पार्टियों की रणनीति: श्रीनगर-बडगाम सीट पर नेकां-पीडीपी में कड़ी टक्कर
राज्य की सियासत में एकछत्र राज करने वाली नेशनल कांफ्रेस (नेकां) का कभी यह मजबूत किला था जिसे फिर से हासिल करने के लिए वयोवृद्ध नेता डॉ. फारूक अब्दुल्ला को मैदान में हैं।
श्रीनगर, राज्य ब्यूरो। श्रीनगर -बडग़ाम संसदीय क्षेत्र सिर्फ घाटी में ही नहीं बल्कि राज्य की सबसे अहम सीट है। यही वह क्षेत्र है जो राज्य से लेकर दिल्ली तक की सियासत को प्रभावित करते हुए प्रत्यक्ष-परोक्ष तरीके से भारत-पाक के संबंधों को भी तय करने में अहम है।
राज्य की सियासत में एकछत्र राज करने वाली नेशनल कांफ्रेस (नेकां) का कभी यह मजबूत किला था, जिसे फिर से हासिल करने के लिए वयोवृद्ध नेता डॉ. फारूक अब्दुल्ला को मैदान में हैं। वर्ष 2014 के चुनाव में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के तारिक हमीद करा ने उन्हें हरा कर नेकां की सियासत की चूलें हिला दी थी। सेंट्रल कश्मीर के श्रीनगर, बडग़ाम और गांदरबल जिलों के 15 विधानसभा क्षेत्रों पर फैली इस सीट पर 12 94560 मतदाता 12 प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला करेंगे।
असली मुकाबला डॉ. अब्दुल्ला, पीडीपी के आगा मोहसिन, पीपुल्स कांफ्रेंस के इरफान रजा अंसारी के बीच ही है। भाजपा ने युवा नेता खालिद जहांगीर को मैदान में उतारा है। लड़ाई से बाहर कांग्रेस यहां नेकां का समर्थन कर रही है। जीवन के लगभग 82 वसंत देख चुके डॉ. फारूक अब्दुल्ला इस सीट से चौथी बार संसदीय चुनाव लड़ रहे हैं और कहा जा रहा है कि वह अंतिम बार संसदीय चुनाव लड़ रहे हैं।
पीसी व भाजपा के पास गंवाने को कुछ भी नहीं
पीपुल्स कांफ्रेंस (पीसी) और भाजपा के लिए इस लोकसभा सीट पर गंवाने के लिए कुछ नहीं है, उनके पास सिर्फ हासिल करने और उपस्थिति दर्ज कराने कासुनहरी मौका है। पीसी के इरफान रजा अंसारी शिया वोटरों में तो बाजी मार सकते हैं, लेकिन अन्य समुदायों में और भाजपा के एजेंट के टैग का नुकसान हो सकता है। कश्मीर की चुनावी सियासत पर नजर रखने वालों के मुताबिक अगर चुनाव बहिष्कार का असर 90 प्रतिशत होने की स्थिति में कुल शिया मतदाताओं का अगर 80 प्रतिशत वोट डालने निकलता है और उसमें से अगर 60 प्रतिशत अंसारी को वोट देते हैं तो अंसारी की जीत की संभावना को खारिज करना मुश्किल हो जाएगा। सिर्फ शिया ही नहीं अन्य समुदायों में पीसी का का वोटर भी अलगाववादियों के चुनाव बहिष्कार को दरकिनार कर वोट डालने आएगा। शिया समुदाय के लोगों में मतदान बहिष्कार का असर कम रहता है। भाजपा के लिए श्रीनगर की संसदीय सीट कहीं से भी प्रतिष्ठा का सवाल नहीं है, इस सीट पर उसे मिलने वाले बीते पांच वर्षो के दौरान कश्मीर में उसके ग्राउंड वर्क और कश्मीरियों में बढ़ती उसकी स्वीकारोक्ति की पुष्टि करेंगे। इससे यह भी साबित हो सकेगा कि भाजपा कश्मीर के लोगों के दिलों में कितनी जगह बना पाई है। यह वोट आगामी विधानसभा चुनाव में किसी सीट को जीतने की इच्छा को मजबूत बनाएंगे। भाजपा को उम्मीद है कि सियासी जमीन तैयार कर पाएगी।
सियासी समीकरण
राज्य की पिछली विधानसभा के आधार पर अगर इस पूरे क्षेत्र की स्थिति का आकलन किया जाए तो नेकां और पीडीपी सात-सात सीटों के आधार पर बराबर रही हैं, जबकि एक सीट पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट के हकीम मोहम्मद यासीन ने जीती थी। कांग्रेस ,भाजपा और पीपुल्स कांफ्रेंस इस पूरे क्षेत्र में कहीं भी खाता नहीं खोल पायी। भाजपा के कई उम्मीदवार तो दहाई की संख्या में भी वोट प्राप्त नहीं कर पाए थे। इस क्षेत्र में करीब अढ़ाई लाख शिया मतदाता हैं। विस्थापित कश्मीरी पंडित, सिख व अन्य गैर मुस्लिम मतदाता भी करीब एक लाख के आसपास हैं। अलगाववादियों के चुनाव बहिष्कार का असर भी इस सीट पर वादी के अन्य इलाकों से ज्यादा रहता है,लेकिन शिया और गुज्जर समुदाय के प्रभाव वाले इलाकों में उसका असर ज्यादा न होने का फायदा नेकां को मिलता रहा। लेकिन बीते एक डेढ़ दशक में
नेकां कोई चूक नहीं चाहती : नेकां इस समय श्रीनगर सीट पर मजबूत नजर आ रही है और डॉ. अब्दुल्ला की रैलियों में लोगों की भीड़ इसका संकेत दे रही है। लेकिन नेकां कोई चूक नहीं चाहती। वर्ष 2014 के संसदीय चुनाव में फारूक अब्दुल्ला की हार आज भी संगठन में महसूस की जाती है। हालांकि वर्ष 2017 में हुए उपचुनाव में उन्होंने एक बार फिर इस सीट पर नेकां का परचम लहराया। लेकिन ङ्क्षहसा के बीच मात्र सात प्रतिशत मतदान और वह भी नेकां के प्रभाव वाले इलाकों में, उनकी जीत का कारण रहा। वह जानती है कि इस बार वह मजबूत स्थिति में है,लेकिन वह जीत का अंतर बढ़ाना चाहती है। नेकां के लिए श्रीनगर की सीट न सिर्फ उसकी प्रतिष्ठा के लिए बल्कि नेकां में अब्दुल्ला खानदान के कद और अहमियत को बनाए रखने के लिए भी जरूरी है।
श्रीनगर सीट का चुनावी इतिहास
राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने वाली कश्मीर की सियासत का केंद्र यही सीट है। यही सीट कश्मीर में अलगाववाद और भारतीय लोकतंत्र में यकीन रखने वाले कश्मीरी अवाम के इरादों की मजबूती को साबित करती है। नेकां का मजबूत गढ़ इस क्षेत्र को अब्दुल्ला परिवार की सीट कहा जाता रहा है। इसकी पुष्टि 1967 से लेकर 2014 तक हुए चुनावों की कहानी करती है। सिर्फ 1971, 1996 व 2014 के चुनाव में ही गैर नेकां उम्मीदवार सांसद बना है। वर्ष 1996 में नेकां ने चुनाव का बहिष्कार किया था,उस समय कांग्रेस के गुलाम नबी मीर मागामी जीते थे। वर्ष 1977 में पहली बार डॉ. फारूक अब्दुल्ला की मां बेगम अकबर जहां से चुनाव जीता था। वर्ष 1980 में डॉ. फारूक अब्दुल्ला यहां से सांसद बने। उमर अब्दुल्ला ने लगातार 1998, 1999 व 2004 के संसदीय चुनावों में यह सीट जीती। वर्ष 2009 में डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने यहां से चुनाव लड़ा और जीता था।
बदलते हालात : बीते 70 सालों के दौरान कश्मीर की सियासत में आए बदलाव के बीच अब्दुल्ला परिवार के लिए यह किला अब पहले की तरह मजबूत नहीं रहा है। बीते संसदीय चुनाव में पीडीपी के तारिक हमीद करा ने डॉ. फारूक अब्दुल्ला को हरा कर साफ कर दिया कि रियासत की सियासत में अब नेकां का एकछत्र राज अतीत की बात हो चला है। वर्ष 2014 के संसदीय चुनाव में अलगाववादियों और आतंकियों के चुनाव बहिष्कार के बीच इस पूरे क्षेत्र में करीब 26 प्रतिशत ही मतदान हुआ था। नेकां के दिग्गज डॉ. फारूक अब्दुल्ला पीडीपी के तारिक हमीद करा से हार गए थे। करा ने उन्हें 40 हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से हराया था। हालांकि उस समय कांग्रेस डॉ. अब्दुल्ला के साथ थी। भाजपा मात्र चार हजार से कुछ ज्यादा ही वोट हासिल कर पाई थी। लेकिन वर्ष 2017 में तारिक हमीद करा के इस्तीफे के बाद हुए उपचुनाव में डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने यह सीट तो जीत ली।