यूपी विधानसभा चुनाव: अखिलेश यादव के पीछे चलेंगे राहुल गांधी
कांग्रेस खुद को राष्ट्रीय अर्थ में महानदी कहती रही लेकिन, अब यह बड़ी नदी छोटी नदी से मिलने दौड़ पड़ी। कांग्रेस पसंगा, सपा पसेरी।
कानपुर आशुतोष शुक्ल। नावों में नारे गढ़ना भी चुनौतीपूर्ण काम है। कमाल तो तब होता है जब कोई स्लोगन वोटर की जुबान पर चढ़ जाए। ऐसा ही एक नारा पिछले दिनों आया- '27 साल, यूपी बेहाल'। नारा लोकप्रिय हो ही रहा था लेकिन, तब तक इसे गढ़ने वाली पार्टी ने उसी दल का दामन थाम लिया जिसके खिलाफ नारा दिया गया था। उत्तर प्रदेश के शहरों, कस्बों की दीवारों पर लिखा यह नारा बहुत दिनों तक राजनीति की चंचलता और कांग्रेस के यू-टर्न की कहानी सुनाता रहेगा।
रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद से हाशिये पर चल रही कांग्रेस की छटपटाहट ने उसे सपा से गठबंधन की तरफ ढकेला। केवल तीन महीने पहले तक कांग्रेस कुछ उठती दिख रही थी। राहुल गांधी की खाट सभाओं ने पार्टी के समर्थकों में उत्साह पैदा किया था। किसानों का ऋण माफ करने का जो वादा राहुल इन सभाओं में कर रहे थे, उस पर किसान भरोसा करने लगे थे। छिटपुट ही सही लेकिन, वे यह कहने लगे कि कांग्रेस ने पहले भी उनका कर्जा माफ किया था और वही अब फिर ऐसा कर सकती है।
UP Elections 2017: सपा-कांग्रेस गठबंधन में कांग्रेस को 105 सीटें मिलीं
दिल्ली से लाकर शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाया गया और वह आते ही सपा-बसपा सरकारों की खामियां गिनाने लगीं। वोटर शीला दीक्षित द्वारा अखिलेश यादव में अब व्यक्त की जा रही आस्था का कारण जरूर पूछेगा। ठीक उसी तरह वह अचानक बंद हुई खाट सभाओं की वजह भी जानना चाहेगा। यह तो वह बिल्कुल ही पूछेगा कि जो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर लगातार गठबंधन के विरोध में बोल रहे थे और जो कांग्रेस को अकेले लड़ाने के पक्षधर थे, वही रविवार को सपा प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल के साथ कैसे खड़े हो गए।
प्रेस कांफ्रेंस में राज बब्बर यूपी बेहाल वाले नारे पर पूछे गए सवाल पर चुप्पी साध गए। जिस राज्य से चुनकर कांग्रेस के नेता प्रधानमंत्री बनते रहे, वहां उसे जूनियर सहयोगी की तरह एक ऐसे दल से गठबंधन करना पड़ा जिसके लोकल नेता भी अपने भाषणों में कांग्रेसी कुशासन और सांप्रदायिकता को मुद्दा बनाते थे। यह बराबरी की मित्रता नहीं। यूपी में गोविंद वल्लभ पंत, कमलापति त्रिपाठी, सम्पूर्णानंद और वीरबहादुर सिंह जैसे अनेक नेता देने वाली कांग्रेस खुद को राष्ट्रीय अर्थ में महानदी कहती रही लेकिन, अब यह बड़ी नदी छोटी नदी से मिलने दौड़ पड़ी। कांग्रेस पसंगा, सपा पसेरी। दोनों दलों की दोस्ती के पीछे चाहत अगड़ों का वोट पाने और अल्पसंख्यक वोटों में बिखराव रोकने की है।
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इसमें संदेह नहीं कि वर्ष 2012 में 11.63 प्रतिशत वोट पाने वाली कांग्रेस और 29.15 फीसद मत पा चुकी समाजवादी पार्टी का संयुक्त प्रदर्शन उन्हें मजबूत दावेदार बनाता है लेकिन, चुनाव अंकगणित नहीं। दोनों दलों के सामने बड़ी चुनौती पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पहले दो चरण होंगे जहां अभी तो भाजपा और बसपा ताल ठोंक रहे हैं और जहां एक अहम फैक्टर राष्ट्रीय लोकदल भी रहने वाला है।
गठबंधन में कांग्रेस को 105 सीटें मिली हैं और वे भी भरपूर दबाव वाली राजनीति झेलने के बाद। कांग्रेस के लिए इस चुनाव की चुनौती अपना सम्मान बचाना है और इसीलिए उसके सीनियर नेताओं को भी समाजवादी पार्टी से मोलभाव करने के लिए मैदान में उतरना पड़ा। वैसे यूपी में गठबंधन की राजनीति कांग्रेस के लिए नई नहीं है। 1996 में उसने बहुजन समाज पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और 2012 में रालोद के साथ। इससे पहले उसने 1989 में सपा को बाहर से समर्थन दिया था। यह सवाल कांग्रेस नेताओं को खुद से पूछना ही चाहिए कि इतना करने के बाद भी उसका ग्राफ उत्तर प्रदेश में गिरता क्यों गया। अखिलेश यादव को कभी राहुल गांधी ने अच्छा लड़का कहा था।
..और अंत में यह सवाल तो है ही कि पांच साल के अपने काम को ऐतिहासिक मान रही और बहुमत सरकार चला चुकी समाजवादी पार्टी 2012 की तरह अकेले क्यों नहीं लड़ रही।