महेश मांजरेकर ने इसलिए नहीं करवा विदेश जाकर अपने कैंसर का इलाज, पढ़ें एक्टर के साथ ये खास बातचीत
जब सेहत संबंधी दिक्कतें हुईं तो डेढ़ साल तक इलाज कराते हुए मैं कैंसर को लेकर मानसिक तौर पर तैयार था। वैसे देखा जाए तो जीवन ही बहुत अनप्रेडिक्टेबल है। शुक्रगुजार हूं कि अब तक जिंदा हूं। मस्त लाइफ जी रहा हूं।
स्मिता श्रीवास्तव। अभिनेता और निर्देशक महेश मांजरेकर फिल्म ‘अंतिम: द फाइनल ट्रुथ’ की शूटिंग के दौरान यूरिनरी ब्लैडर कैंसर से पीड़ित थे। कैंसर को मात दे चुके महेश से सलमान खान के आफिस में बातचीत के अंश...
आपने कहा था कि जब आपको कैंसर होने की खबर मिली, तो डर नहीं लगा। यह निडरता कहां से आई?
जब सेहत संबंधी दिक्कतें हुईं, तो डेढ़ साल तक इलाज कराते हुए मैं कैंसर को लेकर मानसिक तौर पर तैयार था। वैसे देखा जाए, तो जीवन ही बहुत अनप्रेडिक्टेबल है। शुक्रगुजार हूं कि अब तक जिंदा हूं। मस्त लाइफ जी रहा हूं। जो होना है, वह होगा। आज मैं कैंसर फ्री हूं। मैं यकीन करता हूं कि कोई भी चीज हमेशा के लिए नहीं रहने वाली। अंतिम सच से क्या डरना, वह बदल नहीं सकता है।
आपने विदेश न जाकर भारत में अपना इलाज कराया...
हां, अगर हम ही अपने डाक्टर्स पर यकीन नहीं करेंगे, तो कौन करेगा। हमारे पास बहुत अच्छे डाक्टर्स हैं। विदेश में भी अधिसंख्य भारतीय डाक्टर्स ही हैं, जो इलाज करते हैं।
आपकी और सलमान खान की दोस्ती कहां से शुरू हुई थी?
जब हम मिले थे, तभी से एक बांड बन गया था। ‘दबंग’ में मैंने अभिनय किया था। उसके बाद ‘रेडी’, ‘जय हो’ जैसी कई फिल्में साथ कीं। दोस्ती हो गई, घर आना-जाना शुरू हो गया। ‘अंतिम: द फाइनल ट्रुथ’ की मूल मराठी फिल्म ‘मुलशी पैटर्न’ में मैंने काम किया था। मैंने कहा कि अगर यह फिल्म मैं लिखूंगा, तो इसका निर्देशन भी मैं ही करना चाहूंगा। वह मान गए। सलमान ने ही निर्णय लिया कि हीरोइन नहीं चाहिए।
क्या हिंदी में रीमेक करते वक्त फिल्म को कामर्शियल ढांचे में फिट करने का दबाव बढ़ जाता है?
मुझे कामर्शियल फिल्म बनाना नहीं आता है। मैंने ‘अंतिम: द फाइनल ट्रुथ’ लिखी, तो मैंने कहा था कि इस फिल्म में सलमान उनकी दूसरी फिल्मों से अलग होंगे। वह तैयार थे। यह पुलिस वाला किरदार ‘दबंग’ जैसा नहीं है।
जब फिल्म को रीमेक किया जाता है, तो हिंदी दर्शकों का ध्यान रखना पड़ता है?
जब आप ईमानदारी से फिल्म बनाते हैं, तो दर्शक उसे देखते हैं। फिल्म हिट होती है, तो मतलब है कि लोग अच्छा सिनेमा देखना चाहते हैं, फिर भाषा से फर्क नहीं पड़ता है।
इस फिल्म में किसानों के मुद्दे को कितनी गहराई से दिखा पाए हैं?
किसानों के मुद्दे से ज्यादा, शहरीकरण की वजह से जमीन के जो दाम बढ़ रहे हैं, उस पर बात है। अब लोग गांव की तरफ बढ़ रहे हैं, स्मार्ट सिटीज बनाने की बातें हो रही हैं। किसानों को लगता है कि जमीन से कुछ नहीं मिल रहा है, तो इसे बेच देना आसान विकल्प है। इसका बहुत नुकसान होने वाला है। आज किसान का बेटा भी खेती नहीं करना चाहता है। उन्होंने अपने पिता को दिक्कतों में देखा है, तो वो क्यों और कैसे करें! इस पर बात होनी जरूरी है।
आपने कहा कि जब आप निर्देशन करते हैं, तो उस फिल्म में एक्टिंग नहीं करना चाहते हैं...
(हंसते हुए) मुझे बहुत ऊब होती है। मैं फिर दोनों पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाता।