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लोकसभा चुनाव 2019: राजद की जद में रही है महागठबंधन की धुरी

राजद हमेशा से ही महागठबंधन की धुरी रहा है और इस बार उसने जता दिया है कि उसका महागठबंधन में क्या स्थान है। इसकी सबसे बड़ी वजह हैं राजद अध्यक्ष लालू यादव। पढ़िए इस खास रिपोर्ट में...

By Kajal KumariEdited By: Published: Sat, 16 Mar 2019 10:31 AM (IST)Updated: Sat, 16 Mar 2019 02:36 PM (IST)
लोकसभा चुनाव 2019: राजद की जद में रही है महागठबंधन की धुरी
लोकसभा चुनाव 2019: राजद की जद में रही है महागठबंधन की धुरी

पटना [भारतीय बसंत कुमार]। राष्ट्रीय जनता दल यानी राजद अब तक अपने करिश्माई संस्थापक लालू प्रसाद की अगुवाई में ही सफर तय करता रहा है। बिहार में महागठबंधन की असली धुरी लालू रहे हैं और हाल के वर्षों में राजद।

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इस बार यह उम्मीद थी कि सजायाफ्ता होकर वह नेपथ्य में चले जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस बात की मुनादी हो चुकी है कि वह जेल से ही टिकट बांटेंगे और महागठबंधन का फार्मूला सेट करेंगे। पर एक बात इतिहास में दर्ज है कि लालू के नेतृत्व में राजद शायद अकेला ऐसा दल है जो कुछ अवसरों को छोड़कर कांग्रेस के साथ रहने का हिमायती रहा है।

मजबूत होने पर अकड़ के साथ और कमजोर होने पर एक समर्थक के स्वभाव में। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि राजद अपनी शक्ति के हिसाब से गठबंधन पर दबाव बनाने से चूकता नहीं और यह कई बार साथी दलों के लिए असहज भी होता है।

यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि जब हाल के वर्षों में जब राजद जदयू के साथ बिहार की सत्ता में था तो किस तरह दबाव बनाते रहने की कोशिश हुई। यूनाइटेड फ्रंट की सरकार में प्रधानमंत्री देवेगौड़ा को किस तरह राजद नेता लालू प्रसाद हमेशा याद दिलाते रहे कि वह प्रधानमंत्री हैं तो इसमें उनकी भी मर्जी है।

किस तरह संप्रग-एक के काल में राजद का दबदबा रहा। वही राजद जब 2009 में हाशिए पर था तो कांग्रेस ने भी राजद की सुध लेना छोड़ दिया था। इन सब बातों के बावजूद लालू के नेतृत्व में राजद सोनिया गांधी के पक्ष में हमेशा अडिग रहा। लालू, सोनिया गांधी की वकालत करते रहे हैं। जब सोनिया पर विदेशी मूल की नागरिकता के सवाल पर हमला हुआ तो लालू उनके साथ खड़े हुए।

शरद पवार का एजेंडा तब कांग्रेस के लिए भारी पड़ रहा था। 1999 में जब कांग्रेस पार्टी के अंदरखाने ही सोनिया का विरोध होने लगा था और तारिक अनवर, पीए संगमा, माधव राव सिंधिया और शरद पवार विदेशी मूल को हवा दे रहे थे तब लालू उनके समर्थन में खड़े रहे। तारिक तब बहुत मुखर थे।

कांग्रेस-राजद में दरार से दोनों को नुकसान

यह अलग बात है कि राजद-कांग्रेस के गठबंधन में दरार भी आई है और चाहे वह लोकसभा का चुनाव हो या फिर विधानसभा का, दोनों दल अपनी ताकत आजमा चुके हैं। 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और राजद का साथ रंग लाया था। तब राजद ने 22 सीटें हासिल की थीं और कांग्रेस के खाते में तीन सीटें आई थीं।

2009 में कांग्रेस और राजद की राह अलग थी, तब दोनों पिट गए थे। इस बार कांग्रेस को केवल दो सीट आईं, जिसमें मीरा कुमार और असरारुल हक सांसद बने थे। राजद के खाते में भी चार की संख्या ही लोकसभा में जुड़ सकी थी। 

2014 में कांग्रेस-राजद और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का तालमेल बना, लेकिन नतीजे अच्छे नहीं आए। राजद को चार सीटें मिलीं, कांग्रेस को कोशी और सीमांचल में दो सीटें मिलीं और कटिहार से तारिक अनवर चुनाव जीते। 

पुरानी लकीर ही इस बार भी होगी लंबी

 इस बार स्थिति यह है कि कांग्रेस और राजद के सिद्धहस्त खिलाड़ी महागठबंधन में ही अपना भविष्य सुरक्षित

देख रहे हैं। जीत की लक्ष्मण रेखा में पैर न जले इसके लिए दोनों समय से तालमेल बिठाकर चल रहे हैं। साथ में तमाम छोटी पार्टिंयां भी हैं। एक बड़ा परिवर्तन रालोसपा को लेकर है। लेकिन इनकी सीटों को लेकर कोई खींचतान नहीं है।

महागठबंधन में बाकी जो दल हैं, उनका असरदार दबाव राजद पर नहीं बन सकता है। जो लकीर पहले से खींची गई है, निश्चय ही इस बार भी वहीं लंबी होगी। वाम दलों को भी राजद की राजनीति में बहुत स्पेस मिलता

नहीं दिख रहा है।

राष्ट्रीय राजनीति में धुरी बनकर ही लालू जनमोर्चा, जनता दल और यूपीए कसरकार में अपनी उपस्थिति के साथ भदेसपन की बड़ी पहचान कायम कर चुके हैं। अनके राजनीतिक गतिरोध, परिवारवाद और भ्रष्टाचार के लाख

आरोप-प्रत्यारोप के बीच लालू का धुरीपन और राजद का धुरा इस बार के चुनाव में भी चुनावी जमीन पर मजबूती से टिका हुआ है।


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