Lok Sabha Election 2019: क्या कर्जमाफी पर दबाव में होगी कांग्रेस
कृषि प्रधान प्रदेश और 70 फीसद से ज्यादा आबादी का कृषि से सीधा संबद्ध होने का असर चुनाव के बाद भी अपना असर बनाए रखेगा।
आशीष व्यास, भोपाल। लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश को लेकर जो पूर्वानुमान आ रहे हैं उससे एक बात तो साफ है कि यहां अंदर ही अंदर किसान कर्जमाफी का मुद्दा सुलग रहा था। पांच महीने पहले इसी मुद्दे पर शिवराज सरकार को अपदस्थ कर लोगों ने सत्ता कमलनाथ सरकार को सौंपी थी। नई सरकार ने भी 10 दिन में कर्ज माफी का वादा पूरा किया, लेकिन शायद ‘व्यावहारिक’ रूप से किसानों को संतुष्ट नहीं कर पाई। इस बीच भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के लिए बड़ी योजना की घोषणा कर दी। कृषि प्रधान प्रदेश और 70 फीसद से ज्यादा आबादी का कृषि से सीधा संबद्ध होने का असर चुनाव के बाद भी अपना असर बनाए रखेगा।
एक्जिट पोल में जिस आधार पर मध्य प्रदेश की सीटों का आकलन किया जा रहा है, उसके केंद्र में भी कहीं न कहीं गांव कस्बों के साथ किसानों से जुड़े मुद्दे ही दिखाई दे रहे हैं। छह किसानों की मौत का दर्द झेल चुके मंदसौर में हुआ 77 फीसद से ज्यादा मतदान भी राजनीतिक विश्लेषकों को भविष्य के समीकरण समझने का साफ संकेत दे रहा है। किसानों ने केंद्र और राज्य की योजनाओं में नफा-नुकसान का पर्याप्त आकलन किया और फिर अपने फायदे का गणित लगाकर मतदान कर दिया। यदि ये समीकरण भविष्य में भी बने रहते हैं तो आने वाले एक साल में मध्य प्रदेश की राजनीति में कई नए समीकरण दिखाई देंगे, क्योंकि, मध्य प्रदेश अगले आठ से नौ महीने में एक बार फिर से चुनावी माहौल में प्रवेश करेगा।
पहले स्थानीय निकाय और उसके बाद पंचायत चुनाव में ये सारे मसले फिर से अपने आप को दोहराएंगे और एक बार फिर गांवकिसान चुनावी दावों-वादों के इर्द-गिर्द होंगे। इसका मतलब है कि मध्य प्रदेश की अपनी सियासत में किसान और कर्जमाफी जैसे विषय अभी खत्म नहीं होने वाले और राज्य में जिस तरह कमलनाथ सरकार को राजनीतिक अस्थिरता से जूझना पड़ सकता है उसे देखते हुए इन मुद्दों पर सरकार की परीक्षा भी होती रहेगी।
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने भी किसानों की धारणा को आधार देने में बड़ी भूमिका निभाई। उन्होंने कमलनाथ सरकार के गठन के बाद 23वें दिन से ही प्रदेश सरकार को यह कहकर घेरना शुरू कर दिया था कि 10 दिन बोला था और 23 दिन बाद भी कर्जमाफी नहीं हुई। इसके अलावा मध्य प्रदेश में जो फैक्टर आगे भी असर डालेंगे, उसमें बिजली कटौती भी एक बड़ा मुद्दा रहेगा। भरी गर्मी में कटौती शुरू हुई और बिजली संकट शुरू होते ही भाजपा का हमला और जनता का डर एक साथ राजनीतिक मुद्दे के रूप में जगह बना गए। सच यह भी है कि इस पूरे घटनाक्रम में कमलनाथ सरकार लाचार ही नजर आई। यदि मान भी लिया जाए कि इसे मुद्दा बनाने की विपक्षी कारस्तानी थी तो भी इसे प्रतिपक्ष की सफलता ही माना जाएगा। किसी दौर में प्रदेश में सबसे ज्यादा राज करने वाली पार्टी और उसके अनुभवी नेता बिजली संकट का तात्कालिक समाधान भी नहीं निकाल पाए।
पूरे चुनाव के दौरान भोपाल सीट से प्रत्याशी बनकर उतरने के बाद साध्वी प्रज्ञा के बयानों और दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा के आधार पर हिंदुत्व को लेकर चले धर्मयुद्ध ने आखिर कितना काम किया, एक्जिट पोल से फिलहाल इसका आकलन स्पष्ट नहीं हो रहा है, लेकिन यह मुद्दा भविष्य की राजनीतिक दिशा जरूर तय करेगा।
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