Lok Sabha Election 2019: एनडीए के सामने नहीं टिका यूपीए, विपक्षी दलों को ले डूबा नकारात्मक प्रचार
कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्षी दलों ने चुनाव को नरेंद्र मोदी के एकांगी नकारात्मक मुद्दे पर केंद्रित करने की भूल की है।
अवधेश कुमार। चुनाव परिणाम में विपक्ष की पराजय केवल उनके लिए हैरतभरी है जिन्हें जमीनी वास्तविकता का अहसास नहीं था। चुनाव की घोषणा के समय से ही यह साफ था कि विपक्ष नेतृत्व और उसकी विश्वसनीयता, अंकगणित, चुनाव के दौरान निर्मित माहौल, जनता की भावनाओं से जुड़े मुद्दे तथा समग्र जनसमर्थन आधार में काफी पीछे है। अपनी अदूरदर्शिता तथा जमीनी पकड़ न होने के कारण वे इस मुगालते में रहे कि जिस तरह मोदी सरकार को वे विफल करार दे रहे हैं वैसे ही जनता भी मानती है।
यही वो मनोविज्ञान था जिसमें ज्यादातर दल और उनके नेता यह मान बैठे कि वो गठबंधन कर लें तो ज्यादा मत और सीटे पा लेंगे तथा नरेंद्र मोदी को सत्ता से उखाड़ फेकने में सफल होंगे। हालांकि इस बात पर सभी एकमत थे कि मोदी को हराना है, किंतु ज्यादातर यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि कांग्रेस आगे न बढ़े एवं उनकी सीटें इतनी आए जिससे सत्ता में उनकी दावेदारी प्रबल हो। इस संकुचित स्वार्थ की मानसिकता के रहते नरेंद्र मोदी जैसे व्यक्तित्व एवं भाजपा सहित राजग के सशक्त गठबंधन से इनके जनाधार वाले क्षेत्रों में पराजित करने सदृश मुकाबला संभव ही नहीं था। जहां गठबंधन सशक्त माना गया मसलन उत्तर प्रदेश, उसका नतीजा भी सामने है।
यह कहना हास्यास्पद है कि कांग्रेस की सीटें थोड़ी बढ़ गईं, तमिलनाडु में द्रमुक ने बेहतर प्रदर्शन किया या उत्तर प्रदेश में सपा- बसपा ने पहले से ज्यादा सीटें पाईं। ये इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि 23 मई के साथ केंद्रीय सत्ता में उनकी हिस्सेदारी सुनिश्चित है। इस नाते परिणाम पूरे विपक्ष के लिए सन्निपात जैसा है। अगर उत्तर प्रदेश में दो प्रमुख तथा एक अपने क्षेत्र में निश्चित जनाधार रखने वाले दल मिलकर भाजपा को नेस्तनाबूद करने में सफल नहीं हुए तो यह सामान्य घटना नहीं है।
जो कांग्रेस छह महीना पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा को हराने में सफल हुई थी उसे जनता ने वहां ही नकार दिया। जो ममता बनर्जी और उनके बाद चंद्रबाबू नायडू विपक्षी एकता के लिए सबसे ज्यादा चहलकदमी कर रहे थे उनका प्रदर्शन भी हमारे सामने है। विपक्षी एकता का सिद्धांत और उसके लिए अपना स्वार्थ त्यागकर एकजुट होने में जमीन आसमान का अंतर था।
तकरीबन सारे विपक्षी दल भूल गए कि नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति में दीर्घकालीन तूफान की तरह आया है जिसके साथ कुछ निश्चित जनाकर्षक विशेषताएं विचारधारा तथा जनता को आलोड़ित करने वाले कदमों का समुच्चय है। कांग्रेस तीन राज्यों की सफलता के कारण इस गलतफहमी का भी शिकार हो गई कि राफेल लड़ाकू विमान के सौदे में मोदी पर भ्रष्टाचार के आरोप तथा चौकीदार चोर है का नारा जनता को भा रहा है। लोग यह मानने को तैयार नहीं कि नरेंद्र मोदी दलाली कर सकते हैं। बालाकोट सहित पाकिस्तान में हवाई बमबारी के कारण राष्ट्रवाद के जन-मनोविज्ञान तथा आतंकवाद एवं सुरक्षा के मुद्दा हो जाने से निर्मित माहौल में भाजपा को अनुकूल पिच मिल गई।
जब एंटी सेटेलाइट मिसाइल परीक्षण हुआ तो भी विपक्ष ने कहना आरंभ किया कि यह तो वैज्ञानिकों ने किया और किया तो आपने दुनिया को बताया क्यों? इसरो एवं डीआरडीओ के पूर्व प्रमुख सामने आ गए कि हमने तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, रक्षा मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार आदि के सामने प्रेजेंटेशन दिया था, लेकिन इन्होंने आगे बढ़ने की अनुमति नहीं दी, जबकि नरेंद्र मोदी ने निर्भीक होकर आगे बढ़ने को कह दिया। इसका असर मतदाताओं पर पड़ना ही था।
विपक्ष ने आरंभ से ही चाहे गठबंधन बनाया हो या अकेले, चुनाव को मोदी हटाओ के एकांगी नकारात्मक मुद्दे पर केंद्रित करने की भूल की। इसकी प्रतिक्रिया में मोदी को बनाए रखो की भावना घनीभूत हुई। जब आप मोदी को मुख्य मुद्दा बनाएंगे तो आम मतदाता यह देखेगा कि उनके समानांतर देश का नेतृत्व करने वाले संभावित चेहरे कौन हैं? राहुल गांधी, मायावती, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, एचडी देवगौड़ा या शरद पवार, इनमें से कोई भी नरेंद्र मोदी के कद के सामने तथा मजबूत सरकार की कसौटी पर टिक नहीं सकता था।
मोदी सरकार ने पांच साल में कुछ किया ही नहीं, इस तरह के अनर्गल आरोप लोग स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। जिसे प्रधानमंत्री आवास योजना के अंदर घर मिले, जिसके यहां शौचालय बन गया, जिसके घर में बिजली लग गई, जिसे उज्ज्वला योजना से रसोई गैस का सिलेंडर मिला, जिसके यहां सड़कें बन गईं, जिसे मुद्रा योजना के तहत कर्ज मिला, जिसे स्टार्ट अप के तहत उद्यमिता का अवसर मिला वो सब जिनकी संख्या बड़ी है, विपक्ष के आरोप से सहमत नहीं हो सकते थे। इन सबमें जातीय या मोदी हराओ के नाम पर बने गठबंधन की सफलता का कोई कारण नहीं था। वास्तव में इस परिणाम ने साफ कर दिया है कि वैचारिकता से विहीन, जातीयसांप्रदायिक नकारात्मक गठजोड़ का समय लद गया है।
(वरिष्ठ पत्रकार)
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