अखिलेश यादव का अब असली इम्तिहान, दल व घर के अंदर से मिलेगी चुनौती
अखिलेश यादव के सामने संगठन को मजबूती देने के साथ जनाधार को वापस लाने की चुनौती तो होगी ही लेकिन, कुनबे के अंदर से फिर चुनौती नहीं मिलेगी, यह दावा नहीं किया जा सकता।
By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Sun, 12 Mar 2017 01:49 PM (IST)Updated: Sun, 12 Mar 2017 04:26 PM (IST)
लखनऊ (राज्य ब्यूरो)। कुनबे के संग्राम में जीत, चुनावी समर में हार के बाद अब सपा (समाजवादी पार्टी) के नये सुप्रीमो अखिलेश यादव के सामने संगठन को मजबूती देने के साथ जनाधार को वापस लाने की चुनौती तो होगी ही लेकिन, कुनबे के अंदर से फिर चुनौती नहीं मिलेगी, यह दावा नहीं किया जा सकता। ऐसे में संतुलन साधने की उनकी क्षमता का असली इम्तिहान अब शुरू होगा।
वर्ष 2002 से सियासी पारी शुरू करने वाले अखिलेश यादव 2016 तक पार्टी के संस्थापक व पिता मुलायम सिंह यादव की सरपरस्ती में सियासी राह पर दौड़ते रहे। जाहिर ऐसे में जो भी नकारात्मक हुआ, वह मुलायम के हिस्से में चला गया। राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते सितंबर 2016 में कुनबे में संग्राम शुरू हुआ, तब उनके पास मुख्यमंत्री का शक्तिशाली ओहदा था। लिहाजा समाजवादी पार्टी विधायकों से लेकर संगठन का खुला समर्थन हासिल हुआ। इसके बल पर यादव ने कुनबे का न सिर्फ संग्राम जीता बल्कि इसी संख्या बल के आधार पर समाजवादी अध्यक्ष का ओहदा हासिल कर लिया।
इस महासंग्राम में मुलायम का कुनबा खेमों में बंट गया, जिनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाएं हैैं। कई मौकों पर इन लोगों ने अधिकार न छोडऩे का इशारा किया और पार्टी खड़ी करने में खुद के संघर्षो की दुहाई दी। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद कल शिवपाल सिंह यादव ने कहा कि यह समाजवादी पार्टी की नहीं, घमंड की हार है। उनका इशारा मुख्यमंत्री के तेवर व कुनबे के संघर्ष की ओर ही था। कुछ घंटों के भीतर अखिलेश ने पलटवार करते हुए कहा कि यह बात उनकी परछाईं देखकर कही गई होगी, उनका व्यवहार सब जानते हैैं।
यह दोनों टिप्पणियां भविष्य में समाजवादी कुनबे का संग्राम नए सिरे से उभरने का संकेत मानी जा रही हैैं। दो दिन पहले मुलायम सिंह यादव के दूसरी पत्नी साधना यादव के उस बयान से इस आशंका को और बल मिलता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि नेताजी (मुलायम) का अपमान नहीं होना चाहिए था, मेरा भी बहुत अपमान हुआ है। अब कदम पीछे नहीं करेंगे।
अखिलेश ने तीन माह में मुलायम को अध्यक्ष पद लौटाने का वादा किया था, देखते हैैं क्या करता है। ऐसे में साफ है कि अखिलेश यादव को दल व घर के अंदर से चुनौती मिलने की संभावना है। अगर अखिलेश यादव ने वादे के मुताबिक राष्ट्रीय अध्यक्ष पद मुलायम को नहीं लौटाया और परिवार के दूसरे सदस्यों के दवाब में उन्होंने चरखा दांव चल ही दिया, तब जो स्थितियां उत्पन्न होंगी, उससे निपटने के लिए अखिलेश यादव के पास सितंबर-2016 वाला सरकारी तंत्र नहीं होगा। उनके पास युवकों की जो टोली है, वह भी राजनीतिक रूप से इतनी परिपक्व नहीं है कि उन्हें सहारा दे सके। ऐसे में संतुलन साधने की उनकी क्षमता का नए सिरे से इम्तिहान होगा। दरअसल, पांच साल के अंतराल में अखिलेश ने समाजवादी राजनीति का 'चेहरा' नया करने का प्रयास किया। इसमें उन्होंने सही-गलत कई फैसले लिए। मगर पहले लोकसभा अब विधानसभा में करारी हार के इल्जाम उन पर चस्पा हैैं। रिश्तों से टकराने का इल्जाम उसमें शामिल है।
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