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Loksabha Election 2019: दर्द के साथ पल रही दवा की उम्मीद

टिहरी लोकसभा क्षेत्र के घोषणा पत्र में राष्ट्रीय के साथ ही राज्य और स्थानीय मुद्दों को शामिल किया गया है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Wed, 10 Apr 2019 02:25 PM (IST)Updated: Wed, 10 Apr 2019 02:25 PM (IST)
Loksabha Election 2019: दर्द के साथ पल रही दवा की उम्मीद
Loksabha Election 2019: दर्द के साथ पल रही दवा की उम्मीद

टिहरी, जेएनएन। समुद्र तल से 3235 मीटर की ऊंचाई पर स्थित उत्तराखंड के चार धामों में से एक है यमुनोत्री धाम। डेढ़ दशक से यह धाम आपदाओं का दंश झेल रहा है। चार बार यहां आपदा आ चुकी हैं। बीते वर्ष जुलाई में आई आपदा ने तो धाम का भूगोल बदला है, पर अभी तक पुनर्निर्माण के लिए कोई मास्टर प्लान नहीं बना है। यात्रियों से लेकर तीर्थ पुरोहितों की मांग है कि जिस तरह से केदारनाथ में पुनर्निर्माण के कार्य हुए हैं, उसी तर्ज पर यमुनोत्री धाम में भी पुनर्निर्माण के काम कराए जाएं। थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो टिहरी लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले यमुनोत्री धाम में वर्ष 2004 में यमुना नदी के उद्गम स्थल सप्तऋषि कुंड क्षेत्र में बादल फटने से यमुना में उफान आया। इसके चलते छह लोगों की मौत मलबे में दबकर हुई। 2007 और 2013 में भी यमुनोत्री धाम में यमुना में उफान आया था। 

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जुलाई 2018 में भी आई आपदा से यमुनोत्री धाम के पास यमुना नदी पर धाम को जोड़ने वाला मुख्य पैदल पुल, शौचालय, चैंजिंग रूम, कालीकमली धर्मशाला की कैंटीन तथा चार कमरे, यमुनोत्री मंदिर समिति का कार्यालय, दो गेस्ट रूम, एक वीआइपी कक्ष, भंडारा कक्ष भी नदी के तेज बहाव में बह गए। यहीं नहीं, यमुनोत्री मंदिर के परिसर में इतना स्थान नहीं बचा है कि 100 श्रद्धालु परिसर में खड़े हो सकें। इसीलिए यमुनोत्री धाम के पुनर्निर्माण की मांग चल रही है। 

यमुनोत्री धाम के पुनर्निर्माण को लेकर विधायकों व सांसदों ने बड़े-बड़े दावे किए हैं, मगर ये धरातल पर नहीं पहुंचे हैं। इसी कारण यमुनोत्री धाम के तीर्थ पुरोहित इस बार यात्रा शुरू होने के बाद केवल यमुनोत्री धाम के कपाट केवल सुबह शाम की पूजा के लिए खुले रखने की बात कह रहे हैं। 

समाधान: केदारनाथ धाम की तर्ज पर यमुनोत्री धाम में पुनर्निर्माण करने की आवश्यकता है। मशीनों को पहुंचाने के लिए हैलीपैड बनाया जाना चाहिए, जिससे पुनर्निर्माण की टीमें आसानी से यमुनोत्री पहुंच सके। पुनर्निर्माण के लिए पर्याप्त बजट मिलना जरूरी है। केंद्र सरकार की प्रसाद योजना के तहत पर्याप्त बजट मिल सकता है। इसके अलावा यमुनोत्री के पुनर्निर्माण का मास्टर प्लान जल्द से जल्द तैयार करने की जरूरत है। मास्टर प्लान तैयार करने का काम राज्य सरकार का है। 

जल विद्युत परियोजनाएं 

टिहरी संसदीय क्षेत्र में बंद पड़ी 16 जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण और पुनर्निर्माण पर ब्रेक लगा हुआ है। जिन पर काम भी चल रहा है, उसकी गति बेहद धीमी है। बंद पड़ी परियोजनाओं के निर्माण के समाधान के लिए सरकारों के स्तर पर गंभीर प्रयास नहीं हुए हैं, जिससे यह प्रदेश ऊर्जा प्रदेश बन सके, देश के लोगों को पर्याप्त बिजली मिल सके, क्षेत्र का विकास हो सके और बेरोजगारों को रोजगार मिल सके। उत्तरकाशी में 600 मेगावाट की बहुप्रतीक्षित लोहारीनाग पाला जल विद्युत परियोजना का 2008 में 40 फीसद निर्माण हो चुका था। इसके निर्माण में 771 करोड़ रुपये भी खर्च हो चुके हैं, लेकिन फरवरी 2009 में यह परियोजना पर्यावरणीय कारणों से स्थगित की गई। 

इसके साथ 480 मेगावाट की पाला मनेरी जल विद्युत परियोजना भी बंद हुई। यही नहीं, नौ मेगावाट की काल्दी गाड, 4.50 मेगावाट की असी गंगा प्रथम, 4.50 मेगावाट की असीगंगा द्वितीय, दो मेगावाट की स्वारीगाड, 3.5 मेगावाट की लिमचागाड लघु जल विद्युत परियोजना दिसंबर 2012 में ईको सेंसटिव जोन घोषित होते ही स्थगित की गई। इसके साथ ही प्रस्तावित नौ जल परियोजनाओं को भी 2018 में ठंडे बस्ते में डाल दी गई। अलबत्ता, 300 मेगावाट की लखवाड़ जल विद्युत परियोजना व 120 मेगावाट की ब्यासी जल विद्युत परियोजना पर बेहद ही धीमी गति से काम चल रहा है। 

समाधान: बंद पड़ी जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के लिए इको सेंसटिव जोन की शर्तों में शिथिलता की जरूरत है। इसके साथ ही जिन परियोजनाओं पर 40 फीसद काम हो चुका है, उनकी क्षमता कम करके उन्हें शीघ्र शुरू करने की आवश्यकता है। भागीरथी, भिलंगना, असी गंगा, टौंस समेत अन्य नदियों में जो प्रस्तावित परियोजनाएं हैं, उनके निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना होगा। जहां ग्रामीणों का विरोध है वहां गांव में जन सुनवाई कर दिक्कतों का निदान करना होगा। 

पर्यटन विकास 

टिहरी बांध की विशाल झील व उसके परिक्षेत्र में फैले भू-भाग के सुनियोजित विकास की मंशा विकास प्राधिकरणों के गठन और दो दिन के महोत्सव कराने से आगे नहीं बढ़ पा रही है। न तो अब तक टिहरी झील का मास्टर प्लान बन सका और न झील व झील परिक्षेत्र के लिए टूरिज्म मास्टर प्लान बन सका है। इस झील से 50 से अधिक प्रभावित गांवों के लोगों को रोजगार मिल सकता है तथा विश्व स्तर की जलक्रीड़ाओं के लिए यह झील केंद्र बन सकती है। करीब 42 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली टिहरी बांध की विशालकाय झील को लंबे समय से अंतरराष्ट्रीय टूरिज्म डेस्टिनेशन के तौर पर विकसित करने की योजनाएं थी। इसमें झील में वाटर स्पोर्ट्स की विश्व स्तरीय प्रतियोगिताओं का आयोजन, साथ ही टिहरी में वाटर स्पोट्र्स एकेडमी का संचालन किया जाना था। 

इसके अलावा इस झील में सी-प्लेन उतारने के भी दावे किए गए थे, लेकिन इनके लिए टिहरी झील का मास्टर प्लान आज तक तैयार नहीं हो पाया है। जबकि वर्ष 2009 में सरकार ने टिहरी झील परिक्षेत्र विकास प्राधिकरण का गठन किया, लेकिन अभी तक प्राधिकरण की ओर से टिहरी झील को अंतरराष्ट्रीय टूरिज्म डेस्टिनेशन बनाने के लिए प्रभावी कदम नहीं हुए हैं। यही नहीं, राज्य सरकार ने टिहरी झील पर्यटन विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण का गठन किया है, जिसमें टिहरी व उत्तरकाशी जिले के कई क्षेत्रों को शामिल किया गया है। हैरत की बात यह है कि इन प्राधिकरणों के गठन के बाद भी झील का सुनियोजित विकास नहीं हो पाया है। 

समाधान: झील के विकास के लिए राज्य व केंद्र सरकारों को प्रभावी पहल करने की जरूरत है, ताकि झील के विकास की महायोजना तैयार हो सके। साथ ही झील परिक्षेत्र के लिए सेक्टोरल टूरिज्म मास्टर प्लान तैयार किया जाना चाहिए। जिससे झील से प्रभावित गांवों के लोगों भी इसका लाभ मिल सके और यह झील विश्व पर्यटन के लिए आकर्षण का केंद्र बन सके। इस झील में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जल क्रीड़ा का आयोजन होना चाहिए। 

राज्य स्तरीय मुद्दे 

पांचवां धाम 

सेम मुखेम: उत्तरकाशी व टिहरी जिले के मध्य प्रतापनगर तहसील की उपली रमोली पट्टी के मुखेम गांव से पांच किलोमीटर दूर सेम में स्थित भगवान श्रीकृष्ण के नागराजा स्वरूप में मंदिर है। मंदिर की मान्यता द्वापर युग से जुड़ी मानी जाती है और यहां वर्षभर पूजा चलती है। हर वर्ष दिसंबर मे दो दिन लगने वाले मेले में हजारों की भीड़ जुटती है। टिहरी, पौड़ी, उत्तरकाशी व पछवादून के ग्रामीण दर्शन के लिए पहुंचते हैं, लेकिन, विकास की दृष्टि से यह क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ है। इसीलिए इस क्षेत्र के लोग अर्से से सेम मुखेम को पांचवा धाम घोषित करने और वहां सुविधाओं के विस्तार की मांग कर रहे हैं। 

करीब 2200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित सेम मुखेम मंदिर बांज, बुरांश, नेर-थुनेर के जंगल के बीच रमणीक स्थल है। यहां हिमालय की चोटियों का दीदार होता है। दिसंबर माह में यहां लोग रात भर अलाव जलाकर डौंर थाली, ढोल-दमाऊ की थाप पर नाचते हैं। साथ ही अपने देवी देवताओं की डोली और निशान को लेकर भी लोग दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। यहां सबसे अधिक परेशानी मंदिर तक पहुंचने की है। यह मंदिर अभी सड़क मार्ग से नहीं जुड़ा है। साथ ही पानी की भी विकट  समस्या है। 

महासू देवता मंदिर 

जौनसार बावर के तीर्थ स्थल हनोल स्थित महासू मंदिर को भी पांचवां धाम घोषित करने की मांग लंबे समय से हो रही है। माहासू देवता मंदिर पौराणिक मंदिरों में एक है। देहरादून से लगभग 190 किमी त्यूणी के पास हनोल गांव में टोंस नदी के पूर्वी तट पर है। महासू इस क्षेत्र के मुख्य देवता है। यह मंदिर उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों, पछवादून, हिमाचल के शिमला, सिरमौर क्षेत्र के लोगों को प्रमुख तीर्थ स्थल है। यहां हर रोज सैकड़ों श्रद्धालु शीश नवाने आते हैं। महासू देवता का यह मंदिर 9वीं शताब्दी में हुना वास्तुशिल्प शैली में बनाया गया। मंदिर को उत्तराखंड के देहरादून सर्कल में प्राचीन मंदिर की भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण सूची में शामिल किया गया है। हिमाचल की सीमा के निकट होने के कारण भी यह क्षेत्र विकास में काफी पिछड़ा है। 

समाधान: तीर्थाटन और पर्यटन को बढ़ाने की कड़ी में  सेम मुखम को पांचवां धाम घोषित कर वहां सड़क समेत अन्य मूलभूत सुविधाएं जुटाई जानी चाहिए। सड़क के साथ ही मुखेम गांव से सेम तक रोपवे के विकल्प पर भी विचार किया जाना चाहिए। वहीं, लोगों को उम्मीद है कि हनोल के पांचवां धाम घोषित होने से इसके प्रचार प्रसार के साथ ही यहां विकास को भी गति मिलेगी। चार धाम की तर्ज पर हनोल व सेममुखेम और आसपास के क्षेत्रों में विकास कार्य कराए जाएंगे। जनजातीय क्षेत्र जौनसार की धार्मिक और लोकसंस्कृति को बचाने के लिए हनोल के महासू देवता मंदिर को पांचवां धाम घोषित करने के नेताओं के दावों को धरातल पर हकीकत देने की जरूरत है। 

संचार नेटवर्क 

संचार क्रांति के इस दौर में भी टिहरी लोस क्षेत्र के पहाड़ी इलाके में संचार की क्रांति नहीं हो पाई है। जो ग्रामीण कस्बे हैं, वहां 4जी सेवा की जगह 2जी सेवा ही काम कर रही है। क्षेत्र के 500 से अधिक गांव ऐसे हैं, जहां फोन करने के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। संचार सेवा में सुधार की यहां के लोगों की मांग काफी पुरानी है। अगर क्षेत्र में संचार की सुविधाएं समय पर उपलब्ध होती हैं तो न सिर्फ ग्रामीणों को अपने परिचितों की खैर-खबर लेने में सुविधा होगी, बल्कि सरकारी तंत्र और ग्रामीणों के बीच समन्वय स्थापित हो सकेगा। साथ ही कल्याणकारी योजनाओं को धरातल पर उतारने में मदद मिलेगी। 

यही नहीं, सुदूरवर्ती क्षेत्रों में घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी भी प्रशासन को समय पर मिलेगी। टिहरी लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत जनपद उत्तरकाशी के मोरी, पुरोला, नौगांव, चिन्यालीसौड़, भटवाड़ी, डुंडा ब्लाक में संचार की सबसे बदहाल स्थिति है। इसके अलावा देहरादून जनपद के चकराता और त्यूणी, टिहरी जनपद के जौनपुर, थौलधार व भिलंगना क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में संचार सेवा ठप है। कई सुदूरवर्ती गांव ऐेसे हैं, जहां दूर-दूर जाने के बाद भी मोबाइल पर नेटवर्क का सिग्नल नहीं मिलता। सबसे खराब स्थिति मोरी ब्लाक की है। यहां के अधिकांश गांवों में संचार सेवा न होने के कारण ग्रामीणों ने मोबाइल नहीं रखे हैं। विश्व प्रसिद्ध गंगोत्री धाम व यमुनोत्री धाम में भी संचार की सही सेवा नहीं है। दोनों धामों में मोबाइल की टूजी सेवा चल रही है, जिससे बात भी बड़ी मुश्किल से हो पाती है। 

समाधान: संचार सेवा को सुदृढ़ करने में केंद्र सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इन गांवों में बीएसएनएल व अन्य प्राइवेट कंपनियों के टावर लगाए जाने चाहिए। जो बीएसएनएल के टावर बंद पड़े हुए हैं उनको सुचारु किया जाना चाहिए। साथ ही पहाड़ी क्षेत्रों में ओएफसी बिछाने की अनुमति में आ रही अड़चनों को दूर करने की जरूरत है। प्राइवेट मोबाइल कंपनियों को भी इस क्षेत्र में मोबाइल टावर लगाने के लिए प्रेरित करने की जरूरत है। 

पेयजल संकट 

उत्तर भारत के गंगा-यमुना के मैदान को उपजाऊ बनाने वाली नदियों के मायके के बाशिदों के कंठ सूखे हैं। यहां चकराता से लेकर घनसाली तक 275 से अधिक गांवों में पानी का घोर संकट है, लेकिन इस दिक्कत के समाधान को ठोस प्रयास अब तक नहीं हुए। टिहरी संसदीय क्षेत्र में गंगाए यमुनाए टौंस और भिलंगना नदी का उदग़म स्थल है तो टिहरी बांध को विश्व का पांचवां सबसे ऊंचा बांध भी। इतना पानी होने के बावजूद इस पानी के सही प्रबंधन न होने के कारण लोग पानी के लिए तरस रहे हैं।

चकराता में 40 गांव, पुरोला में 25, यमुनोत्री में 25, गंगोत्री में 35, प्रतापनगर में 50, घनसाली में 25, टिहरी में 25, धनोल्टी में 50 में पानी का घोर संकट है। इन गांवों को पानी पहुंचाने की योजनाएं भी आधी अधूरी ही पड़ी हुई हैं। टिहरी जनपद में प्रतापनगर पंपिंग योजना का निर्माण तो हुआ है, लेकिन अभी 50 फीसद गांव इस योजना से नहीं जुड़ पाए हैं। बुरांश खंडा पंपिंग योजना, घंटाकर्ण, काणाताल, टिपरी, नई टिहरी पंपिंग योजना अभी तैयार नहीं हो पाई हैं। इसी तरह उत्तरकाशी में मुस्टिकसौड़ पंपिंग योजना भी नहीं बनी है। मसूरी की 70 हजार की आबादी को पेयजल योजना से जोडऩे के लिए यमुना नदी और खीरा गाड गदेरे पर दो पंपिंग योजना बनाने का प्रस्ताव है, लेकिन अभी पेयजल योजना का निर्माण शुरू नहीं हुआ है। इसी तरह का हाल जौनसार बावर के बड़े इलाके के लिए स्वीकृत नागथात लिफ्टिंग पंपिंग योजना व अटाल पंपिंग पेयजल योजना का है। 

समाधान: पहाड़ में पेयजल समाधान के लिए आधी-अधूरी पंपिंग योजनाओं को मुकाम तक पहुंचाने की जरूरत है। इन परियोजनाओं के निर्माण के लिए समय पर पर्याप्त बजट दिया जाए। परियोजनाओं के निर्माण में गति लाई जानी आवश्यक है। जो पेयजल परियोजनाएं नई बने वे दूरगार्मी सोच के अनुरूप बने, जिससे भविष्य में पानी की किल्लत न हो। इसके साथ ही निर्माण तय समय सीमा पर करने और गुणवक्ता से करने के लिए निगरानी कमेटी भी बननी चाहिए। 

स्थानीय मुद्दे 

विस्थापन और डूब क्षेत्र 

टिहरी बांध परियोजना से हर दिन सरकार को करोड़ों की आमदनी हो रही है। लेकिन इस बांध की 42 वर्ग किलोमीटर में फैली झील के किनारे बसे गांव में घरों से लेकर खेत खलियान तक लगातार दरारें पड़ रही है। चार विधानसभाओं के 50 से अधिक गांव लगातार झील के कारण बढ़ती दरारों के बीच खौफ के साये में जीवन जी रहे हैं। अभी तक न तो इन गांवों का सही ढंग से सर्वे हो पाया है और न किसी परिवार का विस्थापन। वर्ष 2005 में जब टिहरी झील बननी शुरू हुई तो झील के किनारे सटे करीब 50 गांवों में दरारें पडऩी शुरू हुई। 

ये वे गांव हैं जो टिहरी बांध विस्थापन की श्रेणी में नहीं आए हैं, मगर झील के कारण लगातार इन गांवों में खेत व घर खतरे की जद में आए। ये गांव टिहरी लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत घनसाली, प्रतापनगर, धनोल्टी, टिहरी व यमुनोत्री विधानसभा क्षेत्रों के अंतर्गत हैं। इन गांवों में 15 हजार से अधिक मतदाता हैं। वर्ष 2010 में शासन ने पुनर्वास टीएचडीसी, आइआइटी रुड़की, वाडिया संस्थान, मृदा एवं जल संरक्षण विभाग, खनन, सर्वे ऑफ  इंडिया और वन विभाग की एक कमेटी बनाई। कमेटी ने ग्राउंड जीरो पर जाकर रिपोर्ट तैयार नहीं की। केवल 17 गांवों को आंशिक डूब क्षेत्र में बताया, मगर उनका भी विस्थापन नहीं हुआ। 

समाधान: टिहरी झील के किनारे जिन गांवों में भूस्खलन हो रहा है, उनमें शासन स्तर से विभिन्न विभागों की संयुक्त कमेटी के जरिये ग्राउंड जीरो पर जाकर सर्वे कराया जाना आवश्यक है, ताकि सही तस्वीर सामने आने के साथ ही प्रभावित लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था हेा सके। भूस्खलन की रोकथाम के लिए भी अध्ययन कर यहां की परिस्थिति के अनुसार उपाय किए जाने की दरकार है। ग्रामीणों से उनका पक्ष जानकर उनकी बात को भी पुनर्वास में शामिल किया जाना चाहिए। 

डोबरा चांठी पुल 

टिहरी बांध से प्रभावित प्रतापनगर की करीब डेढ़ लाख से अधिक की आबादी को जोड़ने के लिए पिछले 13 सालों से निर्माणाधीन डोबरा चांठी पुल एक अहम मसला है। पुल न बनने से प्रतापनगर क्षेत्र के ग्रामीणों को 80 किलोमीटर से अधिक का अतिरिक्त सफर करना पड़ रहा है। इस पुल का निर्माण पूरा होने की तिथियां जरूर बदल रही हैं, लेकिन पुल का निर्माण कब पूरा होगा यह अब सियासी सवाल की तरह है। टिहरी बांध बनने के बाद अलग-थलग पड़ी टिहरी जनपद की प्रतापनगर विधानसभा की बड़ी आबादी को जोडऩे के लिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने वर्ष 2006 में डोबरा चांठी पुल की घोषणा की। करीब 89 करोड़ से बनने वाले डोबरा चांठी पुल को 2008 मे पूरा होना था। लेकिन निर्माण ही 2011-12 में शुरू हुआ। 

जब इस पुल पर 132 करोड़ खर्च हो चुके थे तो तब इस पुल का डिजाइन ही फेल हो गया। वर्ष 2015 में पुल निर्माण के लिए ई-टेंडरिंग कर कोरयिन कंपनी ने पुल का डिजायन तैयार किया, जिसके बाद पुल निर्माण के लिए 139 करोड़ और स्वीकृत किए। पुल का पूर्ण निर्माण करने की तिथि अक्टूबर 2017 की गई, लेकिन निर्माण पूरा नहीं हुआ। वर्ष 2018 में पुल निर्माण के लिए 74 करोड़ स्वीकृत किए गए। जनवरी 2019 में पुल पूरा होना था, लेकिन अभी तक पुल का निर्माण पूरा नहीं हो पाया। जबकि, 300 करोड़ से अधिक इस पुल पर खर्च हो चुके हैं। निर्माण को बजट की तो कमी नहीं है, लेकिन पुल निर्माण के लिए निगरानी टीम नहीं है, अधिकारियों की जिम्मेदारियां तय नहीं है। 

समाधान: टिहरी झील पर प्रतापनगर क्षेत्र के लिए यह पुल उम्मीदों का पुल है। सरकारी स्तर से इस पुल निर्माण में बजट की तो कमी नहीं है। लेकिन, पुल निर्माण के लिए निगरानी टीम का घोर अभाव है। इसीलिए पुल के निर्माण की हर दिन रिपोर्टिंग होनी जरूरी है। शासन स्तर से इसकी निगरानी टीम की व्यवस्था की जानी चाहिए। साथ ही अधिकारियों की जिम्मेदारियां तय की जाए, जिससे पुल के तार न टूटे और इसका डिजाइन फेल न हो। 

ईको सेंसिटिव जोन 

उत्तरकाशी जनपद के 88 गांवों में वर्ष 2012 से ईको सेंसिटिव भी एक बड़ा मुद्दा बना है। पंचायत से लेकर लोकसभा चुनाव तक इस मुद्दे पर खूब सियासत हुई है। लोग बताते हैं कि सभी दलों ने इस मुद्दे को लेकर खूब राजनीतिक रोटियां सेंकी और वोट बटोरे हैं, लेकिन ईको सेंसिटिव जोन जनमानस के लिए कहां सेंसिटिव है, इस पर यहां के नेताओं ने जनता को अंधेरे में रखा है। ईको सेंसिटिव जोन के मूल बिंदुओं के बारे में तक जानकारी नहीं दी है और जनसुनवाई में आपत्तियां दर्ज कराने का समय नहीं दिया।

लिहाजा, आज बिना संशोधन के लिए ईको सेंसिटिव जोन लागू हो चुका है, जिसके प्रभाव भी सामने आने लगे हैं। उत्तरकाशी से लेकर गंगोत्री के बीच विकास कार्य पूरी तरह से प्रभावित हैं। सबसे अधिक असर यहां रोजगार और पलायन रोकने वाली जल विद्युत परियोजनाओं, ऑलवेदर रोड के साथ गांव को जोड़ने वाली सड़कों पर पड़ रहा है। दिसंबर 2012 में उत्तरकाशी से लेकर गंगोत्री के बीच ईको सेंसिटिव घोषित हुआ। लेकिन, आज तक लोगों को ये पता नहीं हैं। इसे लागू करने के लिए जनसुनवाई तो हुई, लेकिन राजनीतिक दलों ने इसका जमकर विरोध किया। ऐसे में जनसुनवाई नहीं हो सकी और यह बिना जनसुनवाई के ही लागू हो गया। 

ऑलवेदर पर भी ब्रेक 

महत्वाकांक्षी आल वेदर रोड परियोजना में शामिल गंगोत्री हाईवे के चुंगी बडेथी से गंगोत्री तक 110 किमी मार्ग के चौड़ीकरण  की कवायद पर ईको सेंसिटिव जोन का ब्रेक है। वहां वन भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही भी शुरू नहीं हो पाई। कारण यह है कि यहां क्षेत्र इको सेंसटिव जोन में आता है। वर्ष 2012 नोटिफिकेशन के अनुसार गोमुख से चुंगी बडेथी तक गंगा के कैचमेंट क्षेत्र को इको सेंसटिव जोन घोषित किया था। इसके कड़े प्रावधानों का असर इस रोड सहित अन्य विकास कार्यों पर पड़ रहा है। 

समाधान: क्षेत्र की परिस्थितियों को देखते हुए ईको सेंसटिव जोन की शर्तों में शिथिलता वक्त की मांग है। इसके लिए राज्य सरकार को गंभीरता से पैरवी करनी होगी। इसके अलावा नए सांसदों को यह मसला संसद में प्रमुखता से रखना होगा। यही नहीं, ईको सेंसिटिव जोन की फिर से जनसुनवाई कर ग्रामीणों के सामने इसके सभी पहलुओं को रखा जाना आवश्यक है। इसके साथ ही स्थानीय स्तर पर निगरानी कमेटी का गठन आवश्यक है, ताकि जनता की समस्याओं का तुरंत समाधान हो सके। 

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