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धुर विरोधियों की गलबहियां, अस्तित्व बचाने को आखिरी दांव; BJP बना सकती है नई रणनीति

नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की भाजपा को पिछले चुनाव में यहां बंपर सफलता मिली थी, लेकिन अब उनकी राह रोकने के लिए पुराने प्रतिद्वंद्वी सपा-बसपा एक साथ आने के लिए तैयार हो गए हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 14 Jan 2019 11:09 AM (IST)Updated: Mon, 14 Jan 2019 11:10 AM (IST)
धुर विरोधियों की गलबहियां, अस्तित्व बचाने को आखिरी दांव; BJP बना सकती है नई रणनीति
धुर विरोधियों की गलबहियां, अस्तित्व बचाने को आखिरी दांव; BJP बना सकती है नई रणनीति

[शिवानंद द्विवेदी]। देश की राजनीति का सियासी पारा जनवरी की इस ठंड में ही मई की गरमाहट महसूस करा रहा है। लोकसभा चुनाव (Loksabha Election) शुरू होने की उलटी गिनती अब महीनों में नहीं, बल्कि दिनों में होने लगी है। देखा जाए तो आम चुनावों में अब 90 दिनों से भी कम समय बचे हैं। जनवरी की ठंड में मई वाली गरमाहट की बात इसलिए, क्योंकि सियासी पैंतरों की जोर आजमाइश अब राजनीति के अखाड़े में नजर आने लगी है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में राष्ट्रीय अधिवेशन करके चुनावी समर का बिगुल फूंका तो उसी समय यूपी की राजधानी लखनऊ में सपा-बसपा के बीच गठबंधन की एक नई इबारत लिखी जा रही थी।

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एकतरफ भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने इन चुनावों को पानीपत की तीसरी लड़ाई जैसा बताया तो दूसरी तरफ सपा और बसपा के बीच रिश्तों में दशकों पुराने खटास की खाई खत्म होती नजर आई। यह गठबंधन यूपी की सियासत में विपरीत पाटों पर खड़े दो ऐसे दलों का गठबंधन है, जो दशकों तक एकदूसरे के लिए अछूत बने रहे। इसके पहले 1990 के दशक में ही यह संयोग बना था जब यूपी की राजनीति में सपा-बसपा एकदूसरे के करीब आए थे। लेकिन लखनऊ के गेस्ट हाउस कांड ने इन दोनों दलों के बीच खाई इतनी चौड़ी कर दी कि इसे भर पाना असंभव नजर आने लगा था।

हालांकि मोदी युग में देश की राजनीति ने सियासत के सारे परंपरागत समीकरणों को पलटकर रख दिया है। जातिवाद, वंशवाद, तुष्टिकरण की राजनीतिक जमीन काफी हद तक कमजोर हुई है। सपा-बसपा का गठबंधन राजनीति में हुए इस परिवर्तन के बाद अपना वजूद बचाने की कोशिश का परिणाम है। हालांकि इस गठबंधन का ‘बंध’ अभी सिर्फ मजबूरियों की डोर में बंधा नजर आ रहा है। ऐसा कहना इसलिए समीचीन है, क्योंकि यह न तो विचारों का मेल है, न इसमें दूरगामी दृष्टिकोण का कोई खाका ही दिख रहा है और न ही इस गठबंधन के स्थायी भविष्य को लेकर कुछ आकलन किया जा सकता है।

कहना उचित होगा कि यूपी की राजनीति में यह दो ध्रुवों का जुटान है। यहां ‘जुटान’ शब्द का प्रयोग इसलिए, क्योंकि ‘मेल’ शब्द प्रासंगिक नहीं लगता है। चुनावी मौसम में सपा-बसपा का जुटान तो दिख रहा है, लेकिन इनके बीच ‘मेल’ को लेकर अभी भी पर्याप्त संदेह सभी के मन में है। सवाल है कि आखिर इस बेमेल गठबंधन की मजबूरियों की जड़ें कहां हैं?

कुछ विश्लेषक सपा-बसपा गठबंधन को अवसरवाद से प्रेरित बता रहे हैं। लेकिन यहां स्थिति अवसरवाद से दो कदम आगे की है। सपा-बसपा के गठबंधन में अवसरवाद से ज्यादा भाजपा के समक्ष इन क्षेत्रीय दलों के कमजोर हुए जनाधार की स्वीकारोक्ति नजर आती है। दरअसल पिछले दो चुनावों, लोकसभा और विधानसभा के परिणामों ने यह सिद्ध किया है कि मोदी के बरक्स सपा अथवा बसपा का अकेले जनाधार बहुत ही कमजोर हो चुका है। चाहे लोकप्रियता की कसौटी पर देखें अथवा जन-स्वीकार्यता के धरातल पर, नरेंद्र मोदी से अकेले लड़ने में अपनी अक्षमता को दोनों दलों ने पूरे मन से स्वीकार किया है।

बेशक वे खुले तौर पर मोदी के सामने अपने कमजोर जनाधार को नहीं जाहिर करते हों, लेकिन आंतरिक रूप से इसकी स्वीकार्यता ने ही इस बेमेल गठबंधन को जन्म दिया है। मोदी को रोकने की जद्दोजहद ने ही इन दोनों विरोधियों को एकजुट किया है। शायद यही वजह है कि अमित शाह इन चुनावों को पानीपत की तीसरी लड़ाई जैसा बता रहे हैं।

जनाधार की स्थिति को थोड़ा इतिहास में जाकर देखें तो 16वीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनावों में सपा, बसपा, कांग्रेस और भाजपा के बीच चतुष्कोणीय मुकाबला था जिसमें मोदी के सामने सभी दल चारों खाने चित्त नजर आए। उत्तर प्रदेश की कुल 80 सीटों में से भाजपा को 73 सीटों पर जीत मिली। अकेले भाजपा को इन चुनावों में 42.3 फीसद वोट मिले थे। अगर भाजपा के सहयोगी दलों के आंकड़ों को जोड़ दें, तो यह ग्राफ 43.3 फीसद तक पहुंच जाता है। वहीं बसपा को 19.6 फीसद, सपा को 22.2 फीसद तथा कांग्रेस को 7.5 फीसद वोट मिले थे। आम चुनाव 2014 में सपा और बसपा के वोट मिलाकर भी कुल आंकड़ा भाजपा से अधिक नहीं पहुंचता है।

आम चुनावों के तीन साल बाद वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को अकेले 39.7 फीसद वोट मिले जो लोकसभा चुनावों से थोड़ा ही कम है। सहयोगियों को मिले वोट को जोड़ दें तो यह आंकड़ा और अधिक हो जाता है। यानी लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भाजपा को खास नुकसान नहीं नजर आता है। वहीं सपा और बसपा को क्रमश: 22 फीसद और 22.2 फीसद वोट विधानसभा चुनावों में मिले थे। सपा की स्थिति कमोबेश लोकसभा चुनावों जैसी रही जबकि बसपा ने लोकसभा चुनावों की तुलना में अपने वोट में लगभग 2.5 फीसद का सुधार किया। कांग्रेस के वोट में लोकसभा चुनाव की तुलना में मामूली कमी आई। चूंकि इस चुनाव में सपा और कांग्रेस का गठबंधन था, लिहाजा सपा कुछ कम सीटों पर लड़ रही थी। फिर भी कांग्रेस का साथ होने की वजह से मुस्लिम वोट बैंक में बिखराव की संभावना कम थी।

अत:सपा को लेकर यह कहा जा सकता है कि उसने भी लोकसभा चुनाव वाली अपनी स्थिति को बरकरार रखा। विधानसभा चुनाव 2017 में अगर सपा और बसपा का वोट जोड़ दें तो आंकड़ा 44.2 फीसद पहुंच जाता है। यह आंकड़ा भाजपा को लोकसभा चुनाव में मिले वोट से महज एक फीसद अधिक है। अर्थात लोकसभा चुनाव के तीन साल बाद हुए विधानसभा चुनावों में भी स्थिति में बहुत बदलाव नहीं हुआ।

मोदी की जन-स्वीकार्यता

इन आंकड़ों के गर्भ से ही गठबंधन की मजबूरियों का फलसफा निकलता है। वोट फीसद के इस अंकगणित ने ही सपा और बसपा दोनों को सोचने पर मजबूर किया कि उनमें से कोई भी अकेले मोदी की जन-स्वीकार्यता को चुनौती दे पाने में सक्षम नहीं है। यह ठीक है कि सार्वजनिक तौर पर न तो सपा और न ही बसपा के नेता यह कहेंगे कि उनके अकेले के जनाधार की तुलना में मोदी का आधार बहुत मजबूत हो चुका है, लेकिन गठबंधन की रणनीति के पीछे उनकी मंशा फिलहाल यही समझ में आती है। अब सवाल यह है कि मोदी को चुनौती देने के लिए मजबूरियों की बुनियाद पर जिस ढाल का सहारा सपा-बसपा ने लिया है, वह कितना सफल हो सकता है?

इस गठबंधन के बाद माना जा रहा है कि भाजपा के लिए यूपी की राह मुश्किल हुई है। लेकिन एक बात पर चर्चा न के बराबर है कि मजबूरियों के इस गठजोड़ के बाद सपा और बसपा की चुनौतियां भी कम नहीं होंगी। चूंकि दोनों ही दल यूपी की राजनीति में खासे प्रभावशाली और हर बूथ तक पहुंच रखने वाले हैं लिहाजा सभी 80 लोकसभा सीटों में इन दलों के नेता एवं कार्यकर्ता सक्रिय हैं। ऐसी स्थिति में शीर्ष नेतृत्व द्वारा किए गए इस बेमेल गठजोड़

का जमीनी नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच स्वीकार्यता का प्रश्न अभी अनुत्तरित है। लंबे समय से लोकसभा चुनाव में यूपी में दोनों ही दल अकेले चुनाव लड़ते रहे हैं, लिहाजा सभी 80 सीटों पर इन दलों के दावेदार सक्रिय हैं। जबकि वर्तमान स्थिति में सिर्फ 38 सीटों पर ही कोई एक दल चुनाव लड़ सकेगा। लिहाजा शेष सीटों पर उसके कार्यकर्ताओं तथा मतदाताओं पर गठबंधन का कैसा असर पड़ेगा यह भी देखना होगा। दोनों दलों के वोट ट्रांसफर को लेकर भी एक दुविधा की स्थिति रहेगी जिसकी आशंका मायावती ने जताई भी है।

ऐसे तमाम विरोधाभाषों के बीच सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश में भाजपा विरोधी दलों की एकजुटता की चर्चा है। इन दलों की एकजुटता का विजन क्या है यह भले स्पष्ट नहीं हो, लेकिन इस बिंदु पर सभी सहमत हैं कि वे अकेले मोदी को नहीं रोक पाएंगे। ‘मोदी रोको अभियान’ इन दलों का एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम जैसा बन चुका है। इस एकमात्र उद्देश्य को छोड़ दें तो गठबंधन की चर्चाओं का कोई और अर्थ नहीं नजर आता।

इस सवाल का जवाब किसी भी दल के पास नहीं है कि ‘मोदी रोको’ के बाद का उनका एजेंडा क्या है? इस एजेंडे पर न कोई मंथन हुआ है, न कोई दृष्टिकोण नजर आता है और न ही नेतृत्व की स्पष्टता ही नजर आ रही है। ऐसे में सिर्फ एक व्यक्ति जिसकी लोकप्रियता जनता के बीच अत्यधिक है, उसे रोकना मात्र लोकसभा चुनावों में चुनावी एजेंडा हो सकता है क्या? इतिहास में ऐसी एकजुटताओं के असफल प्रयोग देश की राजनीति में पहले भी हुए हैं।

[फैलो, डॉ. श्यामा प्रसाद

मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन] 


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