शाह रुख़ से फाइट में जब टूट गया था अमरीश पुरी की शर्ट का बटन, पुण्य तिथि पर दुर्लभ तस्वीरें और अनसुने क़िस्से
आज के एक्टर्स टर्न्ड सिंगर अमरीश की मेहनत देख लेते तो शरमा जाते और फिर कभी सिंगिंग से खिलवाड़ करने की जुर्रत नहीं करते। चूंकि अमरीश ने ज़िंदगी में कुछ भी कैजुअली नहीं किया।सिंगिंग का शौक सिर्फ शौक तक सीमित नहीं रखा। खूब सारी फिल्मों में गाने भी गाये। लेकिन रियाज़ करते।मशीनी रियाज नहीं। ओरिजनल वाली। फिर ही रिकॉर्डिंग करते।
अनुप्रिया वर्मा, मुंबई। प्लॉट नंबर 45 किधर होगा, बता पायेंगे क्या...वरदान...अपार्टमेंट ...काफी मशक्कत के बावजूद यह ठिकाना ढूंढना मुश्किल हो रहा था। उस दिन थोड़ी हैरान थी कि ऐसा क्यों हो रहा। अमूमन मुंबई में प्लॉट नंबर, अपार्टमेंट और फ्लैट नंबर के साथ अगर पता-ठिकाना दुरुस्त हो, तो मंज़िल तलाशना मुश्किल नहीं होता। ऑटो से इधर-उधर सेक्योरिटी गार्ड्स से पूछते-पूछते यह ठौर तलाश ही रही थी कि एक ने पूछा आपको मोगेंबो के यहां मेरा मतलब है कि अमरीश जी के यहां जाना है क्या? मैंने तुरंत हां कहा, तो सामने से जवाब आया तो मैडम प्लॉट, अपार्टमेंट क्या पूछ रहे हो। बोलो कि अमरीश पुरी के यहां जाना है।
तभी मेरा दिमाग ठनका, हां ये मैं कैसे भूल गयी कि मैं जिस इलाके में इस वक्त हूं, वह हिंदी सिनेमा के उस बायस्कोप वाले खिलौना-कैमरे की तरह है, जिसकी रील बदलो तो अमिताभ का जलसा... शत्रुघ्न का रामायण और वहीं बगल में ड्रीम गर्ल का डेरा होगा। लेकिन यह बात ज़हन में क्यों नहीं आयी कि अमरीश पुरी के नाम से घर तलाशती तो खाक नहीं छाननी पड़ती। लेकिन कहीं ज़हन में शायद ये भी बात रहती है ना कि लोग स्टार्स को जानते हैं। नायक को जानते हैं। खलनायक को कौन याद रखता है! लेकिन यह खलनायक कोई आम खलनायक तो था नहीं। एक ऐसा खलनायक जिसने दर्शकों को डर से थर-थर कांपने पर मजबूर कर दिया था।
खलनायक की इस नकारात्मक छवि वाले कलाकार की असली ज़िंदगी को करीब से देखा तो वहां तो वह कुछ-कुछ दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे वाला बलवंत सिंह नज़र आया तो कुछ कुछ राज मल्होत्रा। जी हां ठीक सुना आपने राज मल्होत्रा। गये तो थे खलनायक की ज़िंदगी के सफ़र का ब्योरा लेने, मगर बेटे राजीव पुरी के माध्यम से एक अलग अमरीश पुरी को देखा। कौन विश्वास करेगा कि लड़कियों को अपनी बट पर बिठाने वाला। ऑनस्क्रीन छेड़खानी करने वाला। हमेशा नशे की लत में डूबा रहने वाला खलनायक रियल लाइफ में कभी नशा नहीं करता था। न ही सिगरेट का शौक़। औरतों की सबसे ज्यादा इज़्ज़त करने वाला शख़्स होगा।
फिर ज़हन में ख़याल आया हम उसी लार्जर देन लाइफ खलनायक वाली छवि अमरीश पुरी की ज़िंदगी के कुछ पन्ने पलट रहे हैं, जिसने मोगेंबो वाली अपनी छवि से स्पिलबर्ग को दीवाना बना दिया कि स्पिलबर्ग उनकी हर शर्त मानने को तैयार थे।
अमरीश पुरी की फिल्मों के बारे में, उनके अभिनय पर खूब लिखा, पढ़ा, सुना देखा गया है। जागरण डॉट कॉम ने कोशिश की है उनकी रियल ज़िंदगी के कुछ हिस्से समटने की। प्रस्तुत है पूरी बातचीत अमरीश के बेटे राजीव पुरी की किस्सागोई के आधार पर...
सुरों में खेलता बचपन और बग़ावती तेवर
पंजाब के जालंधर की धरती पर जन्म लेने वाले अमरीश का बचपन से रुझान अभिनय की तरफ था और होता भी क्यों नहीं। जब के एल सहगल जैसे दिग्गज कलाकार संपारिवारिक ताल्लुक हो। संगत तो रंग दिखाती ही है। फिर कम उम्र से ही बड़े भाई मदन पुरी (मशहूर अभिनेता) को भी उसी रास्ते पर बढ़ते देख लिया, लेकिन एक्टिंग की खुमारी उन तमाम युवाओं की तरह नहीं, जो हर रोज मुंबई केवल शाह रुख़ बनने का सपना लेकर आते हैं। बिना किसी तैयारी के। एक्टिंग को चुना तो उसे अपनी पूजा बनाया। नमाज़ की तरह हर दिन उसे अदा किया। बचपन से ही गीत-संगीत, एक्स्ट्रा-क्यूरिक्युलर गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। केवल भाई के नक्शे क़दम पर नहीं चलते रहे। न ही उनको फॉलो किया। न नकल की। खुद की पहचान बनायी।
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राजीव बताते हैं कि घर में इसे लेकर मनाही भी नहीं थी। खूब खुला माहौल था। इसे संस्कृति का हिस्सा माना जाता था। सो, खूब प्लेज़ किये, स्कूल के दिनों में ही। लीडरशिप क्वालिटी भी बचपन से रही। खूब बढ़-चढ़कर स्कूल में लीडर बनते। जहां ग़लत होता देखते। आवाज भी उठाते। यह फितरत तो उनकी फिल्म इंडस्ट्री में भी बरकरार रही। कहीं कुछ नाइंसाफी होते देखते, तो चुप नहीं बैठते तुरंत बोलते थे। आवाज उठाते थे। जितनी दमदार आवाज के धनी थे। बचपन से ही अलग सिग्नेचर बन चुके थे स्कूल में भी। बचपन में केएल सहगल को अपने क़रीब रखा, शारीरिक रूप से नहीं। उनकी रचनाओं को खूब सुनते थे। उनके गाने दोहराते थे। घर में हमेशा गुनगुनाते थे। मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, मन्ना डे, जगजीत सिंह... बाद में फेहरिस्त में जुड़ते गये।
बांसुरी बजाने की कला तो सालों तक बरकरार रही। घर पर खाली समय में गुनगुनाना, म्यूजिक सुनना और बांसुरी बजाना उन्हें अत्यंत प्रिय था। आज के एक्टर्स टर्न्ड सिंगर अमरीश की मेहनत देख लेते तो शरमा जाते और फिर कभी सिंगिंग से खिलवाड़ करने की जुर्रत नहीं करते। चूंकि अमरीश ने ज़िंदगी में कुछ भी कैजुअली नहीं किया।सिंगिंग का शौक सिर्फ शौक तक सीमित नहीं रखा। खूब सारी फिल्मों में गाने भी गाये। लेकिन रियाज़ करते।मशीनी रियाज नहीं। ओरिजनल वाली। फिर ही रिकॉर्डिंग करते।
राजीव बताते हैं कि बाद में निर्देशकों को उनकी आवाज़ इतनी पसंद आने लगी थी कि फिल्म में एक गाना उन्हें ध्यान में रख कर लिखने लगे थे। दो पंक्तियां ही सही। लेकिन उनकी आवाज़ से जान आ जाती थी। चलिये, अब खुद रिवाइंड करके एक बार इन गानों को सुन लीजियेगा। 'द हीरो' का गाना 'इन मस्त निगाहों से', 'तराजू' का 'चल गन्ने के खेत में', 'तहलका' का 'शोम शोम शोम', 'शिकारी' का 'जो आता है, माशूका माशूका' जैसे गाने शामिल हैं।
...और फिर लौटा हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का गब्बर
आज के दौर में अमरीश पुरी अगर फ़िल्मों में आते तो नेपोटिज़्म के आरोप लगने सहज थे। आख़िर बड़े भाई मदन पुरी पहले से ही स्थापित कलाकार थे। चीख कर दुनिया से कहते भी कि भई, मेरा कोई गॉड फादर नहीं है।फिर भी नेपोटिज्म के घेरे में तो मीडिया घेर ही देती। हकीकत यह है कि मदन पुरी की वजह से फ़िल्मों में उनकी एंट्री आसान नहीं हुई। मुंबई आये तो शुरुआती दौर में जहां भी आॅडिशन देते, सब कहते अजीब सी शक्ल है। हार्ड आवाज़ है। जबकि वो दौर सॉफ्ट आवाज़ वाले कलाकारों का था। अजीब सी आवाज़ है। बिल्कुल मिसफिट हो। पर हारे नहीं, थिएटर का अपना रियाज़ जारी रखा। खूब थियेटर किया। गुरु मिल गये सत्यदेव दुबे। थिएटर की दुनिया के धुरंधर। बतौर एक्टर अमरीश को खूब मांझा, खूब मथा। खूब काम कराया। खूब आलोचना की, मगर अमरीश भी डटे रहे। मंझने दिया, खुद को निखरने दिया, संवरने दिया। खुद तपे, तपस्या की और पूरी तरह जब तराशकर सामने आये तो वह हिंदी सिनेमा के सबसे लीजेंडरी खलनायकों में से एक बने।
कभी हार्ड आवाज़, मिसफिट वाला वही चेहरा, वही आवाज़ अमरीश की यूनिक पर्सनैलिटी बना। बनते भी क्यों नहीं। फिल्मों में फिट होने के लिए उन्होंने 1950 से 1978-1979 तक का समय थिएटर में बिताया। राजीव बताते हैं कि एक दिन उन्होंने अपने पिता से पूछा था कि उनको इतना यकीन कैसे था कि वह एक्टर के रूप में स्वीकार लिये जायेंगे। अमरीश कहते थे, चूंकि जब वह थिएटर करते हैं और दर्शकों का रिएक्शन देखते हैं तो समझ जाते हैं कि लोग मुझमें कुछ तो देख रहे हैं। इसलिए नौकरी के साथ-साथ थिएटर का काम जारी रखा। उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई। गिरीश कर्नाड नाटक देखने आये। अमरीश के अंदर का कलाकार उनकी पारखी नज़रों में समा गया। गिरीश उन्हें लेकर गये। पहली कन्नड़ फिल्म में अभिनय करवाया। फिर गोविंद निहलानी, श्याम बेनेगल का ध्यान गया। वह अर्धसत्य, निशांत, मंथन, भूमिका जैसी फिल्मों में खूब काम किया।
राजीव बताते हैं कि अब भी स्ट्रगल जारी ही था। कमर्शियल फिल्मों की सफलता का स्वाद 'हम पांच' से शुरू हुआ। हम पांच के बाद एकदम से हलचल हुई इंडस्ट्री में कि कोई आया है। दमदार आवाज़, दमदार पर्सनैलिटी वाला एक्टर। फिर धड़ाधड़ फिल्में मिलीं। अमरीश ने भी बिना वक्त गंवाये फिल्में साइन कीं, लेकिन अपनी शर्तों पर। एक के बाद एक खलनायक के किरदार। इंडस्ट्री में हल्ला मच गया कि हिंदी सिनेमा का गब्बर लौट आया है। अमजद ख़ान, प्राण जैसे दिग्गजों की खलनायकी की टक्कर का खलनायक लौटा चुका था।
अमरीश यह ठाने हुए थे कि एक इमेज में नहीं बंधना है। लिहाज़ा खलनायकी के अलावा भी किरदारों के साथ प्रयोग करते रहे। पॉजिटिव करेक्टर भी निभाए, जिनके लिए ख़ूब वाह-वाही मिली। इंडस्ट्री ने मान लिया कि उम्र इस एक्टर के आड़े नहीं आ सकती। याद कीजिए अमरीश ने खुद को लेकर यही भविष्यवाणी तो की थी।
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राजीव बताते हैं कि डैडी को रियल सफलता का स्वाद उस वक्त मिला जब वह 44 का बसंत पार कर चुके थे। मगर कभी उनके चेहरे पर शिकन नहीं देखी, न ही एक्टिंग छोड़ने की मंशा। जब तक फिल्में नहीं कीं तो नाटक में भी झंडे गाड़े। इतने सारे प्रतिष्ठित अवॉर्ड हासिल किये कि फिल्मों की फेहरिस्त से लंबी थी पुरस्कारों की लिस्ट। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से लेकर तमाम सम्मान।
इसके बाद तो 400 फिल्मों का कारवां। हिसाब लगा लें तो एक साल में बारह फिल्में बैक टू बैक़। राजीव बताते हैं कि एक दिन में चार-चार शिफ्ट करते थे, लेकिन घर आये तो थकान थोड़ी भी नहीं। फिर दूसरे दिन की तैयारी।स्क्रिप्ट 15-20 दिन पहले मंगा लेते थे और पूरे कॉस्टयूम और मेकअप के साथ घर पर भी रिहर्सल करते थे। मेकअप कॉस्टयूम हमेशा अहम हिस्सा रहा। खलनायक बनकर कभी बोर नहीं हुए। इसका जवाब भी अमरीश के पास था, जो कि राजीव ने बताया। खास बात यह थी कि उनके पूरे करियर को देखा जाये तो उन्होंने खुद अपनी फिल्मों में अपने लिये चैलेंजेज तैयार किये हुए थे। किसी भी फिल्म में विलेन बने, लेकिन अपनी पिछली फिल्म से जुदा। राजीव कहते हैं कि वह इस पर वर्क करते थे।
अपने कॉस्टयूम डिजाइनर से लेकर विग वाले तक, मेकअप, डायरेक्टर सबको शामिल करते थे। ब्रेन स्टॉर्मिंग होती थी। अमरीश के मेकअप मैन, कॉस्टयूम डिजाइनर जो भी रहे शुरू से अंत तक एक ही रहे। रिश्ते बनाने में भी तो माहिर थे। तभी दामिनी का लालची लॉयर, तो मिस्टर इंडिया का मोंगेंबो, कोयला का राजा, करन अर्जुन का दुर्जन सिंह सब उनके ही नये नये अवतार होते थे। राजीव बताते हैं कि फिरोज़ ख़ान की कुर्बानी, सुनील दत्त की रेशमा और शेरा जैसी फिल्मों ने भी शुरुआती दौर में उन्हें अच्छी पहचान दिलाने में काफी मदद की।
परिवार पर जान लुटाने को तैयार पर्दे का दुर्जन सिंह
‘करन अर्जुन’ वाले खलनायक ठाकुर दुर्जन सिंह रियल लाइफ में अपने घर की दहलीज पर पांव रखते, तो फ़िल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ वाले फैमिली मैन बलवंत सिंह बन जाते थे। परिवार पर जान लुटाने को तैयार! ठाकुर दुर्जन सिंह के उस वर्जन के बिल्कुल विपरीत जो पैसों के मामले में पैदाईशी कमीना होने की बात करता है, दोस्ती और दुश्मनी क्या अपनों का खून भी पानी की तरह बहा देने को तैयार रहता है। रियल लाइफ का बलवंत सिंह खून बहाने की बात तो दूर, परिवार में किसी को खरोच तक आ जाये, तो आंसू नहीं रुकते थे। पैसों को तो रिश्तों के सामने कभी तवज्जो नहीं दिया। बेटे राजीव पुरी बताते हैं कि पैसों से उनको कभी लालच न रहा पैसा उनके लिए रिश्तों से बढ़ कर नहीं था। हां, मेहनत की कमाई थी तो उस कमाई की इज्जत भी खूब करते थे लेकिन फिजूलखर्ची बोल्कुल नहीं! बच्चों को प्यार में अंधा भी नहीं किया था, तो ऐसा भी नहीं था कि एकदम खड़ूस पापा जैसे खुशियों को न पूरा करें।
अमरीश के लिए फिल्मी पार्टियां केवल फिल्मी पर्दों तक ही सीमित थी, घर पर तो भोले शंकर थे। एकाग्र, काम और परिवार! जीवन में जैसे दो ही लक्ष्य हो, एक्टिंग के बाद बाकी समय बच्चों का, बीवी का! धुएं का छल्ला उड़ानेवाला खलनायक, बात-बात पर दारू के नशे में डूबने वाले किरदार ने रियल लाइफ में तो शराब और सिगरेट को हाथ भी नहीं लगाया था। वीकेंड पर परिवार के साथ सैर-सपाटा पसंद था। कजिन के एल सहगल के गाने सुनना और सुनाना बेहद पसंद था। काम में मानो लीन रहते थे, किसी किरदार की तैयारी करनी हो तो ऐसा नहीं होता था कि बस काम को ही तवज्जो दिये जा रहे हैं। पहले कह देते थे कि आज इतने घंटे मैं अपने काम में रहूंगा, उससे पहले मुझसे बात कर लो या बाद में करना।
राजीव बताते हैं, जब स्क्रिप्ट पढ़ते तो उस वक्त उन्हें एकांत चाहिए होता था। लेकिन ऐसा कोई दिन नहीं होता था, जब हम भाई बहन से वह बातचीत न करते हों, होमवर्क चेक न करते हों और दुनिया संस्कार, नैतिक मूल्यों की बातें न करते हों। घर पर जन्मदिन हो तो उनको घर भरा चाहिए होता था। लेकिन मेहमानों से नहीं, अपनों से। हर खुशी के मौके पर पूरा परिवार साथ चाहिए, वह परंपरा आज भी जारी है। पापा का दिया कोई खास तोहफा जो आज भी पास हो, यह पूछे जाने पर राजीव कहते, डैडी ने कभी मटेरियलिस्टिक चीजों को तवज्जो नहीं दी। वह तोहफे देने में यकीन नहीं रखते थे। हां, हर जन्मदिन पर जिंदगी के लेसन जरूर देते थे। और वक्त की पाबंदी तो ऐसी कि अगर राजीव या बहन ने 11.30 का वक्त दिया है 11.45 हों तो गुस्से से लाल जरूर हो जाते। उनका कहना था समय की इज्जत करो। जो वक्त कहा है उस पर आओ, वहीं वक्त दो जिस पर पहुंच पाओ।
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मेहमानों की कद्र करना भी उनके लिए किसी किरदार को अपना 100 प्रतिशत देने से कम नहीं था। अगर खुद नहीं रहे और राजीव को कहा है कि बेटा आज तुम्हें मेहमानों को अटैंड करना है तो मतलब मेहमानों से पहले पहुंचो। वरना, फिर मोगैम्बो बनते उन्हें देर नहीं लगती थी। राजीव इस बात का पूरा ख्याल रखते थे। स्टार किड्स की तरह राजीव या बहन ने कभी फिल्मों की तरफ रुख क्यों नहीं किया? वह बताते हैं कि ऐसा नहीं था कि पिताजी का दबाव था कि हम एक्टिंग में न जायें। लेकिन वह कहते थे पूरी पढ़ाई करने के बाद, चूंकि वह खुद भी पूरी शिक्षा हासिल करने के बाद ही एक्टिंग से जुड़े थे। लेकिन खुद राजीव और बहन दोनों का ही झुकाव फिल्मों की तरफ नहीं हुआ।
राजीव मर्चेंट नेवी की तरफ चले गये। अच्छा, ऐसा नहीं था कि बेटे-बेटी हैं तो कोई फर्क होगा, बेटे को ज्यादा और बेटी को कम। शायद वजह यह भी थी कि अमरीश के पिता और माता दोनों प्रोगेसिव थॉट के थे। बेटी को नाइट आउट की इजाजत नहीं थी, तो बेटे राजीव भी रात में दोस्तों के साथ मटरगस्ती नहीं कर सकते थे। हर चीज का वक्त होता है और हर काम संतुलन में होना चाहिए, अमरीश इसी सिद्धांत पर चलते थे। वह वक्त के पाबंद ही नहीं, बर्बादी भी नहीं करने वालों में से थे। जब सरकारी मुलाजिम थे, 9 से 6 की डयूटी बजाते थे। तब उनकी सुबह और जल्दी हो जाती थी। सोचते थे कि ऑफिस जाने से पहले एक्टिंग का रियाज कर लूं। फिर दिन भर वक्त नहीं मिलेगा, फिर रात में भी आकर वक्त का इस्तेमाल करते थे। इसीलिए अपनों से भी वहीं उम्मीद करते थे।
राजीव बताते हैं कि अगर अमिताभ बच्चन और अमरीश पुरी किसी फ़िल्म में साथ शूटिंग कर रहे हैं तो निर्देशकों और निर्माताओं की हालत खराब रहती थी कि वक्त पर पहुंचना ही है। चूंकि कॉल टाइम अगर 9 की हो तो दोनों 8 बजे सुबह पहुंच कर कुर्सी लगा कर पेपर पढ़ते रहते थे। प्रोड्यूसर या क्रू पहुंचे न पहुंचे, कुर्सी रखवा दी जाती थी कि दोनों आ ही जायेंगे। सुबह उठ कर, फ्रेश होकर व्यायाम कसरत करना भी उनके लिए नमाज़ पढ़ने जैसा ही था। राजीव बताते हैं कि उस दौर में भी वो जिम जाते थे। अगर वक्त नहीं रहा तो फिर घर पर ही एक्सरसाइज़ करते थे। खाने में उतने ही शौकीन कि शरीर का नक्शा न बिगड़े। स्पष्ट सोच थी, एक्टर अपना ख्याल नहीं रखेगा तो उन्हें कौन देखेगा। सो, जरूरतभर ही खाते थे। हालांकि ऐसा नहीं था कि खाने के शौकीन नहीं थे मगर, याद रखते थे खाना दूसरे का है और पेट अपना। मोगैम्बो कब खुश होते थे-कब गुस्सा होते थे।
राजीव कहते हैं कि रियल लाइफ में मोगेम्बो को बच्चों से घिरे रहना पसंद था। जब उनकी फ़िल्म ‘मिस्टर इंडिया’ आयी, परिवार वालों को लगा था कि बच्चे उनसे डरने लगेंगे। खुद अमरीश को भी यही लगा था लेकिन, उल्टा ही हुआ। राजीव के अनुसार अमरीश के चाहने वालों में बच्चों की संख्या ज्यादा हो गयी। कहीं पब्लिक प्लेस पर जाते तो बच्चे अमरीश को देखते ही कहते अंकल वो मोगैम्बो वाला डायलॉग तो बोलो। पार्टी में बच्चे उन्हें घेर कर खूब बातें करते, अमरीश भी बच्चों को लेकर कोने में जाते और उनके साथ मस्ती करते, ऑटोग्राफ देते और फिर उन्हें फ़िल्म देखने के साथ पढ़ाई पर भी पूरा ध्यान देने को कहते। फैन्स की चिट्ठियां आयें तो बकायदा एक स्टाफ था, जो अमरीश की फोटो वाली पोस्टकार्ड पर अमरीश की सिग्नेचर लेकर फिर उसे पोस्ट कर आता था। मोगैम्बो वाले लेटर की तो सबसे ज्यादा डिमांड थी।
इश्क एंबेस्डेर महबूबा मसर्डीज़
ड्राइविंग में उनकी जान बसती थी। खूब खुश होते जब ड्राइविंग सीट पर होते थे। राजीव के साथ खूब लांग ड्राइव करते थे, अक्खा मुंबई की खाक छानते थे। पहले-पहले तो एंबैसेडर खरीदी, सेकेंड हैंड थी। लेकिन शौक ड्राइविंग का ऐसा था कि हैसियत के अनुसार पहले मोटरबाइक खरीदी, ‘जावा’! पहली धन्नो वही थी मतलब! उसी से नौकरी के लिए भी जाते और थियेटर के लिए भी जाते थे। फिर फ़िल्मों की कमाई ने एंबैस्डर दिला दी। लेकिन, असली इश्क का परवान चढ़ा जब घर में मर्सडिज आयी। राजीव कहते हैं कि हम दोनों के बीच कार की खूब बातें होती थीं। कार की मेकेनिक्स में उनका जो ज्ञान था, अच्छे अच्छे फिजिक्स वाले फेल हो जाते। नये नये कार के मॉडल्स पर डिस्कशन होता था। मतलब समझ लें अमरीश ने जिंदगी में जिसे भी चाहा, उसे 100 प्रतिशत अपना बनाया। ड्राइविंग से इश्क हुआ तो पूरे मेकेनिक्स का चप्पा-चप्पा छान जाने की लत लग गयी। नतीजन मर्सडीज वाला प्यार का खुमार लगातार चढ़ा। किसी महबूबा से इश्क की तरह!
1983 में पहली मर्सडिज वेंज खरीदी। फिर लगातार मर्सडीज, जब जब मॉडल बदले अमरीश ने घर में कारों की लाइन लगा दी। आज भी अमरीश की पहली मर्सडीज राजीव ने संभाल कर रखी है। आज वह गाड़ी विंटेज हो चुकी है। लेकिन देखो तो एकदम चकाचक, टिप टॉप। जैसे बस शोरूम से निकल कर आयी हो टेस्ट ड्राइविंग के लिए। 35 साल पुरानी किसी एंगल से नहीं दिखती, तस्वीरों में आप खुद देख कर अनुमान लगा सकते हैं। अमरीश के घर में हमेशा मर्सडीज के मॉडल के साथ स्टाफ भी अपडेट होते थे, जो हमेशा कारों की देखभाल और उसे दुरुस्त रखते थे। अच्छा, डिस्प्लीन वाले बलवंत सिंह का भूत यहां भी सवार रहता था। राजीव कहते हैं कि अनुशासित इतने थे कि सारे ट्रैफिक रूल फॉलो करते थे। यल्लो लाइन पर ही चलना है। सिग्नल होने से पहले गाड़ी धीमी कर देना है। सिग्नल तोड़ने का तो सवाल ही नहीं उठता था। ताज कोलाबा की तरफ खूब जाया करते थे। पहला मकान मुंबई के सांताक्रूज में था। तो वहां भी खूब जाया करते थे। ड्राइविंग भी एक्टिंग की तरह उनके लिए आर्ट थी। दिल जिससे लग जाये तो उसे दिल से ही लगा लेते थे। कुछ ऐसा ही प्यार एक कुत्ते से भी हुआ, सन्नी नाम रखा था। जब उसकी मौत हुई तो उनका दिल टूटा और ऐसा टूटा कि तय किया कि अब कोई पेट्स नहीं रखेंगे। उनके जाने पर दिल टूटता है और दर्द होता है। सो, तब से फिर कोई सन्नी घर नहीं आया।
ऐसे मिलीं रियल लाइफ़ में 'सिमरन'
कोयला फिल्म में जबरन गौरी का अपहरण करने वाला, राम-लखन में राधा और लखन की मोहब्बत का दुश्मन विशम्भर नाथ रियल लाइफ़ में तो दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे वाला राज मल्होत्रा निकला। प्यार को पूजने वाला, लेकिन परिवार को साथ लेकर चलने वाला। राज की तरह रियल लाइफ में अमरीश को उनकी सिमरन मिलीं। उन्हें उनकी पहली सरकारी नौकरी के दौरान।
उर्मिला दिवेकर मराठी मुलगी। अमरीश ठहरे पंजाबी मुंडा। मिलन हुआ मुंबई मेट्रो में। भला हो कि इस लव स्टोरी में इस राज को किसी बलवंत सिंह के साथ कबूतरों को दाना डालने की जरूरत नहीं पड़ी। पिताजी-माताजी तो प्रोगेसिव विचारों के थे ही। उर्मिला के परिवार से भी कभी कोई दिक्कत पेश नहीं आयी। उर्मिला को वो सिमरन वाला संवाद दोहराने की जरूरत ही नहीं पड़ी अपने बाबूजी से कि राज के साथ जाने दीजिए। उन्होंने खुद राजी-खुशी उनका ब्याह रचा दिया। उस वक्त तक नौकरी साथ-साथ ही हो रही थी, लेकिन अब अभिनय करियर को धीरे-धीरे राह मिल रही थी। फिर अमरीश ने निर्णय लिया कि नौकरी छोड़नी होगी। चूंकि अब दो पैर पर सवार नहीं रह सकते। सो, तय हुआ कि उर्मिला जॉब करती रहें और अमरीश अब सिर्फ एक्टिंग पर ध्यान दें। वह दौर आसान नहीं था। आर्थिक रूप से मुंबई की महंगाई को देखते हुए एक सैलरी से सब जरूरतें पूरी नहीं होती थीं, लेकिन अच्छी बात यह थी कि अमरीश इतने फोकस्ड थे कि कभी जरूरतों को बढ़ने ही नहीं दिया। उनकी ही फिल्म झूठ बोले कौवा काटे का डायलॉग था आदमी को अपनी हैसियत में रहना चाहिए। दूसरों की दया पर जीना भी कोई जीना है। उन्होंने रियल लाइफ में फिलॉसफी रखी।
राजीव बताते हैं कि अमरीश ने ता-उम्र अपने घर की महिलाओं का सम्मान किया। वह हमेशा अपनी पत्नी को अपनी सफलता का बराबर का श्रेय देते थे। राजीव बताते हैं कि घर में मराठी और पंजाबी दोनों त्योहार मनाए जाते और रोजाना के खान-पान में दोनों राज्यों का संगम होता था। राजीव यह भी बताते हैं कि डैडी भले ही बहुत शौकीन नहीं थे खाने पीने के, लेकिन मां के हाथों का खाना बेहद पसंद था उनको। कोंकण खाना खूब बनता था और उन्हें पसंद भी था खाना। चावल खाना पसंद नहीं करते थे। रोटियां खाते थे चाव से। वेजिटेरियन ज्यादा पसंद था, लेकिन नॉन वेज में सी फूड और फिश का लुत्फ उठाते थे कभी कभी। बाहर कभी साथ खाने गये तो इंडियन पसंद करते थे। बीवी उर्मिला का घूमने का मन है तो कभी उन्हें न नहीं कहते। आख़िर दोनों ने स्ट्रगल साथ ही तो देखा था। जिम्मेदारियां बढ़ीं तो सैलरी घट गयी थी।
राजीव बताते हैं कि पहले दो सैलरी घर आती थी, फिर पिताजी ने नौकरी छोड़ी तो एक आने लगी। लेकिन मां के मैनेजमेंट ने सबकुछ मैनेज किया। मां को कभी उन्होंने शिकायत करते नहीं देखा कि वक्त नहीं दे रहे या देर से घर क्यों आ रहे। मां जानती थीं कि अमरीश ने इतने साल शरीर से भले ही सरकारी नौकरी की हो मगर रूह तो एक्टर की रही है।
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राजीव बताते हैं कि मां ने हर हाल में पापा का साथ दिया। सफलता मिली तो एक-दूसरे के साथ रह कर ही इसका जश्न भी मनाया। फिल्म हिट होती थी तो भले ही पार्टी ना करें मगर परिवार के साथ खुशी जरूर शेयर करते थे। राजीव बताते हैं कि फिल्मों को लेकर भी उनकी राय लेते थे। मोगेंबो यानि मिस्टर इंडिया के प्रीमियर के बाद उन्होंने राजीव से पूछा था कि बच्चों को तो पसंद आयेगी। चूंकि वह यह बात भांप गये थे कि बच्चों को यह फिल्म पसंद आने वाली है। हुआ भी वैसा ही। सेंस आॅफ ह्यूमर कमाल था। बेटे बताते हैं कि मां और उनमें जब भी बातें होती थीं तो उनके कुछ न कुछ वन लाइनर होते थे, लेकिन उन्हें लूज टॉकिंग बिल्कुल पसंद नहीं थी। उनके को-स्टार्स भी बताते थे कि कभी भी वह सेट पर फालतू बातें नहीं करते थे और किसी का मज़ाक नहीं बनाते थे। मां के हाथों का संतुलित खाने की आदत ऐसी लगी थी कि अगर मुंबई में शूटिंग हो रही थी तो मजाल है कि कहीं बाहर से खाना खायें। खाना घर से ही जाता था। वहीं बाहर शूटिंग होती तो पहले ही कुक को जाकर बोल देते थे कि मेरे लिए ये सब्जी ही बनाओ बिना तेल और मसाले के और यह शर्त उनकी सख्त होती थी। ज़ाहिर है, निर्माता मानते ही थे।
शाह रुख़ ख़ान ने तोड़ दिया था शर्ट का बटन
शाह रुख़ ख़ान ने बताया, अमरीश पुरी उनके नज़दीकी रहे। उनकी पहली फिल्म थी दीवाना, जिसमें उनके साथ उन्होंने एक्शन सीन किया था। ज़िंदगी का पहला एक्शन सीन अमरीश पुरी के साथ। अमरीश ने उन्हें खूब स्रेह दिया और कहा कि आराम से करना। मोटरबाइक का सीन था। फिर स्टंट थे। अमरीश ने शाह रुख़ को कह रखा था। देखो मारते वक्त ध्यान रखना, बटन मत तोड़ना। शाह रुख़ बताते हैं कि न चाहते हुए भी मैंने मुक्का जड़ा और उनका बटन टूट गया। उन्होंने बाद में बुलाकर कहा था बोला था कि बटन मत तोड़ना। अमरीश शाह रुख़ को हमेशा गले लगाते थे। इधर शाह रुख़ किंग ख़ान के रूप में लड़कियों को जब दीवाना बना रहे थे, शाह रुख़ की फिल्मों के विलेन के रूप में अमरीश लगातार पहचान बना रहे थे और कान में एक जोक जरूर क्रैक करते थे।
शाह रुख़ के अनुसार सबसे अनुशासित, सबसे मेहनती। उनकी फिल्म हम पांच का डायलॉग, उन्हें हमेशा याद रहता है कि वह नायिका को कहते हैं कि आजा मेरी बट पर बैठ जा। ऑनस्क्रीन बेटी सिमरन यानि काजोल कहती हैं कि अमरीश पुरी का होना सेट पर एक गार्जियन की तरह होना ही होता था। वह काम को लेकर अनुशासित थे। लेट होने पर नाराज़ होते थे। हम लोग भी जब जान जाते थे कि अमरीश जी तैयार हो गये हैं तो फटाफट काम पर लग जाते थे। काजोल कहती हैं कि रेयर टैलेंट थे और हमेशा याद किये जायेंगे। कबूतर वाले सीन के बारे में शाह रुख़ कहते हैं कि मेरे पापा भी अमरीश साहब की तरह ही कबूतरों को आ ओ कहकर दाना डालते थे। दोनों पंजाब से थे तो उस सीन में वह तुरंत कनेक्ट हो गये थे।
मुंबई में घर पर दिल में पंजाब
राजीव बताते हैं कि अमरीश के दिल में पंजाब हमेशा ज़िंदा रहा। मुंबई आने के बाद और यहां बसने के बाद भले ही आना-जाना कम हुआ, लेकिन हमेशा पंजाब की मिट्टी की खुशबू उनके दिलो-दिमाग पर छायी रही। यश चोपड़ा, सुनील दत्त और बाकी सभी से भी पंजाबी में ही बातचीत करते थे। यश चोपड़ा और सुभाष घई अमरीश पुरी के अंतिम दिनों में जब उनसे मिलने आते थे, तो कहते कि तुम्हें ध्यान में रखकर कई फिल्में लिखी हैं, लेकिन वह अब कभी बन नहीं पायेंगी, क्योंकि तुम्हारे सिवा वो कोई और कर नहीं सकता।
राजीव बताते हैं कि अंतिम दिनों में बीमारी से जूझ रहे थे, लेकिन किसी भी निर्माता को तकलीफ नहीं दी। सबका काम निपटाया। अंतिम समय तक डबिंग का काम भी पूरा किया। फिल्मों की शूटिंग भी पूरी की। सुभाष घई की फिल्म किशना उनकी अंतिम फिल्म रही, जो उनकी मृत्यु के बाद रिलीज़ हुई।