उत्तराखंड में हार के बाद बदल सकता है कांग्रेस का नेतृत्व
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 में बुरी तरह से हारी सत्तारूढ़ कांग्रेस में अब नेतृत्व को लेकर नए सिरे से कवायद शुरू होने के आसार नजर आ रहे हैं।
देहरादून, [राज्य ब्यूरो]: उत्तराखंड के चौथे विधानसभा चुनाव में बुरी तरह से हारी सत्तारूढ़ कांग्रेस में अब नेतृत्व को लेकर नए सिरे से कवायद शुरू होने के आसार नजर आ रहे हैं। अभी तक हार को लेकर शांत दिख रहा माहौल कभी भी उग्र हो सकता है।
यही नहीं सरकार और संगठन के बीच चला शीत युद्ध इस हार के बाद आरोप प्रत्यारोप का रूप ले सकता है। ऐसे में यह असंतोष नेतृत्व पर भी भारी पड़ सकता है।
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उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 में प्रदेश की सत्ता से हटकर विपक्ष में बैठने को मजबूर हुई कांग्रेस के खाते में केवल 11 विधायक आए हैं। इनमें से भी कुछ नए हैं और कुछ का अनुभव कम है। ऐसे में अब नेता प्रतिपक्ष के लिए वरिष्ठ विधायकों में इंदिरा हृदयेश, गोविंद सिंह कुंजवाल और प्रीतम सिंह ही विकल्प बचे हैं।
वहीं, अभी तक राज्य में कांग्रेस का नेतृत्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के हाथ में था और प्रदेश अध्यक्ष पद पर किशोर उपाध्याय आसीन थे। दोनों अपनी-अपनी सीटों से हारे हैं। इस करारी हार के बाद प्रदेश कांग्र्रेस संगठन में बदलाव के आसार नजर आ रहे हैं। चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में अपेक्षा के मुताबिक प्रदर्शन न कर पाने के बाद कांग्र्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी इसके संकेत दिए हैं।
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राज्य में अभी तक परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से कार्यवाहक मुख्यमंत्री हरीश रावत के हाथ में ही कांग्रेस की कमान थी। संगठन के साथ उनके रिश्ते तल्ख रहे, लेकिन संगठन में कोई बदलाव नहीं किया गया। अब जबकि, हरीश रावत दोनों सीटों से और प्रदेश उपाध्यक्ष किशोर उपाध्याय अपनी सीट से हार गए हैं तो कांग्रेस का नेतृत्व अब किसके हाथ होगा, यह सवाल खड़ा हो गया है।
संगठन में बदलाव के साथ ही नई विधानसभा में कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में रहेगी। ऐसे में पार्टी के भीतर नेता प्रतिपक्ष पद को लेकर चर्चाएं जोर पकड़े लगी हैं। पार्टी में इस पद के लिए दो दावेदार स्वाभाविक माने जा रहे हैं।
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इनमें पिछली सरकार की वरिष्ठ मंत्री इंदिरा हृदयेश और प्रीतम सिंह शामिल हैं। इसके अलावा जागेश्वर सीट से जीत दर्ज करने वाले वरिष्ठ विधायक व तीसरी विधानसभा के स्पीकर गोविंद सिंह कुंजवाल को भी पद की दौड़ में माना जा रहा है। हालांकि, इस बारे में फैसला पार्टी विधायकों और हाईकमान के स्तर पर ही होना है।
उधर, सूबे की सत्ता में दोबारा वापसी का कांग्रेस का ख्वाब टूटने के बाद पार्टी में अब हार का ठीकरा एक-दूसरे के सिर फोडऩे की नौबत आ सकती है। अब तक हुए चार विधानसभा चुनाव में पहली बार कांग्रेस की इतनी दुर्गति हुई।
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आला नेता अभी तो केवल ईवीएम से छेड़छाड़ का अंदेशा जताकर पल्ला झाड़ रहे हैं, लेकिन आने वाले दिनों में इस हार को लेकर अंदरुनी जंग जगजाहिर हो सकती है। हार के कारणों की समीक्षा और इसके लिए जवाबदेही तय किए जाने की मांग पार्टी के भीतर पहले ही जोर पकड़ चुकी है।
प्रदेश कांग्रेस महामंत्री जोत सिंह नेगी ने पार्टी की शर्मनाक हार की विस्तृत समीक्षा के लिए प्रदेश संगठन की विस्तारित बैठक जल्द बुलाने की मांग की थी। अंसंतोष फूटा तो इसकी जद में कांग्रेस के कई दिग्गज आ सकते हैं। कांग्रेस ने दोबारा सत्ता पाने के लिए मुख्यमंत्री हरीश रावत को आगे किया था।
यही नहीं, प्रदेश में चुनाव प्रचार की धुरी हरीश रावत के इर्द-गिर्द ही बनी। पार्टी के चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर ने भी प्रचार की इसी रणनीति को मूर्त रूप दिया। अब चुनाव में ये पूरी कवायद धरी रह जाने के बाद चुनाव प्रबंधन और रणनीति पर सवाल उठ रहे हैं।
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