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Loksabha Election 2019 : उत्तर प्रदेश में अपने पैर जमाने में बेदम रहे प्रवासी राजनीतिक दल

दूसरे राज्यों में प्रभावी राजनीतिक दलों के लिए उत्तर प्रदेश की जमीन कभी भी मुफीद नहीं रही है। न तो उनके मनमाफिक यहां समीकरण बनता और न ही जनता उन पर भरोसा करती है।

By Umesh TiwariEdited By: Published: Mon, 25 Mar 2019 05:48 PM (IST)Updated: Tue, 26 Mar 2019 09:09 AM (IST)
Loksabha Election 2019 : उत्तर प्रदेश में अपने पैर जमाने में बेदम रहे प्रवासी राजनीतिक दल
Loksabha Election 2019 : उत्तर प्रदेश में अपने पैर जमाने में बेदम रहे प्रवासी राजनीतिक दल

लखनऊ [आनन्द राय]। बिहार में सरकार चला रहे जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष नीतीश कुमार सुशासन बाबू के नाम से मशहूर हैं। उत्तर प्रदेश में समय-समय पर रैली और सभाओं के जरिये अपनी पकड़ बनाने की कोशिश करते रहे हैं। भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में वह साझीदार हैं लेकिन, उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को भाजपा ने एक भी सीट नहीं दी है। यह अलग बात है कि सोनभद्र, अकबरपुर और पीलीभीत में जद (यू) ने अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं और वह ताल भी ठोंक रहे हैं।

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2014 में भी उप्र में जद (यू) के एक उम्मीदवार ने किस्मत आजमाई। तब भदोही संसदीय सीट पर तेज बहादुर यादव मैदान में उतरे और चौथे स्थान पर रहे। 2009 में गठबंधन में जनता दल (यू) को उत्तर प्रदेश की बदायूं और सलेमपुर सीट मिली थी लेकिन, कोई सफलता नहीं मिली। अलबत्ता 2004 में आंवला सीट पर पार्टी के कुंवर सर्वराज सिंह चुनाव जीते थे। तब राजग ने जद (यू) को आंवला, मेरठ और सलेमपुर सीट दी थी। अब तो जनता दल (यू) से अलग होकर शरद यादव ने भी अलग राह पकड़ते हुए लोकतांत्रिक जनता दल बना लिया है।

उत्तर प्रदेश में फीके पडऩे वालों में नीतीश कुमार अकेले नहीं हैं। रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (ए) के अध्यक्ष और मोदी सरकार के मंत्री रामदास आठवले की महाराष्ट्र के दलितों में पकड़ है। वह अक्सर यूपी का दौरा करते हैं और गठबंधन में सीटों की मांग करते रहे हैं, पर भाजपा ने कभी साझीदार उम्मीदवार नहीं दिया। जो अकेले लड़े वह जमानत भी नहीं बचा पाए।

पासवान को जनता ने नकार दिया

बिहार में दलितों के साथ अगड़ों को जोड़कर कभी राजग और कभी संप्रग गठबंधन से अपनी मौजूदगी दर्ज कराने वाले लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान और उनके बेटे चिराग पासवान ने यहां रैली करने से लेकर संगठन को विस्तार देने की खूब पहल की लेकिन, उनके पांव नहीं जमे। 2004 में वह तीन सीटों पर मैदान में उतरे भी लेकिन, जनता ने नकार दिया। पिछले दो चुनावों में पासवान की पार्टी ने उत्तर प्रदेश का रुख नहीं किया।

लालू भी प्रदेश में नहीं जमा सके पैर

किसी दौर में उप्र के राजनीतिक मंचों की जरूरत बन चुके लालू यादव संसद और विधानसभा में यहां से अपने सिपहसालार नहीं बना सके। 2004 के लोकसभा चुनाव में दस सीटों पर उन्होंने अपने उम्मीदवार उतारे और सभी पर जमानत जब्त हो गई। उसके बाद लालू ने कोशिश कई बार की लेकिन, कोई फायदा नहीं मिला।

ऐसे ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 2012 के विधानसभा चुनाव में यहां दस्तक दी और टीएमसी पार्टी के चिह्न पर श्याम सुंदर शर्मा की बदौलत मथुरा जिले में उन्हें एक सीट मिल गई। शर्मा इस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी बना दिए गए लेकिन, वह देर तक टिके नहीं और वह पाला बदलकर बसपा में चले गए। 2014 के लोकसभा चुनाव में टीएमसी का हौसला नहीं बन सका।

निशाने पर नहीं लगा शरद पवार का तीर

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे शरद पवार ने भी उप्र को अपना बनाने की कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन, कभी उनका तीर सही निशाने पर नहीं लगा। 2004 में शरद पवार की पार्टी एनसीपी के चार उम्मीदवार उतरे और सभी की जमानत जब्त हो गई।

महाराष्ट्र में प्रभावी शिवसेना के साथ भी ऐसा ही हुआ। राम मंदिर आंदोलन में यहां पहचान बना चुकी शिवसेना अब भी हाथ पांव मार रही है। 2004 में नौ उम्मीदवार उतारे और सबकी जमानत जब्त हो गई। ऐसे ही शिरोमणि अकाली दल और जनता दल सेक्युलर समेत कई दल हैं, जिनकी किसी न किसी राज्य में मजबूत जमीन है लेकिन, उत्तर प्रदेश उनकी मुट्ठी से हमेशा फिसलता रहा है। 


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