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UP Election 2022: कोरोना की तीसरी लहर ने चुनावी रफ्तार पर लगाया ब्रेक

UP Election 2022 इंटरनेट मीडिया पर भी घमासान मचा हुआ है। ट्वीट युद्ध के साथ संगीतमय आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। इसमें भोजपुरी लोक गायक-गायिकाओं की पूछ बढ़ गई है। प्रत्याशी और समर्थक सर्वसमाज को अपने साथ दिखाते हुए जीत के दावे कर रहे हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 31 Jan 2022 11:09 AM (IST)Updated: Mon, 31 Jan 2022 11:30 AM (IST)
UP Election 2022: कोरोना की तीसरी लहर ने चुनावी रफ्तार पर लगाया ब्रेक
मुजफ्फरनगर की हृदयस्थली शिवचौक में गहमागहमी के बीच कहीं से भी यह नहीं लगता कि चुनाव सन्निकट हैं। भूषण भास्कर

लखनऊ, राजू मिश्र। कोरोना की तीसरी लहर ने चुनावी रफ्तार पर ब्रेक लगा दिया है। मतदान में दस दिन बाकी हैं, लेकिन सड़क-चौराहों पर चुनावी माहौल दूर दूर तक नहीं दिखाई दे रहा है। चुनाव आयोग के रैली और रोड शो पर प्रतिबंध के चलते प्रत्याशी डोर टू डोर प्रचार तक सिमट गए हैं। उधर, चौक चौपालों पर प्रत्याशियों के समर्थक हार जीत के समीकरण बना रहे हैं। कुल मिलाकर अन्य चुनाव की बनिस्पत मौजूदा विधानसभा चुनाव का नजारा व अंदाज पूरी तरह बदला हुआ है।

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उत्तर प्रदेश में चुनाव लोकतंत्र के उत्सव के रूप में लिया जाता रहा है। लेकिन कोरोना ने जिस तरह आम जनजीवन को ठहरा दिया है, उसी तरह इस उत्सव पर भी पहरा बिठाने को विवश कर दिया है। प्रत्याशियों को प्रचार-प्रसार की राह तलाशे नहीं मिल रही है। चुनाव आयोग ने प्रत्याशियों के रोड शो और चुनावी रैली पर पूरी तरह रोक लगा रखी है। हालांकि, इसमें अब कुछ छूट दिये जाने पर विचार चल रहा है, लेकिन फिलहाल रैली और रोड शो पर पाबंदी के चलते चुनाव का नजारा पूरी तरह बदला हुआ है। नेताओं को जहां समर्थकों के बिना चुनाव रसहीन नजर आ रहा है, वहीं समर्थक भी अपने नेता की जिंदाबाद करने से वंचित हो रहे हैं। प्रत्याशियों के कट्टर समर्थक ही उनके साथ देखे जा रहे हैं।

प्रत्याशी डोर टू डोर प्रचार तक सिमट गए हैं। पुलिस भी चुनाव आयोग के आदेशों का पालन करते हुए सख्ती बरत रही है। हालांकि, राजनीतिक दलों के स्टार प्रचारक प्रत्याशियों के प्रचार प्रसार में जुटे हैं, लेकिन नजारा अन्य चुनाव से जुदा है। पहले चुनाव के दौरान स्टार प्रचारक प्रत्याशियों के समर्थन में रैली करते थे जिनमें भारी भीड़ उमड़ती थी। अब स्टार प्रचारक भी इस बात से बच रहे हैं कि कहीं उनके पीछे भीड़ न उमड़ आए और वह चुनाव आयोग की कार्रवाई के दायरे में आ जाएं। इसका प्रमाण पिछले दिनों तब देखने को मिला जब वरिष्ठ भाजपा नेता अमित शाह को अपने पीछे बढ़ती जा रही भीड़ को देखते हुए गलियों में जनसंपर्क का मोह त्यागना पड़ा।

उल्लेखनीय है कि 18वीं विधानसभा के लिए पश्चिम उत्तर प्रदेश के 11 जिलों में आने वाले 58 विधानसभा क्षेत्रों में 10 फरवरी को मतदान होना है। चुनावी मैदान में भारतीय जनता पार्टी जहां कानून व्यवस्था में सुधार और विकास कार्य को गिनवा रही है, वहीं समाजवादी पार्टी-रालोद गठबंधन विकास की गंगा बहाने के साथ-साथ किसानों का उत्थान करने का दावा कर रही है। इतना ही नहीं, जिले में आए भारतीय जनता पार्टी के स्टार प्रचारक मुजफ्फरनगर दंगे और कैराना से हुए पलायन और पांच वर्षो में बदली परिस्थितियों को भी चुनाव में मुद्दा बना रहे हैं। विरोधी दल इस पर खामोश हैं कि कहीं यह संवेदनशील मुद्दा फलक पर आने से उनके अल्पसंख्यक वोट फिसल न जाएं या फिर उनका जातीय वोट बैंक हिंदू अस्मिता के नाम पर एकजुट होकर वोट करने का मन न बना ले। कुल मिलाकर सभी दल अपने अपने तरीके से वादे करते हुए चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे हैं।

विधानसभा चुनाव में शहर से लेकर देहात तक चुनावी चर्चा जोरों पर है। हुक्के की गुड़गुड़ाहट के बीच राजनीतिक दलों के समर्थक अपने-अपने प्रत्याशी की जीत के समीकरण बैठा रहे हैं। इसके अलावा विकास कार्य न कराने का आरोप लगाते हुए कई गांव में मतदाता अपने प्रत्याशियों का विरोध भी कर चुके हैं। चुनाव की रफ्तार जैसे जैसे बढ़ रही है, वैसे-वैसे सियासी हवा जातिगत समीकरणों की तरफ रुख कर रही है। ऐसे में स्थानीय मुद्दे गौण होते जा रहे हैं। मौजूदा विधानसभा चुनाव में विकास का मुद्दा गौण दिखाई दे रहा है। स्थिति यह है कि प्रत्याशी और समर्थक बस हार जीत और किसे कितने वोट मिलेंगे, किस क्षेत्र में कौन प्रत्याशी आगे रहेगा जैसे समीकरणों पर चर्चा करने में जुटे हैं। इसके इतर प्रत्याशियों के भाषण में विकास का कहीं जिक्र नहीं है। प्रत्याशी एक दूसरे पर जमकर जुबानी तीर चला रहे हैं। कोई गुंडाराज और पलायन को मुद्दा बना रहा है तो कोई पुरानी पेंशन बहाल करने के दावे कर रहा है।


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