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बात-बेबाकः चुनावी महासंग्राम में चेहरों की सियासत के बीच मुद्दे हुए बौने

Loksabha Election 2019 में पंजाब में चेहरों की सियासत के बीच मुद्दे बौने हो गए हैं। नेताओं और पार्टियों की गतिविधियों में जनता के मुद्दे गौण हैं।

By Sunil Kumar JhaEdited By: Published: Wed, 10 Apr 2019 12:32 PM (IST)Updated: Thu, 11 Apr 2019 04:37 PM (IST)
बात-बेबाकः चुनावी महासंग्राम में चेहरों की सियासत के बीच मुद्दे हुए बौने
बात-बेबाकः चुनावी महासंग्राम में चेहरों की सियासत के बीच मुद्दे हुए बौने

जालंधर, [अमित शर्मा]। पिछले आम चुनाव में आम आदमी पार्टी के चार सांसद चुन कर दिल्ली भेजने वाले पंजाब में कभी मुद्दों की कमी नहीं रही है। 13 लोकसभा सीटों पर हो रहे इस बार के चुनावी महासंग्राम में भी मुद्दों की भरमार है। मसला चाहे कर्ज में डूबे किसान द्वारा की जा रही खुदकुशी का हो, नशे की मार से जूझते 'उड़ता पंजाबज' का या फिर गुरदासपुर के दीनानगर कस्बे में रावी दरिया पर पक्का पुल बना दरिया पार बसे आठ गांवों का देश से सीधा संपर्क जोड़ने जैसी स्थानीय समस्या का, इन सबकी गूंज यूं तो वषों से हर चुनाव में सुनाई देती रही है लेकिन इस बार आलम कुछ बदला-बदला सा है।

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इस चुनावी समर में इस बार ऐसे तमाम मुद्दे या तो अदृश्य हो गए हैं या फिर बौने। मुद्दे छोड़ बड़े-बड़े चेहरों पर केंद्रित सी होकर रह गई है पंजाब में चुनावी लड़ाई। ...और शायद यही वजह है कि कैंसर का प्रकोप ङोलते मालवा क्षेत्र में आने वाली सात लोकसभा सीटों में से अगर कहीं चर्चा होती है तो कैंसर से लड़ते लोगों की नहीं बल्कि यहां की दो लोकसभा सीटों (फि़रोज़पुर और बठिंडा) से 'पावरफुल' बादल परिवार के दो बड़े चेहरों सुखबीर बादल और हरसिमरत बादल की संभावित उम्मीदवारी की।

टेलीविज़न से लेकर गाँव की चौपालें गूंज रही है अकाली दल से कांग्रेस में शामिल हुए शेर सिंह घुबाया को टिकट मिलने या काटने की, न कि बॉर्डर जिले फिरोज़पुर के गाँवों में दूषित पेयजल के सेवन से कैंसर जैसी घातक बीमारियों के बेरोक फैलते जा रहे गंभीर मुद्दे की। कुछ ऐसा ही परिदृश्य है भारत-पकिस्तान सीमा से सटे माझा क्षेत्र की तीन सीटों पर जहां असली मुद्दा तो नशे की समस्या या फिर सीमावर्ती क्षेत्रों में उद्योगों का अभाव है। सभी प्रमुख सियासी दलों की हर चुनावी बैठक का मुख्य एजेंडा इन सीटों पर किसी बड़े 'सेलिब्रिटी' चेहरे की जीत का आकलन ही रहा है। दरअसल मुद्दों से हटकर चेहरों पर केंद्रित कर चुनावी संग्राम लड़ने का यह बदलता स्वरूप कहीं न कहीं पंजाब के दो प्रमुख सियासी ताकतों- कांग्रेस और अकाली-भाजपा गठबंधन के बीच पांच वर्ष पहले शुरू हुई एक तरह की 'अस्तित्व की जंग' की ही देन है।

प्रदेश में अकाली-भाजपा गठबंधन के लगातार दो बार सत्ता पर काबिज होने और शीर्ष नेतृत्व में चलती आ रही अंतर्कलह की वजह से अपने वजूद की लड़ाई लड़ती कांग्रेस ने पिछले आम चुनाव ( वर्ष 2014) में मुद्दों को हवा देने के बजाय बड़े चेहरों को तवज्‍जो दी। पार्टी के समस्त बड़े चेहरों, जिनमें कैप्टन अमरिंदर सिंह भी शामिल थे, को चुनावी मैदान में उतार दिया गया और अकाली -भाजपा गठबंधन के अरुण जेटली सरीखे नेताओं को भी चुनावी संग्राम में परास्त कर दिया। कुछ इसी फॉर्मूले का भरपूर प्रयोग हुआ दो वर्ष पहले विधानसभा चुनाव में।

स्पष्ट है कि पंजाब में 2019 का यह सियासी संग्राम भी इस बार मुद्दों से ज्यादा चेहरों पर ही केंद्रित होता दिख रहा है। जहां भाजपा अपने खाते की सीटों से फि़ल्मी सितारों या देशभर में 1984 के दंगा पीड़ितों की लड़ाई लड़ एक बड़ा नाम बन चुके व्यक्ति विशेष (जिसने अभी पार्टी भी ज्‍वाइन नहीं की) को लड़वाने की कवायद कर रही है। वहीं इस बार अपने अस्तित्व की जंग लड़ता शिरोमणि अकाली दल बादल परिवार के बड़े चेहरों के इतर पार्टी के बड़े नेताओं समेत बॉलीवुड हस्तियों को चुनावी मैदान में उतारने की तैयारी में है।

कुछ ऐसा ही हाल कांग्रेस का है जो एक बार फिर पार्टी के बड़े चेहरों जैसे मनप्रीत बादल, पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनीष तिवारी (बेशक वह उस क्षेत्र से ताल्लुक रखते) पर एक बार फिर आम चुनाव में दांव खेल विपक्ष के आरोपों को बौना साबित करने की जुगत में है। अकाली दल से टूट कर बने टकसाली अकाली दल जैसे छोटे दल द्वारा भी किसी राजनीतिक हस्ती की जगह मानवाधिकारों के लिए लड़ाई लड़ते शहीद हुए जसवंत सिंह खालड़ा की पत्नी को उम्मीदवार बनाना इसी चेहरों की रणनीति का हिस्सा प्रतीत होता है।

मुद्दों के बदले चेहरों की राजनीति कर बेशक सियासी दल एक-दूसरे की सीटों में सेंध लगाने में कामयाब रहे हों लेकिन धरातल पर संसदीय क्षेत्र में कुछ ख़ास फर्क नजर नहीं आया, बल्कि उल्टा नुकसान ही पहुंचा है। चेहरों की चमक तले जहां स्थानीय मुद्दे हमेशा दब कर रह गए वहीं स्थानीय कैडर की आवाज भी विद्रोही सुरों में बदल कर पार्टी के लिए नुकसानदेह ही साबित हुई है। खैर, इस चुनावी मौसम को लेकर अब यही उम्मीद बाकी है कि पंजाब में जहाँ चेहरों की राजनीति अपने चरम पर हैं वहां शायद एक बार सभी उम्मीदवार घोषित हो जाएं तभी कहीं मुद्दों की बात भी होगी।

अब बात बेशक गुरदासपुर संसदीय सीट की हो, कॉमेडी किंग से सांसद बने भगवंत मान के संसदीय क्षेत्र संगरूर की या फिर मशहूर बॉलीवुड अदाकारा किरण खेर की चुनावी रणभूमि चंडीगढ़ की- चेहरों के दम पर नंबरों के खेल में पार्टियों ने बेशक सीटें हथिया ली हों, लेकिन ग्राउंड पर उपेक्षित महसूस कर रहे स्थानीय कैडर की सक्रियता मात्र औपचारिकता तक सिमटने से इन इलाकों में सियासी दलों ने राजनीतिक दृष्टि से बहुत कुछ हासिल नहीं किया है। फलस्वरूप आज तमाम राजनीतिक दलों को अब उन संसदीय क्षेत्रों में एक उपयुक्त उम्मीदवार ढूंढ़ना भी मुश्किल हो रहा है, जिनका प्रतिनिधित्व कभी सेलिब्रिटी चेहरे करते रहे हैं। मुद्दे तो आज भी वही हैं जो पहले हुआ करते थे, बस फर्क इतना है कि चेहरे वाली सियासत के चक्रव्यूह में फंसे तमाम सियासी दलों ने इन मुद्दों को चुनावी जंग से कुछ इस कदर दूर कर दिया कि हर बेबस मतदाता बस कुछ यूं ही सोचता है..

किरदार मैं तुमसे चाहता हूँ,

तुम चेहरे लेकर आते हो ।

आवाज़ सुनाना चाहता हूँ,

तुम बहरे लेकर आते हो ।

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(लेखक दैनिक जागरण के पंजाब के स्थानीय संपादक हैं)


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