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गठबंधन की कहानी : नायक एक, सेनापति अनेक; रोचक होगी Loksabha Election की ये जंग

इसमें कोई शक नहीं कि लोकसभा चुनाव की इस बार की जंग बेहद रोचक होने जा रही है और शायद अब तक की सबसे भीषण भी। इस बार चुनाव प्रचार के दौरान शायद मर्यादाएं भी टूटें।

By Digpal SinghEdited By: Published: Mon, 11 Mar 2019 10:12 AM (IST)Updated: Tue, 12 Mar 2019 08:31 AM (IST)
गठबंधन की कहानी : नायक एक, सेनापति अनेक; रोचक होगी Loksabha Election की ये जंग
गठबंधन की कहानी : नायक एक, सेनापति अनेक; रोचक होगी Loksabha Election की ये जंग

प्रशांत मिश्र। लोकसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। जंग का मैदान भी लगभग सज चुका है। इसमें मोटे तौर पर भाजपा नेतृत्व वाले राजग को चुनौती देने के लिए कथित महागठबंधन का दावा किया जा रहा है। दावा इसलिए क्योंकि फिलहाल यही तय नहीं है कि जिसे महागठबंधन बताया जा रहा है वह क्या सिर्फ गठबंधन है? जिस महागठबंधन में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के दो अहम और सबल दल- बसपा और सपा शामिल न हों उसे सार्थक और मजबूत जमावड़ा माना जाए या नहीं? किसी भी गठबंधन से दूर रहते हुए ओडिशा में सत्ताधारी बीजद, आंध्र प्रदेश में वाइएसआर कांग्रेस और तेलंगाना में सत्ताधारी टीआरएस अलग ताल ठोक रहा हो तो उसे नजरअंदाज किया जा सकता है या नहीं? और अगर लोकसभा की कुल 543 सीटों में से सवा सौ-डेढ़ सौ सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय और बहुकोणीय हो रहा हो तो क्या इस महासमर को आमने सामने की लड़ाई माना जा सकता है? कई सवाल अभी अनुत्तरित हैं। लेकिन इसमें शक नहीं कि जंग रोचक होगी और शायद अब तक की सबसे भीषण भी। राजनीतिक दलों के रुख को देखते हुए इससे इन्कार करना भी मुश्किल है कि शायद मर्यादाएं भी टूटें।

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इसका अहसास सहज ही हो जाता है, जब मुद्दों पर नजर जाती है। कई मुद्दे हैं लेकिन प्रमुखता से दो ही विषय हैं। कांग्रेस राफेल की सवारी कर रही है। इतनी आक्रामक है कि पुरानी रणनीति को ही बदल दिया है जिसमें नरेंद्र मोदी पर सीधे वार से बचा जा रहा था। अनुभव के आधार पर कांग्रेस डरती रही थी कि मोदी पर सीधे हमले का उल्टा असर होता है। पर अब खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सीधे प्रधानमंत्री को बेईमान बोलने से नहीं चूक रहे। बल्कि रैलियों में नारे लगवाए जा रहे हैं। शायद पार्टी भाजपा नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर भाजपा के सबसे अहम मुद्दे को कमजोर करना चाहती है। यह और बात है कि कांग्रेस की इस मुहिम को उनके डेढ़ दर्जन साथियों में से कोई भी नहीं चला पा रहा है। आतंक के खिलाफ भारतीय सेना के हमले को लेकर विपक्ष सवाल तो उठा रहा है, लेकिन अंदर भय भी है कि कहीं सर्जिकल स्ट्राइक की तरह यह घायल न कर दे। तीन राज्यों में जीत के बाद ऋण माफी का पासा भी फेंका जा रहा है। और एकजुटता का स्वरूप दिखे इसके लिए अब साझा घोषणापत्र भी तैयार करने की कवायद हो रही है। दूसरी ओर, राजग खेमा यूं तो मोदी सरकार की पांच साल की उपलब्धियों का खाका लेकर ही मैदान में उतरेगा लेकिन हाल के माहौल में यह माना जा सकता है कि सबसे बड़ा मुद्दा राष्ट्रवाद और आतंक के खिलाफ साहसिक कार्रवाई ही होगा। इसका नमूना मिलना भी शुरू हो गया है कि इन मुद्दों पर आरोप-प्रत्यारोप किस स्तर पर होंगे। लड़ाई भाजपा से, पर लड़ेगा कौन?

भारतीय चुनावी इतिहास में तीन दशक बाद पहली बार पांच साल पहले कोई एक दल बहुमत से जीतकर आया था। देश में क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव और किसी एक दल या नेतृत्व की स्वीकार्यता इतनी कम थी कि एक दल को बहुमत मिलना एक बड़ी घटना मानी गई थी। इस चुनाव में फिर से यही सवाल पूछा जाने लगा है। पर मजे की बात यह है कि दावेदारियों के बावजूद यह सवाल एक ही दल- भाजपा से पूछा जा रहा है। यानी फिलहाल यह सर्वस्वीकार्य माना जा रहा है कि लड़ाई भाजपा से है लेकिन लड़ कौन रहा है इसे लेकर असमंजस है। कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और संप्रग की दो सरकारें चलाने वाली कांग्रेस फिर से दलों को जोड़कर टक्कर देने की कोशिश में है। लेकिन अंतर्विरोध इतना हावी है कि इस बार कथित महागठबंधन को संप्रग का नाम देने से बचा जा रहा है। राजग के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ चेहरा तय नहीं है। महागठबंधन की यह सबसे बड़ी कमजोरी है। खासतौर पर तब जबकि भाजपा की ओर से पूरे चुनाव को नेतृत्व पर केंद्रित करने की कोशिश हो रही है। भाजपा की ओर से मजबूत बनाम मजबूर सरकार का नारा उछाला गया है। स्थिर और डावांडोल सरकार की छवि दिखाई जा रही है। और विपक्ष से इस आशंका को निर्मूल साबित करने के लिए कोई ठोस आधार नहीं दिया जा रहा है। बल्कि समय-समय पर यह गहराता दिखता है जब द्रमुक और राजद राहुल की दावेदारी की बात करते हैं और तृणमूल कांग्रेस, राकांपा जैसे कई चुप रहने की सलाह देते हैं।

महागठबंधन में एकजुटता
जवाब में महागठबंधन के पास एकजुटता की शक्ति है। यह जताने और दिखाने की कोशिश भी हो रही है कि बसपा और सपा जैसे दल भले ही उत्तर प्रदेश समेत राजस्थान, पंजाब, हरियाणा जैसे कई राज्यों में महागठबंधन से अलग खम ठोंककर खड़े हों। या फिर केरल में वाम और कांग्रेस की सीधी लड़ाई हो। चाहे-अनचाहे कांग्रेस के वोटबैंक में ही सेंध लगा रहे हों, लेकिन चुनाव के बाद सबकी राह एक हो सकती है। लेकिन अंदरखाने एकदूसरे से जंग जीतने की कवायद भी तेज है। यही कारण है कि बसपा और सपा कांग्रेस से दूरी बनाकर खड़ी हैं और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के परोक्ष प्रस्ताव के बावजूद कांग्रेस अब तक साथ आने से हिचक रही है। कांग्रेस के लिए ज्यादा मुश्किल राह है क्योंकि एक तरफ वह इन क्षेत्रीय दलों का सहारा लेकर भाजपा से लड़ना चाहती है और दूसरी ओर फ्रंट फुट पर खेलते हुए इन दलों को अहसास भी कराना चाहती है वह सबसे पुरानी पार्टी ही नहीं बल्कि उसकी जड़ें अभी भी जिंदा हैं। साफ है कि कांग्रेस हमेशा के लिए इन दलों पर आश्रित नहीं बनी रहना चाहती है।

Mahagathbandhan

दबाव में गठबंधन
भाजपा की ओर से राजग के साथ 350 के पार जाने की संभावना जताई जा रही है तो कांग्रेस और विपक्षी दलों की ओर से फिलहाल सिर्फ यही दावा हो रहा है कि वह भाजपा को सत्ता से बाहर कर देगी। दरअसल कई मुद्दों पर महागठबंधन असमंजस से गुजर रहा है। फिलहाल एकजुटता का संदेश ही विपक्ष के लिए लड़ाई का आधार है और इससे भाजपा के लिए थोड़ी चुनौती खड़ी करने की कोशिश हो रही है। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा ने तो राह मुश्किल की ही है। राजग के लगभग दो दर्जन सहयोगियों के खिलाफ महागठबंधन में भी लगभग इतने ही दल गिनाए जाते हैं। यह और बात है कि दोनों धड़ों में बमुश्किल आधे दर्जन दल ही प्रभावी हैं और सीट जीतने की क्षमता रखते हैं। पर दबाव है। वरना कोई कारण नहीं था कि एक साल पहले तक जीत के घोड़ों पर सवार भाजपा का सहयोगी दलों के प्रति रुख बदलता। बिहार में पकड़ ढीली न हो इसके लिए जदयू को कंधों पर बिठाया तो लगातार विरोधी स्वर में बोलते रही शिवसेना को बराबरी की हिस्सेदारी देकर मनाया। इसी के कारण छोटे-छोटे दलों का साहस भी बढ़ा और पांच साल तक चुप्पी साधकर चलने वाले आंखें भी तरेरने लगे हैं।

इतिहास में बहुत कम ऐसे मौके आए हैं जब किसी एक पार्टी के खिलाफ विपक्ष का बड़ा धड़ा एकजुट होने की कवायद में है। एक-दूसरे की जमीन पर पनपे दल भी फिलहाल जमीन बांटने को तैयार दिख रहे हैं और यह भरोसा पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं कि साथ-साथ रहकर ही टकरा भी सकते हैं और जीत भी सकते हैं। हालांकि इसी इतिहास में उदाहरण भी है कि माहौल के बगैर एकजुटता सार्थक नहीं होती है। 1971 में भी कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष एकजुट हुआ था लेकिन मुंह की खानी पड़ी थी। आपातकाल के बाद 1977 में एकजुटता ने इंदिरा गांधी को जमीन पर बिठा दिया था। दोनों घटनाओं में माहौल का अंतर था। जब देश में माहौल सत्ताधारी दल और नेतृत्व के खिलाफ बना तो वह धराशायी हो गई। जब राष्ट्रवाद हावी था तो नेतृत्व की मजबूती के सामने विपक्ष भरभरा गया।

सोशल मीडिया का वारगेम
एक अहम पक्ष फिलहाल हम सबकी की नजरों से ओझल है और वह है सोशल मीडिया का वारगेम। यूं तो 2014 में ही इसका उपयोग दिखने लगा था लेकिन पांच साल में इंटरनेट कवरेज चार गुना से ज्यादा हो गया है। फिलहाल यह पचास करोड़ हो गया है। यानी इतने लोग इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। आंकड़ों, अफवाहों और अटकलों का बाजार वहां भी गर्म है। जमीनी रैलियों के अलावा इस मंच पर भी राजनीतिक दलों का प्रदर्शन कुछ रंग दिखाएगा।


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