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MP Chunav 2018: खरगोन जिले में पुराने चेहरों के सहारे नई जीत की जुगत

MP Chunav 2018: भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दल बीते 15 वर्षों में नए चेहरों पर दांव लगाने से दूर ही रहे हैं।

By Rahul.vavikarEdited By: Published: Sat, 17 Nov 2018 10:40 PM (IST)Updated: Sun, 18 Nov 2018 07:44 AM (IST)
MP Chunav 2018: खरगोन जिले में पुराने चेहरों के सहारे नई जीत की जुगत
MP Chunav 2018: खरगोन जिले में पुराने चेहरों के सहारे नई जीत की जुगत

खरगोन, विवेक वर्धन श्रीवास्तव, नईदुनिया। मध्य प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में निमाड़ की राजनीति खासा दखल रखती है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दल बीते 15 वर्षों में नए चेहरों पर दांव लगाने से दूर ही रहे हैं। इक्का-दुक्का प्रयोग छोड़ दिए जाएं तो ज्यादातर वही पुराने चेहरे हैं जिनके सहारे नई जीत की जुगत में दोनों ही दल लगे रहते हैं।

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खरगोन जिले की छह विधानसभा सीटों में खरगोन, बड़वाह और कसरावद सामान्य सीट है तो महेश्वर अनुसूचित जाति और भीकनगांव के साथ भगवानपुरा अनुसूचित जनजाति की सीट है। यहां दोनों ही दलों में उम्मीदवारों की स्थिति भी एक जैसी है।

भीकनगांव विधानसभा

धूलसिंह डावर को 2003 में प्रत्याशी बनाया गया था। पहले चुनाव के वक्त नया चेहरा और 45 वर्ष के थे। 2008 में भी उन्हें दोहराया गया। जीत भी गए। 2013 में उनका टिकट काटकर नंदा ब्राह्मणे को दिया गया लेकिन वे चुनाव हार गईं। अब भाजपा ने एक बार फिर तीसरी बार धूलसिंह पर ही भरोसा जताया है। अब वे 60 वर्ष के हैं। इधर किसी समय दिग्विजय सिंह की कट्टर समर्थक रहीं झूमा को हर बार उम्मीदवारी के लिए संघर्ष करना पड़ा। 2008 में यहां संगीता पटेल को टिकट दिया गया। वे हार गईं। झूमा को 2013 में भाजपा लहर के बावजूद जीत मिली। एक बार फिर उन्हें कांग्रेस का चेहरा बनाया गया। वे जिला कांग्रेस की अध्यक्ष भी हैं।

बड़वाह विधानसभा

यहां भाजपा से लगातार चौथी बार हितेंद्रसिंह सोलंकी को चेहरा बनाया गया है। 2003 से वे संघ से जुड़े रहे। चौथी बार पार्टी ने उन पर दांव लगाया है। अपवाद स्वरूप कांग्रेस ने 2013 के बागी सचिन बिरला पर दांव लगाया। सचिन ने निर्दलीय प्रत्याशी होने के बावजूद दूसरे नंबर पर रहकर कड़ी टक्कर दी थी। पूरे जिले में सचिन बिरला नया चेहरा माने जा सकते हैं।

महेश्वर विधानसभा 

इस सीट पर मुकाबला सबसे दिलचस्प है। 2003 में भूपेंद्र आर्य व डॉ. विजयलक्ष्मी साधौ ही प्रतिद्वंद्वी थे। आर्य का यह पहला चुनाव था। सरस्वती स्कूल में शिक्षक रहे आर्य उस वक्त मात्र 25 वर्ष के थे। उन्होंने भाजपा लहर में डॉ. साधौ जैसी दिग्गज नेता को पराजित किया था। डॉ. साधौ को 1985 में पहली बार उम्मीदवार बनाया गया था। वे कई बार कैबिनेट मंत्री रहीं। 15 वर्ष बाद राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बीच डॉ. साधौ व आर्य एक बार फिर आमने-सामने हैं। वर्तमान विधायक राजकुमार मेव पार्टी से निष्कासित होकर निर्दलीय चुनाव मैदान में हैं।

कसरावद विधानसभा

इस सीट पर आत्माराम पटेल का लगातार तीसरी बार मुकाबला यादव परिवार से होगा। पहली बार उन्होंने प्रदेश कांग्रेस की राजनीति के दिग्गज सुभाष यादव को 2008 में पराजित किया था। 2013 में वे यादव के छोटे बेटे सचिन यादव से पराजित हुए। एक बार फिर आत्माराम व सचिन आमने-सामने हैं।

खरगोन विधानसभा

जिले की राजनीति का सबसे बड़ा गढ़ यही रहा। 1990 से युवा कांग्रेस से सक्रिय हुए रवि जोशी का सुभाष यादव के साथ मतभेद की खबरें अकसर चर्चा में रहीं। 2013 में लंबे इंतजार के बाद वे उम्मीदवार बने लेकिन चुनाव नहीं जीत सके। भाजपा में बालकृष्ण पाटीदार तीसरी बार जनता के बीच पुराने चेहरे होंगे। एक वर्ष पहले राज्यमंत्री का दर्जा भी वे हासिल कर गए।

भगवानपुरा विधानसभा

रिश्ते और कुटुंब के नाम पर दोनों उम्मीवार काका-भतीजा हैं। जमनासिंह सोलंकी की राजनीतिक उथल-पुथल आदिवासी क्षेत्र में जागजाहिर है। सोलंकी 2008 में विधायक रहे। 2013 में उनके टिकट को एंटी इंकम्बेंसी की आशंका के चलते काट दिया गया। भाजपा का यह प्रयोग असफल रहा। एक बार फिर उसी चेहरे को उम्मीदवार बनाया गया। इधर, विजयसिंह सोेलंकी को नया चेहरा बनाकर 2013 में उतारा। वे जीते भी । हालांकि दोनों उम्मीदवारों का कार्यकाल और प्रतिद्वंद्विता अलग-अलग समय रही। इस बार रिश्तेदारी और प्रतिद्वंद्विता के बीच मुकाबला दिलचस्प है।


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