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Loksabha Election 2019 : ...तब नाम बताने से कतराती थीं महिलाएं

बीते सालों में चुनाव बैलेट बॉक्स से निकलकर ईवीएम और अब वीवीपैट तक पहुंच गया है। मतदाताओं के अलावा प्रत्याशियों के लिए चुनाव काफी बदल चुका है। प्रचार के तरीके हाईटेक हो गए हैं।

By Edited By: Published: Wed, 27 Mar 2019 06:13 PM (IST)Updated: Wed, 27 Mar 2019 09:13 PM (IST)
Loksabha Election 2019 : ...तब नाम बताने से कतराती थीं महिलाएं
Loksabha Election 2019 : ...तब नाम बताने से कतराती थीं महिलाएं
हाथरस (अंकुर पंडित)। बीते सालों में चुनाव बैलेट बॉक्स से निकलकर ईवीएम और अब वीवीपैट तक पहुंच गया है। मतदाताओं के अलावा प्रत्याशियों के लिए चुनाव काफी बदल चुका है। प्रचार के तरीके हाईटेक हो गए हैं। सोशल मीडिया के जरिये पलक झपकते ही लाखों मतदाताओं तक पहुंचना अब बेहद आसान हो चुका है। हालांकि, एक दौर वो भी था जब चुनाव सबके लिए नया और बेहद मुश्किल था। आजादी के बाद देश के लोगों ने पहली बार वोट डाला। लोगों को मतदान केंद्र तक पहुंचाने के लिए चुनाव आयोग को कड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। यही नहीं महिला मतदाताओं की सूची तैयार करने में भी सरकारी कर्मचारियों के पसीने छूट गए थे। तब महिलाएं नाम बताने से भी कतराती थीं। पहले चुनाव के अनोखे दौर की दिलचस्प कहानी 80 से ज्यादा बसंत देख चुके कुछ लोगों के जेहन में आज भी ताजा है।

अनुबंध पर रखे गए थे लोग
पहले चुनाव को रमनपुर निवासी शिवप्यारे त्रिवेदी (93) अब तक भूल नहीं सके हैं। वे बताते हैं कि तब लोगों में काफी उत्साह था। 21 साल से ज्यादा उम्र का व्यक्ति ही वोट डाल सकता था। स्टील के नए चमचमाते बैलेट बॉक्स बनवाए गए थे। चुनाव के लिए सरकारी कर्मचारी कम पड़ गए तो छह माह के अनुबंध पर रखे गए। हर शहर-गांव से युवाओं को भर्ती किया गया। जो भी थोड़ा पढ़ा लिखा था, उसे काम मिल गया। अफवाह यह भी थी कि अनुबंध पर लगे कर्मचारियों को  स्थायी किया जाएगा। ऐसा ना होने पर लोगों ने काफी विरोध भी किया।


अपना नहीं, बेटे और पति का नाम बताती थीं महिलाएं
अब और तब के माहौल में बड़ा अंतर था। पहले तो महिलाओं से नाम पूछना मुश्किल काम था। कन्ही ङ्क्षसह इंटर कॉलेज के प्रबंधक प्रेमपाल सिंह (80) बताते हैं कि महिलाएं तो नाम ही नहीं बताती थीं। वोट डालने के लिए घर से बाहर जाना पड़ता इसलिए ज्यादातर महिलाएं चुनाव से कतरा रही थीं। जब सरकार ने मतदाता सूची तैयार कराई तो कर्मचारियों को काफी दिक्कत झेलनी पड़ी। उस समय  पढ़े-लिखे लोग गिने-चुने होते थे। ऐसे ज्यादातर लोगों को चुनाव में लगा दिया गया था। महिलाएं अपना नाम, पता नहीं बताती थीं। ज्यादातर महिलाओं ने अपने नाम की जगह अपने पति और बेटों के नाम बता दिए। सूची में महिलाओं के नाम की जगह लिखा था रामप्रसाद की पत्नी, श्यामलाल की मां। सूची बनकर तैयार हो गई। बाद में इस सूची को सरकार ने नहीं माना और नई सूची तैयार कराई गई। अधिकारियों ने महिलाओं का सही नाम पूछने के लिए काफी मेहनत की और फिर नई सूची तैयार की गई। फिर भी ज्यादा महिलाएं वोट डालने नहीं गईं।

अधिक नहीं होते थे प्रत्याशी
अब भले ही चुनाव लडऩे की होड़ हो, लेकिन पहले ऐसा नहीं। समाजसेवी मुन्ना लाल रावत (87) बताते हैं कि पहले चुनाव में प्रत्याशी ज्यादा नहीं थे। इतनी आबादी भी नहीं थी। गांव तक प्रत्याशी बैलगाड़ी या तांगे से जाते थे और गांव के अंदर पैदल-पैदल प्रचार किया जाता था। इनके साथ तीन-चार लोग ही दिखाई देते थे। प्रत्याशी के प्रचार से ज्यादा प्रचार तो सरकार ने कराया था। चुनाव क्या होता है, लोग जानते नहीं थे। सरकार ने नाटक मंडलियों से चुनाव का प्रचार कराया ताकि लोग वोट डालने पहुंचे। चुनाव के दौरान लोगों का उत्साह नजर आया और काफी लोग वोट डालने पहुंचे। जो लोग वोट डालकर आए, उन्होंने दूसरों को बताया कि कैसे वोट डाला जाता है। फिर गांव के दूसरे लोग वोट डालने गए। इस तरह काफी मतदान हो गया। कांग्रेस को ही ज्यादातर लोग पहचानते थे। इसलिए कांग्रेस प्रत्याशी की जीत पहले से तय थी।

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