तमिलनाडु में जयललिता-करुणानिधि के बिना इस बार कसौटी पर खांटी नेताओं का दमखम
तमिलनाडु में इस बार खांटी राजनेताओं का दमखम जनता की कसौटी पर है। वजह है दशकों बाद चुनावी मुकाबले में अन्नाद्रमुक और द्रमुक के नेतृत्व का चेहरा गैर फिल्मी होना।
संजय मिश्र, नई दिल्ली। चुनावी सियासत में तमिलनाडु में इस बार खांटी राजनेताओं का दमखम जनता की कसौटी पर है। वजह है दशकों बाद चुनावी मुकाबले में आमने-सामने खड़ी अन्नाद्रमुक और द्रमुक के नेतृत्व का चेहरा गैर फिल्मी होना।
शायद इसीलिए भावनाओं के प्रवाह में बहनेवाली तमिलनाडु में मौजूदा लोकसभा चुनाव के दौरान जनता की भावनाओं का लहर अभी तक खुलकर सामने नहीं आया है। इसीलिए द्रमुक प्रमुख स्टालिन ही नहीं अन्नाद्रमुक की कमान संभाल रहे उपमुख्यमंत्री पनीरसेल्वम चुनावी नब्ज की दिशा भांपने के लिए अब भी मशक्कत कर रहे हैं।
तमिलनाडु की राजनीति बीते चार दशक से भी अधिक समय से नेतृत्व के ग्लैमर के साथ 'पर्सनाल्टी कल्ट' के ईद-गिर्द ही रही है। मगर पहले अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता और उसके बाद द्रमुक प्रमुख करुणानिधि के निधन ने सूबे की राजनीति में 'पर्सनाल्टी कल्ट' के सहारे चुनावी बाजी पलटने की दोनों दलों की सबसे मारक क्षमता छीन ली है।
जया और करुणा एक दूसरे के सियासी दुश्मन सरीखे थे मगर लोकप्रियता की कसौटी पर दोनों की पकड़ जनता पर जबरदस्त थी। समर्थकों में इनकी लोकप्रियता कई बार तो दीवानगी की हद को पार कर जाती थी। जयललिता और करुणानिधि के निधन पर कुछ एक प्रशंसकों के जान देने जैसी घटनाएं इसका प्रमाण हैं।
करुणानिधि भी तमिल फिल्मों के ग्लैमर की दुनिया से सियासत में आए थे तो जयललिता भी तमिल फिल्मों की स्टार अभिनेत्री रह चुकी थीं। द्रमुक के नये प्रमुख स्टालिन और अन्नाद्रमुक के नेता उपमुख्यमंत्री पनीरसेल्वम जनता के बीच लोकप्रियता की इस कसौटी पर जाहिर तौर पर करुणा और जया से कोसों दूर हैं। इसीलिए लोकसभा चुनाव में वोटरों को इस हद तक प्रभावित करने की दोनों दलों के नये नेतृत्व के लिए बड़ी चुनौती बन रही है।
तभी यह सवाल उठ रहा कि तमिलनाडु की चुनावी राजनीति में स्टालिन क्या करुणानिधि की तरह सूबे की सभी 39 लोकसभा सीटें द्रमुक गठबंधन के खाते में ला पाएंगे। इसी तरह सवाल यह भी है कि 2014 में जया की तरह पनीरसेल्वम क्या 2019 में अन्नाद्रमुक की झोली में सभी सीटें डलवा पाएंगे।
इस कसौटी पर देखा जाए तो दोनों दलों के नेता जया और करुणा के आस-पास नहीं। मगर स्टालिन का राजनीतिक कौशल जरूर द्रमुक के पक्ष को मजबूत बनाता है। करूणानिधि ने सेहत की वजहों से अपने जीवन काल में ही स्टालिन को कार्यकारी उत्तराधिकारी बना दिया था। इसकी वजह से पार्टी ही नहीं जनता भीकाफी हद तक उनके राजनीतिक कौशल से परिचित है, भले ही उनकी दीवानगी जैसी लोकप्रियता न हो।
जयललिता की शख्सियत की छाया इतनी विशाल थी कि उपमुख्यमंत्री पनीरसेल्वम हो या सीएम पलानीस्वामी इन्हें अभी जया की छाया से बाहर आने की परीक्षा ही देनी पड़ रही है। जबकि कभी पूर्व अन्नाद्रमुक सुप्रीमो की आंखों के नूर रहे टी टी दिनाकरण अलग पार्टी बनाकर भी खुद को जयललिता की विरासत से जोड़कर ही अपना राजनीतिक वजूद बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
मुख्य चुनावी मुकाबले की दोनों धुरी भले ग्लैमरविहीन हो मगर तमिलनाडु का यह चुनाव सिनेमा के सितारों से बिल्कुल दूर है ऐसा भी नहीं। तमिल फिल्मों के दो सुपर स्टार कमल हासन और रजनीकांत ही नहीं डीएमडीके के प्रमुख विजयकांत ग्लैमर की दुनिया की नुमाइंदगी कर रहे हैं। मगर लोकसभा चुनाव में इनकी पार्टियों की भूमिका सूबे की सियासत बहुत बदलेगी इसमें संदेह है।
वैसे जयललिता और करुणानिधि के दौर से पहले भी तमिलनाडु की राजनीति में रुपहले पर्दे का जादू कायम था। इससे पूर्व एमजीआर के नाम से मशहूर एमजी रामचंद्रन और करुणानिधि सूबे की सियासत की धुरी रहे थे। तमिल फिल्मों के चर्चित स्टार एमजीआर की जयललिता के साथ जोड़ी काफी हिट रही थी। एमजीआर के निधन के बाद उत्तराधिकार की लड़ाई में अन्नाद्रमुक की कमान पहले एमजीआर की पत्नी जानकी रामचंद्रन ने संभाली। मगर पार्टी नेताओं व कैडर को जल्द अहसास हो गया कि जानकी की अगुआई में राजनीति की राह मुश्किल होगी। इसीलिए जयललिता को अन्नाद्रमुक और एमजीआर का उत्तराधिकारी मानने में नेताओं ने ज्यादा देर नहीं लगाई।