दिल्ली- NCR के लिए नासूर बनता जा रहा है वायु प्रदूषण, आखिर क्यों नहीं बनता चुनावी मुद्दा
नियमों के बावजूद दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण कम होने की बजाए बढ़ता जा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण राज्य सरकार और स्थानीय निकायों के बीच तालमेल न होना है।
नई दिल्ली [संजीव गुप्ता]। राजनीतिक स्तर पर आरोप प्रत्यारोप भले जो भी चलते रहें, लेकिन सच यह है कि दिल्ली-एनसीआर का वायु प्रदूषण अब नासूर बनता जा रहा है। प्रदूषण के कारक भी बाहरी नहीं, बल्कि भीतरी ही हैं। मसलन, दिल्ली के प्रदूषण में 61 फीसद हिस्सा वाहनों और औद्योगिक इकाइयों के धुंए का ही है। पीएम 2.5 और पीएम 10 भी यहां तय सीमा से औसतन 76 फीसद ज्यादा है। हैरानी की बात यह भी कि सरकारी स्तर पर भी प्रदूषण से निपटने के लिए योजनाएं तो तमाम बन रही हैं, लेकिन उनके क्रियान्वयन को लेकर गंभीरता कहीं नजर नहीं आती।
विभागीय तालमेल का न होना सबसे बड़ी चुनौती
तमाम नियम कायदों के बावजूद यदि दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण कम होने की बजाए बढ़ता जा रहा है तो इसका सबसे बड़ा कारण तो राज्य सरकार और स्थानीय निकायों के बीच तालमेल न होना है। तमाम कार्य योजनाओं का नीचे तक पालन नहीं हो पाना दूसरी बड़ी समस्या है। पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण एवं संरक्षण प्राधिकरण (ईपीसीए) के साथ विभिन्न राज्यों की बैठक में यह स्थिति कई बार स्पष्ट रूप से सामने आ चुकी है।
दिल्ली की स्थिति
सार्वजनिक परिवहन अपर्याप्त हैं। बसें होनी चाहिए 15 हजार, लेकिन सिर्फ 3499 हैं। विकल्प के अभाव में ही दिल्ली में निजी वाहनों की संख्या एक करोड़ आठ लाख के आसपास पहुंच चुकी है। दिल्ली सरकार और नगर निगमों में कोई तालमेल नहीं है। सरकार या राज्य प्रदूषण नियंत्रण समिति के स्तर पर जो कार्ययोजना बनाई जाती है, वह निगम के स्तर पर गंभीरता से ली ही नहीं जाती। इसीलिए अभी भी जगह-जगह कूड़े के ढेर में आग लगाई जा रही है तो भवन निर्माण और सड़कों की साफ-सफाई में भी धूल उड़ती रहती है। नगर निगमों को एक्शन लेने के लिए केस भेजे जाते हैं, लेकिन कार्रवाई नहीं की जाती।
हरियाणा की स्थिति
यहां सबसे बड़ी समस्या पराली जलाने पर रोक नहीं लग पाना है। कृषि और पर्यावरण विभाग की सख्ती भी कारगर साबित नहीं हो पा रही है। खाप पंचायतों ने दो टूक कह दिया है कि पराली जलाना नहीं छोड़ेंगे। ईट भटठे भी हरियाणा में नासूर बन चुके हैं। नए एयर क्वालिटी मॉनीटरिंग स्टेशन लगने का मसौदा भी तैयार होने के बावजूद लटकता रहता है। पराली जलाने को लेकर हरियाणा में कोई टास्क फोर्स भी नहीं बनी है।
उत्तर प्रदेश की स्थिति
काफी बड़ा प्रदेश होने के कारण यहां नियम कायदों की एकरूपता में भी पेच हैं। विभागीय स्तर पर कहीं तालमेल नजर नहीं आता। नियम बनते भी हैं तो उनका पालन नहीं हो पाता। ईंट भट्ठे यहां भी बड़ी समस्या बने हैं। पेट्रोलिंग टीमों के गठन को लेकर भी स्थिति स्पष्ट नहीं रहती।
एनसीआर में है वायु प्रदूषण का मिक्स ट्रेंड
दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण का मिक्स ट्रेंड रहा है और इसमें साल दर साल इजाफा हो रहा है। यह सही है कि कई साल बाद पिछली सर्दियों के सीजन में खतरनाक श्रेणी के प्रदूषित दिनों की संख्या कुछ कम हुई है, लेकिन इससे प्रदूषण घटने का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। सच्चाई और जरूरत यह है कि सरकारी स्तर पर योजनाएं बनाने और लागू करने के साथ-साथ उन पर गंभीरता से अमल भी सुनिश्चित कराया जाना चाहिए।
एयर क्वालिटी मॉनीटरिंग स्टेशनों का हाल
सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) द्वारा जारी स्टेट ऑफ इंडियाज रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में सर्वाधिक 48 मॉनीटरिंग स्टेशन हैं। इनमें 38 रियल टाइम हैं, जबकि 10 मैन्यूल। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर अब दिल्ली- एनसीआर में एयर मॉनीटरिंग स्टेशनों का दायरा बढ़ रहा है। फिलहाल दिल्ली- एनसीआर में कुल 110 मॉनीटरिंग स्टेशन लगे हैं। इतनी सघन निगरानी के बावजूद प्रदूषण थम नहीं रहा है।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
दिल्ली-एनसीआर सहित देशभर में प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। दिल्ली में तो हर नागरिक प्रदूषित हवा में सांस लेने को विवश है। इससे निपटने के लिए योजनाएं तमाम हैं, लेकिन गंभीरता से उन पर अमल बहुत कम होता है। सरकारी उदासीनता भी बहुत मायने रखती है। इस मामले में केंद्र से अधिक राज्य सरकारों की जिम्मेदारी बनती है। वजह, केद्र सरकार कार्ययोजनाएं तैयार करती है, गाइडलाइंस बनाती है, जबकि उन पर अमल करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की ही होती है। इसलिए सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण को अपने घोषणापत्र में प्राथमिकता से लाएं। इसके अलावा दीर्घकालिक उपायों को गति देनी होगी। निगरानी भी बढ़ानी होगी।
- सुनीता नारायण, महानिदेशक, सीएसई एवं सदस्य, ईपीसीए
दिल्ली एनसीआर की आबोहवा में सुधार नहीं हो रहा है तो वह सिर्फ इसलिए क्योंकि ईपीसीए या सीपीसीबी (केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड) प्लान बना सकते हैं, गाइडलाइंस दे सकते हैं, उन पर अमल कराना राज्य सरकारों का काम है। जबकि राजनेता निहित स्वार्थो के लिए सख्त कदम नहीं उठाते। दिल्ली सरकार को ही ले लीजिए, कई बार व्यक्तिगत तौर पर ईपीसीए के प्रतिनिधि समझा चुके हैं लेकिन वहां से आश्वासन ही मिलता रहता है।
इसी तरह उत्तर प्रदेश और हरियाणा भी राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव से जूझ रहा है। सुप्रीम कोर्ट की सहमति से सीपीसीबी ने अब ग्रेडिंग रिस्पांस सिस्टम बनाया है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रलय ने इसको अधिसूचित भी कर दिया है, लेकिन इसे सख्ती से लागू कराने के मामले में भी कमोबेश फिर वही स्थिति सामने आ रही है।
- डॉ. भूरेलाल, चेयरमैन, ईपीसीए