Lok Sabha Election 2019: क्षत्रपों को रही है ‘छतरी’ की दरकार
पिछले 25 सालों में दोनों राष्ट्रीय पार्टी भाजपा और कांग्रेस पर भी यही बात लागू होती है कि क्षेत्रीय पार्टियों के मजबूत समर्थन के बिना राष्ट्रीय राजनीति का नेतृत्व करना मुश्किल है।
संजय मिश्र। भारत के संसदीय लोकतंत्र में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों की मजबूती तथा कमजोरी को लेकर सियासी विमर्श में चाहे जो दावे- प्रतिदावे किए जाए मगर तथ्यों की कसौटी पर तस्वीर बिल्कुल साफ है कि मतदाताओं के जेहन में इनको लेकर कोई विरोधाभास नहीं है। बीते तीन दशक के लोकसभा चुनावों के नतीजे साबित करते हैं कि राष्ट्रीय दलों के साथ हमारे लोकतंत्र में क्षेत्रीय पार्टियों ने भी अपनी संघीय भूमिका की जगह बना ली है।
हालांकि हकीकत यह भी है कि क्षेत्रीय नेता चाहे जितनी ताल ठोंक लें, लेकिन भाजपा या कांग्रेस में से किसी एक राष्ट्रीय पार्टी की छतरी में आए बिना इनकी केंद्रीय राजनीतिक भूमिका के अवसर सीमित हैं। इसकी वजह यह रही है कि देश की दो अलग-अलग राजनीतिक धुरी की कमान संभाल रहीं भाजपा और कांग्रेस ने बीते कई चुनावों के दौरान लोकसभा की 543 में से औसतन 300 से 325 सीटें अपनी झोली में डाली हैं। दो विरोधी राजनीतिक धाराओं की अगुआई करने वाली इन पार्टियों के बीच बहुमत सीटों का आंकड़ा होने की वजह से ही क्षेत्रीय दलों को अपनी राष्ट्रीय भूमिका के लिए इनमें से किसी एक खेमे को चुनना पड़ता है।
1996 में कांग्रेस व भाजपा से अलग केंद्र में तीसरी धूरी बनाने का प्रयोग हुआ मगर दो यह प्रयोग नाकाम रहा। 2014 के आम चुनाव के अपवाद को छोड दें तो बीते ढाई दशक में दोनों राष्ट्रीय पार्टियों भाजपा और कांग्रेस पर भी यही बात लागू होती रही है, कि क्षेत्रीय पार्टियों के मजबूत समर्थन के बिना राष्ट्रीय राजनीति का नेतृत्व करना मुश्किल है। 16वीं लोकसभा का चुनाव अपवाद इसलिए रहा कि तीन दशक बाद किसी एक पार्टी को अकेले बहुमत मिला। हालांकि यह तथ्य भी कम दिलचस्प नहीं है कि भाजपा को अकेले 282 सीट मिलने के बावजूद राष्ट्रीय पार्टियों का लोकसभा सीटों का आंकड़ा 326 से अधिक नहीं पहुंचा पाया। वजह रही कि कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे कम 44 सीट पर ही सिमट कर रह गई।
इस चुनाव नतीजे के वैसे दो गहरे निहितार्थ भी हैं। पहला आंकड़ों की कसौटी पर देखा जाए तो राष्ट्रीय पार्टियों का व्यापक प्रभाव होने और दायरा बढ़ने के बाद भी इनकी जीती लोकसभा सीटों की संख्या सवा तीन सौ की सीमारेखा तक ही सीमित है। दूसरी हकीकत यह है कि तकनीकी हिसाब से राष्ट्रीय दल माने जाने वाले माकपा और बसपा को छोड दें तो तमाम क्षेत्रीय पार्टियां हर चुनाव में औसतन 150 से लेकर 200 लोकसभा सीटें विगत कई चुनावों से जीतती रही हैं। इसीलिए मोदी लहर के बीते चुनाव को छोड़ दें तो क्षेत्रीय दलों के ठोस सियासी पिच पर टिके होने की वजह से ही गठबंधन के दौर में इन पार्टियों की संघीय भूमिका बढ़ी।
2014 में एक राष्ट्रीय पार्टी बसपा का खाता नहीं खुला तो माकपा को केवल 9 सीटें मिली। लोकसभा के पिछले छह चुनाव के आंकड़े कमोबेश राजनीति की इस दिशा का संकेत देते हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस और भाजपा दोनों को मिलाकर इनके खाते में 322 सीटें आई थीं। कांग्रेस ने 206 सीटें जीत दूसरी बार यूपीए गठबंधन की सरकार बनाई जिसमें क्षेत्रीय पार्टियों की अहम भूमिका थी।
जबकि मुख्य विपक्षी रही भाजपा को 116 लोकसभा सीटें मिलीं। तब माकपा को 16 और बसपा को 21 सीटें मिलीं यानि क्षेत्रीय दल चाहे जिस खेमे में हों उन्हें करीब 175 सीटें मिलीं। जबकि 2004 के आम चुनाव में कांग्रेस और भाजपा दोनों ने मिलकर 283 सीटें ही हासिल कीं। कांग्रेस ने 145 सीटों के साथ क्षेत्रीय दलों को लेकर यूपीए की पहली गठबंधन सरकार बनाई। इसमें माकपा को 43 तो बसपा को 19 सीटें मिलीं थीं यानी क्षेत्रीय दलों के खाते में इस बार भी करीब 180 सीटें रहीं।