चुनावी समय को कम करने की मांग, देश की विकास यात्रा में अहम है एक-एक दिन
अच्छा तो यह होता कि चुनावों के अनुष्ठान को कम से कम समय में निपटाकर देश के अधूरे विकास की गति को तेज किया जाता क्योंकि विकासशील से विकसित देश की यात्रा में एक-एक दिन अहम है।
अनिल सिंह। बाबा नागार्जुन की अकाल पर एक कविता है, ‘बहुत दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास, बहुत दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास। बहुत दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त, बहुत दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।’ देश में 11 अप्रैल से 19 मई तक सात चरणों में हुए चुनावों के दौरान पूरे 39 दिनों तक नई नीतियों व कार्यक्रमों के स्तर पर ऐसा ही अकाल छाया रहा।
सवाल उठता है कि जब समय, संसाधन व ऊर्जा बचाने के लिए लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनावों को एक साथ करवाने का हल्ला मचाया गया हो, तब क्या इन चुनावों को कम से कम समय में नहीं निपटाया जाना चाहिए था? आखिर देश व आम आदमी को इतने लंबे समय तक राजनीति की धीमी आंच पर पकाने का क्या मतलब और मकसद था?
भले ही इसे देश का महात्योहार कहा जा रहा हो, लेकिन यह यूरोप व लैटिन अमेरिका के कई देशों में होनेवाले कार्निवाल जैसा नहीं है जिसमें समूचा अवाम नाचते, गाते, झूमते मौज लेता है।
हालांकि इस दौरान देश के कोने-कोने में कालेधन व नशे के सौदागरों का नंगा नाच जरूर देखने को मिला है। निर्वाचन आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक 17 मई तक देश के 36 राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों में कुल 3439.38 करोड़ रुपये का कैश व नशे वगैरह के सामान जब्त किए गए हैं। इसमें से भी सबसे ज्यादा 1267.71 करोड़ रुपये के ड्रग्स व नशीले सामान हैं। 291.18 करोड़ रुपये की शराब इससे अलग है। जब्त हुए कैश की मात्रा 836.70 करोड़ रुपये रही है। सबसे ज्यादा 950.08 करोड़ रुपये का अवैध धन तमिलनाडु में पकड़ा गया। 552.62 करोड़ रुपये के साथ गुजरात दूसरे और 426.10 करोड़ रुपये के साथ दिल्ली राजधानी क्षेत्र तीसरे नंबर पर है।
आमतौर माना जाता है कि जितना अवैध धन पकड़ा जाता है, उसका कम से कम नौ गुना नहीं पकड़ा जाता। इस आधार पर गणना करें तो इन चुनावों में लगभग 35,000 करोड़ रुपये के कालेधन का इस्तेमाल हुआ होगा। इस बार के लोकसभा चुनावों में कुल 8049 प्रत्याशियों ने भाग लिया। प्रति प्रत्याशी अधिकतम खर्च की सीमा 70 लाख रुपए है। लेकिन पार्टी के खर्च की कोई सीमा तय नहीं है। इसलिए पांच साल में कमाया गया सारा काला धन आराम से राजनीति के धंधे में लग जाता है, जहां वह अगले पांच साल में खुद को पांच-दस गुना कर लेता है। यह भारत के राजनीतिक जीवन का अघोषित, लेकिन जगजाहिर सच है।
वैसे, यह सच है कि चुनावों पर खर्च जरूरी है क्योंकि इसी से हमारा लोकतंत्र फलता-फूलता और जीवंत रहता है। 15वीं लोकसभा के चुनावों पर सरकारी खजाने से 1483 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। 16वीं लोकसभा के चुनावों पर यह खर्च 131 प्रतिशत उछलकर 3426 करोड़ रुपए हो गया। इस बार 17वीं लोकसभा के चुनावों पर सरकारी खजाने से कम से कम 7000 करोड़ रुपए तो गए ही होंगे।
हालांकि 2019-20 के बजट में भारतीय निर्वाचन आयोग के लिए 286.68 करोड़ रुपये का ही प्रावधान किया गया है। बाकी कहां से आएंगे, साफ नहीं है। कायदे से सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनावों का महापर्व एकदम क्रिस्टल की तरह पारदर्शी होता। लेकिन यहां तो परतदर-परत जितना भीतर उतरिए, कोयले की कालिख ही नज़र आती है। इसलिए अच्छा तो यह होता कि चुनावों के अनुष्ठान को कम से कम समय में निपटाकर देश के अधूरे विकास की गति को तेज किया जाता क्योंकि विकासशील देश से विकसित देश की यात्रा को पूरा करने में एक-एक दिन की अहमियत है। सरकारी वादों के बीच यह यात्रा कैसे अटकी हुई है, इसे समझने के लिए दो उदाहरण की काफी हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमआईई) के मुताबिक देश में मार्च 2019 तक 12.2 लाख करोड़ रुपए के प्रोजेक्ट अटके पड़े थे।
वहीं, दिसंबर 2018 की तिमाही में सार्वजनिक व निजी क्षेत्र की तरफ से घोषित नए निवेश की रकम 14 साल के न्यूनतम पर पहुंच गई थी। दूसरा उदाहरण, 2014 व 2015 के सूखे के बाद मोदी सरकार ने 99 ऐसी सिंचाई परियोजनाएं चिन्हित की थीं जो पूरा होने के अंतिम मुकाम पर थीं। लेकिन खुद भाजपा ने 2019 के अपने संकल्प पत्र में बताया है कि इनमें से 31 परियोजनाएं ही पूरी हुई हैं। जमीनी हकीकत यह है कि इनमें से केवल छह परियोजनाओं में कमांड एरिया डेलपवमेंट हुआ है और इन्हीं छह से किसानों को पानी मिल पा रहा है।
[संपादक- अर्थकाम.कॉम]
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