LokSabha Election 2019: RITA VERMA के हाथों AK ROY की हार के बाद धनबाद में खड़ा नहीं हो पाया LEFT FRONT
1991 के चुनाव के लिए पहले भारतीय जनता पार्टी ने सत्यनारायण दुदानी को टिकट दिया था। वे टुंडी से कई बार विधायक रह चुके थे और बिहार में मंत्री पद सुशोभित कर चुके थे।
धनबाद, जेएनएन।1991 का लोकसभा चुनाव कई मायनों में धनबाद के लिए खास था। इस चुनाव में न तो कोई श्रमिकों का मुद्दा हावी रहा न ही झारखंड या वनांचल गठन का ही मुद्दा धनबाद में काम कर सका। यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर पर भी धनबाद में एसपी रणधीर वर्मा की शहादत हावी रही। इस सहानुभूति लहर पर सवार भाजपा प्रत्याशी रीता वर्मा ने न सिर्फ जबरदस्त जीत दर्ज की बल्कि धनबाद में लोकसभा चुनावों का रुख ही बदल दिया। इस चुनाव परिणाम ने उस समय के कई दिग्गज राजनेताओं के रिटायरमेंट की शुरुआत भी कर दी। इनमें पूर्व सांसद एके राय, पूर्व मंत्री सत्यनारायण दुदानी और समरेश सिंह शामिल हैं।
टिकट लेकर भी प्रत्याशी नहीं बन सके दुदानी : 1991 के चुनाव के लिए पहले भारतीय जनता पार्टी ने सत्यनारायण दुदानी को टिकट दिया था। वे टुंडी से कई बार विधायक रह चुके थे और बिहार में मंत्री पद सुशोभित कर चुके थे। अपने स्वच्छ छवि के कारण ईमानदारी के मामले में दुदानी एके राय के समकक्ष माने जाते थे। उन्होंने नामांकन भी कर दिया था। भाजपा नेता हरिप्रकाश लाटा उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि खड़ेश्वरी मंदिर से कार्यकर्ता पगड़ी पहने जुलूस की शक्ल में उपायुक्त कार्यालय तक पहुंचे थे। दुदानी के समर्थन में दीवाल लेखन शुरू हो चुका था। झंडे, पोस्टर, बैनर लगाने का काम शुरू हो चुका था। अग्रसेन भवन में चुनाव संचालन समिति के निमित्त बैठक भी हो चुका था। तभी पता चला कि प्रो. रीता वर्मा को यहां से चुनाव लड़ाने का फैसला किया गया है। दुदानी ने अतुलनीय पार्टी अनुशासन का उदाहरण पेश किया नाम वापस ले लिया। उन्हें गहरा सदमा लगा। दो-चार दिन वे घर से नहीं निकले। फिर चुनाव प्रचार को एक-दो जगह गए। नकारात्मक चर्चा सुन फिर शिथिल हो गए। इसके बाद वे राजनीति में फिर कभी सक्रिय नहीं हुए। चुनाव ने भले उनके संसद पहुंचने की उम्मीद को धूल में मिला दिया पर आदर्शवादी राजनीतिज्ञ के रूप में उनका कद काफी बढ़ चुका था।
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फिर कभी संसद नहीं पहुंचे एके राय : 1989 के राम लहर में भी जीत दर्ज करने वाले एके राय इस चुनाव में 85 हजार 300 मतों से मात खा गए। इसके बाद भी पूरी तरह अस्वस्थ होने से पहले तक वे 2009 तक चुनाव लड़ते रहे। तीन बार प्रो. वर्मा के खिलाफ वे दूसरे नंबर पर रहे। 1996 में उन्हें तीसरे स्थान से संतोष करना पड़ा। इस बीच सिंदरी खाद कारखाना बंद होने जैसी घटनाएं भी हुईं, झारखंड अलग राज्य भी बना लेकिन राय की राजनीति परवान नहीं चढ़ सकी। हालांकि अपने कथन कि- कम्युनिस्ट कभी बूढ़े नहीं होते पर अमल करते हुए राय तब तक चुनाव लड़ते रहे जब तक उनका स्वास्थ्य पूरी तरह दगा न दे गया। फिलवक्त वे राजनीति से दूर एकांकी जीवन जी रहे हैं। इस बार तो उनकी पार्टी भी लोकसभा चुनाव लडऩे से तौबा कर चुकी है।
जीत की चौखट पर पहुंच कर लौटते रहे समरेश : 1989 में बिहार भाजपा की कमान इंदर सिंह नामधारी और समरेश सिंह की हाथ में थी। दोनों की जोड़ी ने झामुमो के झारखंड अलग राज्य के समानांतर वनांचल आंदोलन खड़ा किया जिसे काफी समर्थन भी मिला। उत्तर बिहार में जहां पार्टी एक-एक सीट को तरस रही थी समरेश और इंदर की जोड़ी ने दक्षिण बिहार में उसे प्रमुख राजनीतिक शक्ति बना दिया। इसी बीच आडवाणी की रथ यात्रा ने उम्मीदों को परवान चढ़ाया तो समरेश 1989 में पार्टी के प्रत्याशी भी बने। उन्होंने मासस के एके राय को कड़ी टक्कर दी और दूसरे स्थान पर रहे। कार्यकर्ताओं को पूरी उम्मीद थी कि वे जीतेंगे लेकिन वे 13,571 वोट से हार गए। एके राय को 247013 वोट मिले जबकि समरेश को 233442 मतों से संतोष करना पड़ा। इस चुनाव के बाद समरेश भाजपा से अलग हो गए व संपूर्ण क्रांति दल का गठन किया। हालांकि 1991 के चुनाव के दौरान वे लौट आए। हालांकि वे फिर अलग हुए और झारखंड वनांचल कांग्रेस की स्थापना की। 1996 के चुनाव में रीता वर्मा के मुकाबिल थे और फिर दूसरे स्थान पर रहे। रीता वर्मा को 260042 तो समरेश को 247742 वोट मिले। इसके बाद उनका ग्राफ लगातार गिरता गया। कोयलांचल का यह दिग्गज कभी संसद नहीं पहुंच सका।