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बस्‍तर में महासमर: जो पसंद आया, वो लंबा चला, मगर राम कभी नहीं रहे मुद्दा

बस्तर की राजनीतिक पहचान और धमक ब्रिटिशकाल में रजवाड़ों के समय से है। आदिवासी बहुल बस्तर में गोंड मुरिया माड़िया अबूझमाड़िया भतरा जनजाति प्रभावी भूमिका में है।

By Prateek KumarEdited By: Published: Tue, 09 Apr 2019 04:42 PM (IST)Updated: Tue, 09 Apr 2019 04:42 PM (IST)
बस्‍तर में महासमर: जो पसंद आया, वो लंबा चला, मगर राम कभी नहीं रहे मुद्दा
बस्‍तर में महासमर: जो पसंद आया, वो लंबा चला, मगर राम कभी नहीं रहे मुद्दा

रायपुर [मृगेंद्र पांडेय]। बस्‍तर की राजनीति हमेशा से ही चर्चा में रही है। एक बार जो नेता यहां आया जनता ने उसे बार-बार चुना है। चाहे वह किसी भी पार्टी का हो। कांग्रेस और भाजपा कमोबेश दोनों की ही यही स्‍थिति है। बस्तर के दंडकारण्य का जिक्र रामायण में आता है। दंडकारण्य भले ही राज राम की भूमि रही हो, लेकिन बस्तर के चुनाव में कभी भी राम मुद्दा नहीं बन पाए। इस चुनाव में भी आदिवासी वोटर देश की मुख्यधारा में जुड़कर विकास की मांग कर रहे हैं। 

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बस्तर की राजनीतिक पहचान और धमक ब्रिटिशकाल में रजवाड़ों के समय से है। आदिवासी बहुल बस्तर में गोंड, मुरिया, माड़िया, अबूझमाड़िया, भतरा जनजाति प्रभावी भूमिका में है। 14वीं शताब्दी में बस्तर में काकतीय राजवंश का शासन था। गजेटियर में बस्तर के शाही नक्शे का जिक्र है, जिसमें जगदलपुर को वहां की राजधानी बताया गया है।

राजपरिवार का झंडा नीला और सफेद रंग का था, जिस पर त्रिशूल और छोटा चंद्रमा बना हुआ था। 19वीं शताब्दी में बस्तर सेंट्रल प्रोविएंस का हिस्सा था, जो एक जनवरी 1948 को भारत गणराज्य में शामिल हुआ। जब राज्यों का उदय हुआ तो 1956 से 2000 तक बस्तर मध्यप्रदेश का हिस्सा था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में जब छत्तीसगढ़ का गठन हुआ तो बस्तर मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ राज्य का हिस्सा बना। हालांकि यहां अलग बस्तर राज्य की मांग भी बीच-बीच में उठती रही है, लेकिन बस्तर के छत्तीसगढ़ में शामिल होने के बाद यहां विकास के पैमाने पर बड़ा बदलाव दिखता है।

छत्तीसगढ़ के राजनीतिक प्रेक्षकों की मानें तो आदिवासी वर्ग के लिए सुरक्षित बस्तर संसदीय क्षेत्र की जनता जितनी शांत और सौम्य मानी जाती है, निर्णय लेने में उतनी ही कठोर है। बस्तर के अंतिम राजा प्रवीरचंद भंजदेव को जनता देवता के रूप में पूजती थी। बस्तर का वैभव वहां की प्राकृतिक सुंदरता है, चित्रकोट जलप्रपात से लेकर कुटुमसर की गुफा पर्यटकों को मोह लेती है। बस्तर की सबसे मजबूत पहचान एक महीने तक चलने वाला बस्तर दशहरा है।

इसमें राजपरिवार से लेकर आम आदिवासी समाज की प्रमुख भूमिका रहती है। गोंड आदिवासियों की घोटुल परंपरा देश-विदेश में चर्चा का विषय रही है। बस्तर की पहचान वहां के आर्ट से भी की जाती है। लकड़ी और बेलमेटल की प्राचीन कलाकृतियां की चार हजार साल पुरानी पद्धति आज भी बस्तर के हाट-बाजार में जिंदा है और यहां आने वाले पर्यटकों का मन मोहने में कारगर भी है।

जो पसंद आया, वो लंबा चला

बस्तर की राजनीति में आदिवासियों को जो नेता पसंद आया, वो लंबे समय तक चुनावी सफर में विजेता ही रहा। चाहे बात मानकूराम सोढ़ी की हो, या फिर बलीराम कश्यप की। बस्तर की जनता ने मानकूराम को पांच बार विधायक और तीन बाद सांसद चुना। सोढ़ी को 1996 में सांसद का चुनाव हारने के बाद चुनावी राजनीति छोड़नी पड़ी। भाजपा के बलीराम कश्यप को जनता ने चार बार संसद पहुंचाकर अपना वादा पूरा किया।

1996 में महेंद्र कर्मा को बस्तर की जनता ने निर्दलीय चुना, लेकिन वो ज्यादा पसंद नहीं आए। बार-बार चुनाव लड़ने के बाद भी जनता ने न तो महेंद्र कर्मा को, न ही उनके बेटे बंटी कर्मा को संसद की दहलीज तक पहुंचाया। जनता ने मुचाकी कोसा, सुरती किस्टैया, लखमू भवानी, झाडूराम सुंदर, लंबोदर बलियार, डीपी शाह, लक्ष्मण कर्मा और महेन्द्र कर्मा को सिर्फ एक बार ही सांसद बनने का मौका दिया। मानकूराम तीन और बलीराम चार बार सांसद रहे।


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