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Loksabha Election 2019 : अंबेडकरनगर में लड़ाई रोचक- लोहिया की नगरी में सियासत की 'माया'

Ambedkarnagar Loksabha Seat 90 के दशक में मायावती तेजी से सियासत की सीढिय़ां चढ़ती गईं। इस सीट को कर्मभूमि बनाया और 1995 में मुख्यमंत्री रहते अकबरपुर का नाम बदलकर अंबेडकरनगर रखा।

By Dharmendra PandeyEdited By: Published: Fri, 10 May 2019 01:18 PM (IST)Updated: Sat, 11 May 2019 02:12 PM (IST)
Loksabha Election 2019 : अंबेडकरनगर में लड़ाई रोचक- लोहिया की नगरी में सियासत की 'माया'
Loksabha Election 2019 : अंबेडकरनगर में लड़ाई रोचक- लोहिया की नगरी में सियासत की 'माया'

अंबेडकरनगर [संतोष शुक्ल]। समाजवाद के महान पुरोधा डॉ. राम मनोहर लोहिया की जन्मस्थली अकबरपुर-अंबेडकरनगर में समाजवाद की नर्सरी लहराई जरूर पर, विचारधारा का वटवृक्ष नहीं खड़ा हो सका। यहां पर 1977, 1980, 1989 और 1991 में समाजवादी धु्रवों की विजय के बावजूद मायावती ने बड़ी सेंधमारी करते हुए तीन बार चुनाव जीतकर सीट का मिजाज बदल दिया। टेरीकाट उद्योग के लिए मशहूर इस नगर में सियासी धागों के कई नए रंग भी हैं। अब मतदान के दिन यानी 12 मई को बहुजन समाज पार्टी की पावरहाउस कहलाने वाले इस लोकसभा क्षेत्र का करंट देखिए।

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बसपा के दबदबे वाली अंबेडकर नगर सीट मोदी लहर के चलते 2014 में भाजपा के कब्जे में आ गई थी। इस क्षेत्र में कांग्रेस के बाद बसपा ही अधिक सफल रही है। पिछले चुनाव में भाजपा के हरिओम पांडेय सांसद चुने गये थे। उन्होंने बसपा के राकेश पांडेय को हराया था लेकिन, भाजपा ने सांसद हरिओम के स्थान पर सहकारिता मंत्री मुकुट बिहारी वर्मा को टिकट दिया है। गठबंधन से बसपा विधायक रितेश पांडेय उम्मीदवार हैं। यहां कांग्रेस की किरकिरी प्रत्याशी उम्मेद सिंह निषाद का पर्चा खारिज होने से हो चुकी है। ऐसे में यहां पर भाजपा व गठबंधन के बीच सीधी टक्कर है। 2014 लोकसभा चुनाव में सूबे से पैर उखडऩे के बावजूद बसपा 2017 के विधानसभा चुनाव में इस लोकसभा क्षेत्र की पांच में से तीन विधानसभा सीटों पर कब्जा जमाने में सफल रही। यहां पर परिसीमन की धुरी पर सीट का भूगोल हिलता-डुलता रहा है।

संसदीय क्षेत्र की स्थिति

1952 से अस्तित्व में रही यह सीट पहले फैजाबाद पूर्वी के नाम से जानी जाती थी। 1952, 1960, 1975 और 2009 में इस सीट का परिसीमन हुआ। आपातकाल के बाद 1977 में छठे आम चुनाव में देश सियासी भूचाल से गुजरा, जिसकी सबसे ऊंची तरंग इस सीट पर नजर आई। भारतीय लोकदल के मंगलदेव विशारद ने 78 फीसद से ज्यादा वोट पाकर रिकॉर्ड बनाया, जिसे बाद में मायावती भी नहीं तोड़ सकीं।

सियासत की माया

इस क्षेत्र में श्रमिक आंदोलन की नींव पर सियासत आगे बढ़ी है। इसके बाद 90 के दशक में मायावती तेजी से सियासत की सीढिय़ां चढ़ती गईं। इस सीट को अपनी कर्मभूमि बनाया और 1995 में मुख्यमंत्री रहते अकबरपुर का नाम बदलकर अंबेडकरनगर रखा। 1998 के लोकसभा चुनाव में 35.17 फीसद, 1999 में 35.16 फीसद वोट पाकर जीतीं। कुर्मी, ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम मतों के बीच सोशल इंजीनियरिंग के दम पर माया ने 2004 के लोकसभा चुनाव में रिकॉर्ड 43.82 फीसद मत पाकर जीत दर्ज की। मायावती हर बार इस सीट को छोड़ती रहीं लेकिन, वोटरों पर पकड़ कम नहीं हुई। 1952 से 2004 तक सुरक्षित रही इस सीट पर माया सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरीं। 2009 में मायावती ने स्थानीय दिग्गज राकेश पांडेय को टिकट दिया और वो भी जीते। 2014 में मोदी की सुनामी में इस सीट ने मिजाज बदला और हरिओम पांडे की जीत के साथ पहली बार कमल खिला। इससे पहले 1989 में भाजपा के बेचनराम सोनकर सिर्फ 127 वोटों से हार गए थे। 2019 में भी यहां से मायावती के चुनाव लडऩे की चर्चा उठी लेकिन, उन्होंने जलालपुर विधायक रितेश पांडे को उतारा है। रितेश पांडेय यहां के दिग्गज राकेश पांडेय के पुत्र हैं।

रामलहर भी बेअसर

इस सीट का मिजाज रामलहर में भी नहीं बदला। कारण, रामलहर भी यहां पर जातीय तटबंधों से आगे नहीं निकल सकी। इस बार मोदी फैक्टर फिर से चुनावी केंद्र में है पर, बेरोजगारी जैसे बड़े सवाल भाजपा को नीम चबाने पर मजबूर कर रहे हैं। कांग्रेस इस सीट पर अंतिम बार 1984 में जीती। इन तमाम सियासी हिचकोलों के बाद यह सीट ज्यादातर बसपा के पाले में रही। राम मंदिर लहर में यहां कमल नहीं खिला। 1991 के लोकसभा चुनाव में जनता दल के राम अवध विजयी रहे। 1998 से 2007 तक सीट लगातार बसपा के पास रही। 2007 में इस सीट को मायावती ने छोड़ दिया और उपचुनाव में सपा के शंखलाल माझी जीत गए लेकिन, 2009 में बसपा के राकेश पांडेय ने भाजपा के दिग्गज नेता विनय कटियार को शिकस्त देते हुए बसपा के गढ़ को फिर मजबूत रखा। फिलहाल अंबेडकर नगर सीट को बसपा का पावर हाउस कहना समीचीन होगा।

जातीय तटबंधों में फंसी है सीट 

लोहिया की जन्मभूमि को मुलायम सिंह यादव की पार्टी अपनी विरासत बनाने में चूक गई। अंबेडकरनगर सीट पर जातीय तानाबाना बेहद उलझा है। सपा-बसपा का वोट जोड़ दें तो यहां पर गठबंधन का गणित भारी नजर आता है। कटेहरी और अकबरपुर विधानसभा क्षेत्र में कुर्मी वोटों की बड़ी ताकत देखते हुए भाजपा ने प्रदेश सरकार में मंत्री मुकुट विहारी वर्मा को उतारा है। कुर्मी और ठाकुर वर्ग में जो दूरी है, उसे दूर करना भाजपा के लिए कठिन होगा। ब्राह्मण मतदाताओं को बसपा के रितेश पांडे रिझा रहे हैं, जबकि यह वर्ग भाजपा का कोर वोटर माना जाता है। गोसाईंगंज के भाजपा विधायक खब्बू तिवारी की भी प्रतिष्ठा दांव पर है। टांडा विधानसभा में बड़ी संख्या मुस्लिम व दलित वोटों पर गठबंधन की नजर है। गोसाईंगज और जलालपुर समेत सभी पांच विस सीटों पर ब्राह्मण वोटों की ताकत समान है। 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के पीछे गैर-यादव वोटर रहे हैं और इस बार निषाद कमल के प्रति झुकाव रख सकते हैं। 

करवट बदलती रही सियासत

अस्सी के दशक में यहां कम्युनिस्ट विचारधारा को भी समर्थन मिला लेकिन, बाद में सियासत करवट लेती गई। अगर किंवदंतियों के पन्ने पलटें तो श्रवण कुमार के पिता के श्राप से यह धरती अब तक जूझ रही है। अयोध्या से सटा यह क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में रहा। यह लोहिया से लेकर मायावती जैसे दिग्गजों की सियासी जमीन रही लेकिन, पिछड़ेपन का अभिशाप बना रहा। अयोध्या के विकास से भाजपा ने भावनात्मक रूप से वोटरों को छुआ है। मोदी-योगी की छवि भ्रष्टाचार से लडऩे की बनी है।

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