरूर कह सकता हूं कि अगर अनुभव ज्यादा है तो उस क्षेत्र में काम करना आसान हो जाता है। मैं समझता हूं कि जो सिनेमेटोग्राफी का असेंस है वो सरलता में ही है। इस फिल्म की सिनेमोटोग्राफी नेचुरली प्लान की गई थी। डायरेक्टर हरीष व्यास के साथ इसकी पूरी प्लानिंग कई गई। खास बात यह थी कि, हमारी कोशिश रही कि दर्शकों को यह फील न होने पाए कि कैमरा कहां रखा गया है। वे आसानी से कहानी, कैरेक्टर को समझ पाए और उससे खुदको कनेक्ट कर पाए।

शहर अपने आप में किरदार है

फारुख कहते हैं, जिस प्रकार अभिनेता किरदार निभाता है वैसे ही अगर एक अलग शहर का चुनाव शूटिंग के लिए किया गया है तो उसे भी किरदार के रूप में दिखाने की कोशिश होनी चाहिए और वो शहर अगर बनारस है तो वाकई एेसा किया जाना चाहिए। अंग्रेजी में कहते हैं में एेसा ही कुछ करने की कोशिश की गई। बनारस में फिल्म को शूट किया गया है। वैसे फिल्म की शूटिंग मुंबई, हिमाचल या गुजरात में की जा सकती थी। लेकिन बनारस का चुनाव इंटेंशनली किया गया था। क्योंकि फिल्म में गुजरते हुए जीवन को दिखाना था और इसको कनेक्ट वहां मौजूद नदी ने किया। दिखाया गया है कि जिंदगी एेसे ही चलती रहती है जैसे एक नदी बहती रहती है। एक पूरी सर्कल अॉफ लाइफ है। हां, इसे कुछ लोगों ने नोटिस किया होगा कुछ ने नहीं। चूंकि, बनारस में कई फिल्मों की शूटिंग पहले भी हो चुकी और दर्शक को सब पता है। लेकिन यही कोशिश थी कि अलग नजरिये से दर्शकों को बनारस दिखाया जाए। साथ ही विजुअल पोएट्री की तरह फिल्म को शूट किया गया।

डायरेक्टर का ट्रस्ट जरूरी

एेसा माना जाता है कि, सिनेमेटोग्राफी के लिए काम करने की फ्रीडम बहुत जरूरी है। इसके लिए डायरेक्टर का सिनेमेटोग्राफर पर पूरा भरोसा अहम है। एेसे में अगर डायरेक्टर फिल्म के बारे में सब कुछ समझाकर बाकी सिनेमेटोग्राफी का काम सिनेमेटोग्राफर पर छोड़ दे तो एक बेहतर सिनेमेटोग्राफी देखी जा सकती है। एेसा इस फिल्म में हुआ है।

आज का सिनेमा टीवी के इन्फ्लूयंस में है

आज की सिनेमा की बात करें तो टेलीविजन का इन्फ्लूयंस बहुत ज्यादा है। सिनेमा में क्लोज अप्स बहुत उपयोग में लाए जाने लगे हैं। एडिटिंग जल्दी-जल्दी होने लगी है। इसलिए अंग्रेजी में कहते हैं में हमने लॉन्ग शॉट का ज्यादातर उपयोग किया है। क्लोज अप उस प्रकार है जिस प्रकार एक वाक्य में पुण्यविराम लगाया जाता है। टीवी का ग्रामर अलग है टेलीविजन का ग्रामर और सिनेमा का ग्रामर सिनेमेटोग्राफी के मामले में अलग है। टीवी में ज्यादतर क्लोज अप शॉट्स का उपयोग किया जाता है। लेकिन सिनेमा में एेसा नहीं होता। खैर यह और बात है कि आजकल एेसा होने लगा है। लेकिन पूरानी फिल्मों में एेसा नहीं होता था। उस समय तो कोई ग्रामर था ही नहीं।

टीवी का ग्रामर अलग है

टेलीविजन का ग्रामर और सिनेमा का ग्रामर सिनेमेटोग्राफी के मामले में अलग है। टीवी में ज्यादतर क्लोज अप शॉट्स का उपयोग किया जाता है। लेकिन सिनेमा में एेसा नहीं होता। खैर यह और बात है कि आजकल एेसा होने लगा है। लेकिन पूरानी फिल्मों में एेसा नहीं होता था। उस समय तो कोई ग्रामर था ही नहीं।

देवानंद साहब की गाइड से कनेक्शन

हमारी कोशिश थी कि दर्शकों के सामने कुछ अलग पेश किया जाए और कुछ एेसा भी जिससे वो अपने आपको कनेक्ट कर सकें। एक सीन में संजय मिश्रा लाग रंग की शर्ट में हैं और एकावली पिंक साड़ी में गुजरती हैं। यह अगर याद हो तो एेसा देवानंद की फिल्म गाइड के गीत गाता रहे मेरा दिल का सीन है। अब जो दर्शक कनेक्ट कर सके हैं तो अच्छी बात है।

सेट पर जाने की नहीं थी अनुमति

फारुख बताते हैं कि, मशहूर सिनेमेटोग्राफर का फली साहब का बेटा जरूर था लेकिन अगर आपको लग रहा है कि मुझे फिल्मों के सेट पर जाने की अनुमति थी तो आप गलत हैं। सेट पर अगर कभी जाता भी था तो बहुत दूर से शूटिंग देख पाता था। फारुख कहते हैं, बचपन की यादों में फली साहब की फिल्में हरे रामा हरे कृष्णा, जानेमन, मनचली, जॉनी मेरा नाम, दम मारो दम शामिल हैं। वहीं, मां मशहूर अभिनेत्री श्यामा के साथ भी सावन भादो की यादें ताजा हैं।


सिनेमा में आया है बदलाव

फारुख मानते हैं कि, सिनेमा में डिजीटल वर्ल्ड और टेक्नोलॉजी के साथ बदलाव आया है। भाषा, ग्राफिक्स और तकनीक में बदलाव आए हैं। लेकिन सिनेमा का ग्रामर वही है जो पहले था। वह आज भी वही है और हमेशा वही रहेगा। फारुख इस बात को गंभीरता से लेते हैं कि, हिंदी सिनेमा आज भी खुदको स्थापित नहीं कर पाया है। अपनी भाषा को निर्मित नहीं कर सका है। वहीं, बाकी छोटे-छोटे देशों का सिनेमा उनकी भाषा से जाना जाता है।  


फिल्ममेकिंग पैशन है जिसपर बजट का प्रभाव नहीं

फारुख बड़े बजट व भव्य सेट वाली फिल्मों और छोटी बजट की फिल्मों को लेकर कहते हैं कि, बात बजट से ऊपर पैशन की है। फिल्ममेकिंग में पैशन की है जिसपर बजट का प्रभाव नहीं है। कई कम बजट की फिल्में होती है जो दर्शकों को खूब पसंद आती हैं। अब बदलाव यह आ गया है कि, डिजीटल होने से अॉप्शन ज्यादा हैं। सही अॉप्शन का चुनाव फिल्ममेकर के हाथ में है। 


आर्ट फील्ड है, इतिहास को जानना जरूरी

फारुख सिनेमा को लेकर कहते हैं कि, यह आर्ट फील्ड है जिसका इतिहास पता होना आवश्यक है। पता होना चाहिए कि जिस फील्ड में काम कर रहे हैं उसमें पहले क्या-क्या हो चुका है। इसके लिए किताबें पढ़ना बहुत जरूरी है। फारुख पूरानी फिल्म हीर रांझा की शूटिंग को याद करते हुए बताते हैं कि, फिल्ममेकर्स हर शॉट को लेकर बहुत जागरूक हुआ करते थे। इस फिल्म की शूटिंग करते समय निर्देशक चेतन आनंद ने एक शॉट के लिए 40 फूट ऊंची क्रेन को ऊंचाई पर ले गए थे जिसके लिए करीब 25 व्यक्ति की मदद ली गई थी। 


अच्छी कहानियों की कमी 

फारुख इस बात को मानते हैं कि सिनेमा कही न कही अपनी लय खो रहा है। वे कहते हैं कि, लेखक पहले गांव के हुआ करते थे इसलिए कहानियां जमीन से जुड़ी होती थी। दर्शक आसानी से कहानी से कनेक्ट हो पाता था। आज एेसा कम ही फिल्मों में देखने को मिलता है क्योंकि लेखक मेट्रो में रह रहा है। 70 के दशक में ज्यादातर फिल्में क्लासिक्स रही हैं और जमीन से जुड़ी थीं। इसका कागज के फूल एक बेहतरीन उदाहरण है। बात करें तलाक या फिर एक्स्ट्रा मैराइटल अफेयर की तो सिनेमा में 1961-63 में ही इसको दर्शा दिया गया था। 

आपको बता दें कि, फारुख मिस्त्री के पिता फली मिस्त्री को सिनेमा में सिनेमेटोग्राफी के महत्व से रूबरू करवाने के लिए जाना जाता है। उनका नाम विश्व के प्रसिद्ध सिनेमेटोग्राफर्स में शुमार है। उन्होंने 1942 में फिल्म माता से सिनेमेटोग्राफी के सफर की शुरूआत की थी। इसके बाद वे कई प्रसिद्ध फिल्मों का हिस्सा रहे। वहीं, फारुख की मां अभिनेत्री श्यामा अपने करियर में करीब 175 फिल्मों में काम किया था। श्यामा को गुरुदत्त की आर पार में उनके अभिनय के लिए याद रखा जाता है। 


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