Loksabha election Result 2019: पंजाब में न मुद्दा, न लहर, चेहरों का ही पड़ा असर
न तो मोदी लहर न एयर स्ट्राइक का असर और न ही नोटबंदी का दर्द या महंगाई की पीड़ा। इस जंग में एक बार फिर जीत हुई तो कैप्टन अमरिंदर सिंह की।
जालंधर [अमित शर्मा]। न तो मोदी लहर, न एयर स्ट्राइक का असर और न ही नोटबंदी का दर्द या महंगाई की पीड़ा। राफेल या जीएसटी जैसे अनेक मुद्दे जिनकी कहीं बात तक भी न हुई। सो अंतत: पंजाब के इस चुनावी महासमर यानी चेहरों की लड़ाई या फिर यूं कहें कि इन चेहरों को लेकर जन अवधारणा की इस जंग में एक बार फिर जीत हुई तो कैप्टन अमरिंदर सिंह की।
अपने पिछले दो साल के कार्यकाल में जनापेक्षाओं की कसौटी पर पूर्णत: विफल होने के बावजूद कांग्रेस की सीट तालिका में लगभग तीन गुना वृद्धि ( 2014 की तीन सीटों के मुकाबले 2019 में 8) लाने वाले अमरिंदर सिंह ने एक बार फिर साबित कर दिया कि सूबे में शिरोमणि अकाली दल ( शिअद) सुप्रीमो परकाश सिंह बादल और उनके बेटे व पार्टी प्रधान सुखबीर सिंह बादल के मुकाबले में यदि पंजाब का वोटर किसी को भी पंजाब हितैषी या विश्वसनीय मानता है तो वह निस्संदेह कैप्टन ही हैं।
2017 के विधानसभा चुनाव के बाद से लगातार लोगों का विश्वास खोते शिरोमणि अकाली दल के लिए जीत सिर्फ बादल परिवार के दो सदस्यों तक सिमटकर रह जाना भी कहीं न कहीं इसी बात को इंगित करता है। कांग्रेस के लिए पंजाब में लोकसभा चुनाव में कैप्टन ही सबसे बड़ा चेहरा थे। वहीं हमेशा अपने मुद्दों, अपनी विचारधारा और अपने चेहरे आगे रख अब तक चुनाव लड़ने वाले शिरोमणि अकाली दल ने इस बार अपना सारा चुनावी अभियान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही केंद्रित किया।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटनाओं को लेकर कैप्टन ने अपनी पूरी चुनावी रणनीति इस तरह गढ़ी कि अमरिंदर सरकार की दो साल की विफलताओं के किस्से तो दबे ही, बल्कि अकालियों का आखिरी हथियार ‘पंथ खतरे में है’ जैसा नारा भी इस तरह बेमानी हुआ कि विशुद्ध पंथक सीटों पर भी कांग्रेस के उम्मीदवार विजयी हुए।
अब यदि इन चुनावी नतीजों को तीन साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखें तो असामयिक और अप्रासंगिक तो ज़रूर लगेगा, लेकिन इन नतीजों के बीच छिपे मायनों में ही निहित है 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव की जीत का रहस्य। जाहिर है इन महासमर के नतीजों का असर आने वाले दिनों में प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य के इतर कांग्रेस, शिअद-भाजपा गठबंधन और आम आदमी पार्टी की अंदरूनी राजनीति पर भी पड़ेगा।
पांच वर्ष पहले चार सीट जीतकर संसद में एक नए दल का परचम लहराने वाली आम आदमी पार्टी तो पंजाब में किस कदर हाशिए पर आ गई, इस पर शायद किसी विशेष टिप्पणी की ज़रूरत ही नहीं। यह बात पंजाब की जनता ही नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी का दिल्ली में बैठा शीर्ष नेतृत्व भी जानता है कि भगवंत मान की जीत कहीं से भी ‘आप’ की जीत न होकर व्यक्तिगत जीत है, क्योंकि अगर भगवंत पार्टी बैनर छोड़ आजाद होकर भी चुनाव लड़ते तो भी नतीजे कुछ ऐसे ही होते।
बतौर आप प्रधान भगवंत ने अपनी सीट तो बचा ली, लेकिन पूरे प्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान आप विचारधारा को समर्पित वोट प्रतिशत बचाने में पूर्णत: विफल रहे। फलस्वरूप परंपरागत दलों से निकला वोट शेयर एक बार दोबारा कांग्रेस और शिअद के वोट फीसद में जा जुड़ा।
जहां तक कांग्रेस की बात है तो निस्संदेह कैप्टन ने गांधी परिवार के चहेते नवजोत सिंह सिद्धू के उस कथन को एक झटके में झुठला दिया है कि उन जैसे नेताओं के लिए पंजाब कांग्रेस के ‘कैप्टन’ राहुल गांधी हैं अमरिंदर सिंह नहीं। नतीजों के तुरंत बाद अमरिंदर का सिद्धू को ‘नॉन परफार्मिंग मिनिस्टर’ करार देना प्रदेश कांग्रेस और कांग्रेस हाइकमान के बीच आने वाले दिनों में बदलते समीकरणों की तरफ ही इशारा कर रहा है।
इन सबके बीच यदि कोई चिंता की बात है तो वह है केवल और केवल शिरोमणि अकाली दल के लिए। अपनी स्थापना के 99वें वर्ष में अब तक अंदरूनी स्तर पर सबसे गंभीर चुनौतियों से जूझ रहे शिरोमणि अकाली दल के नेतृत्व या फिर साफ कहें तो बादल परिवार को जहां अपने प्रति पंजाब के लोगों की ‘अवधारणा’ बदलने जैसी कठिन चुनौती से रूबरू होना है वहीँ यह भी निहित है कि कहीं न कहीं भाजपा के साथ गठबंधन बरकरार रखने के लिए सीट बंटवारे को लेकर भी एक अघोषित द्वंद्व का सामना करते झुक कर निर्णय लेने होंगे।
शिरोमणि अकाली दल में जो लोग यह मान कर तस्सली दे रहे हैं कि सीटें बेशक कम हुई हों लेकिन ओवरआल वोट शेयर तो बढ़ा है उन्हें इस तथ्य को कतई नहीं भूलना चाहिए कि यह वोट फीसद उन्हीं से टूटकर पहले आम आदमी पार्टी में जुड़ गया था और उसी पार्टी के बिखराव से कुछ हद तक वापस आ मिला है।
अपने सहयोगी अकाली दल की तुलना में कहीं बेहतर प्रदर्शन कर तीन में से दो सीटें जीतने वाली भाजपा के लिए जरूर यह माकूल अवसर है कि इस जीत के लिए दिन रात काम कर रहे ऊर्जावान कार्यकर्ताओं में से ही अब ऐसे नए नेताओं को आगे लेकर आए ताकि आगे होने वाले चुनावों में अपने हिस्से की सीटों पर कैडर को छोड़ बाहरी लोगों को टिकट देने की नौबत न आए।
जनादेश ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पंजाब में तीसरे विकल्प का भविष्य बहुत सुनहरा नहीं है। परंपरागत दल जीत या हार के लिए इन्हें मोहरा तो बना सकते हैं पर अपना वजूद तलाशने में अभी इन्हें शायद लंबा समय लगेगा।
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