लोकसभा चुनाव: पांच साल पहले दलबदलुओं की थी बहार, अब नहीं मिल रहा भाव
बीते लोकसभा चुनाव में विभिन्न पार्टियों ने दलबदलू नेताओं के लिए दरवाजे खोल दिए थे। उन्होंने चुनाव में जीत भी हासिल की थी। लेकिन इस बार हालात बदले हुए हैं।
पटना [अरुण अशेष]। बिहार के संदर्भ में देखें तो 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में एक बुनियादी फर्क है। पांच साल पहले हुआ 2014 का लोकसभा चुनाव दल बदलने वालों के लिए स्वर्णकाल था तो इस साल का चुनाव ऐसे लोगों के लिए पूरी तरह निराश करने वाला है। कह सकते हैं कि दो चुनावों का फर्क इस श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए स्वर्ग और नर्क की तरह है। उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। सबसे बड़ी पाबंदी दलों पर है। वे एक सीमा से अधिक उम्मीदवार नहीं उतार सकते हैं। नतीजा दिख भी रहा है।
मजबूती भी नहीं दिला पा रही टिकट की गारंटी
सिटिंग होने या पिछले चुनाव में अच्छा वोट बटोरने के बावजूद दलबदल के आधार पर टिकट की गारंटी उन्हें नहीं मिल पा रही है। कीर्ति आजाद और उदय सिंह पप्पू या फिर ताकतवर कहे जाने वाले पप्पू यादव इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। सिटिंग होने के बाद भी किसी गठबंधन से टिकट हासिल करने में उन्हें नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं।
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भाजपा-जदयू के पास घट गईं सीटें
यह संकट सीटों की कमी के चलते पैदा हुआ है। जनता दल यूनाइटेड (जदयू) में पिछली बार 38 उम्मीदवारों का समायोजन हुआ था। डेढ़ दर्जन दलबदलू या पहली बार चुनाव लडऩे वाले उम्मीदवार खप गए थे। 2019 में जदयू के पास सिर्फ 17 सीटें हैं। वह इनमें से अधिकतम सीटों पर जीत हासिल करना चाहता है। इतने उम्मीदवार दल के अंदर ही मिल जाएंगे। एक या दो बाहरी उम्मीदवारों की गुंजाइश बन भी जाए तो यह बाजार की मांग के हिसाब से कम ही मानी जाएगी।
30 सीटों पर लड़ी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) भी 17 पर सिमट गई है। भाजपा ने भी पिछली बार दल बदलने वाले या पहली बार चुनाव लडऩे वालों का दिल खोलकर स्वागत किया था। सांसद वीरेंद्र चौधरी, रामकृपाल यादव, सुशील कुमार सिंह, राज कुमार सिंह, जनक राम आदि इसके उदाहरण हैं। राजकुमार सिंह जहां पहली बार चुनाव लड़े, बाकी सांसद दलबदल कर भाजपा में आए थे। राजद से जदयू में गए संतोष कुमार भी पूर्णिया से चुनाव जीत गए थे।
राजद में भी नहीं है गुंजाइश
बीते चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) 27 सीटों पर लड़ा था। श्रीभगवान कुशवाहा और मंगनीलाल मंडल दलबदल कर जदयू के उम्मीदवार बने थे। कुशवाहा ने इस बार भी दलबदल लिया है। इस समय वे जदयू में हैं। राजद में पप्पू यादव की आमद भी चुनाव के वक्त ही हुई थी। कांग्रेस के तीन उम्मीदवार बाहरी थे।
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कांग्रेस पर लगा राजद का ब्रेक
तीन राज्यों में सरकार बनने के बाद दलबदलुओं के बीच कांग्रेस का क्रेज बहुत बढ़ गया है। कांग्रेस ऐसे उम्मीदवारों को उपकृत करने की कोशिश कर सकती है। अनंत सिंह तो कांग्रेस के टिकट का दावा भी कर चुके हैं। लेकिन राजद का ब्रेक कांग्रेस को रोक रहा है।
दलबदलू किस्म के लोग कांग्रेस में हौसला भर रहे हैं कि सभी सीटों पर लड़कर देख लीजिए, करामात होगी। पर, पार्टी का समझदार हिस्सा जोखिम उठाने के मूड में नहीं है। उसे पता है कि बिना गठबंधन के सभी सीटों पर उम्मीदवार देना अंतत: राजग को ही लाभ पहुंचाएगा।
लोजपा के भी हाथ बंधे
दलबदलुओं या मेहमानों के लिए मुफीद समझी जाने वाली लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के हाथ भी पहले की तरह खुले नहीं रह गए हैं। पार्टी का नेतृत्व चिराग पासवान के हाथों में है। युवा होने के कारण उनके पास राजनीति करने के लिए लंबी पारी बची हुई है। सो, वे बदनामी से भी डर रहे हैं। कुछ चुनावों में लोजपा इस आरोप के साथ बदनाम रही है कि वह उम्मीदवारों के चयन में जन समर्थन के बदले धन समर्थन पर जोर देती है। रालोसपा ने पिछली बार नए चेहरे के तौर पर रामकुमार शर्मा को अवसर दिया था। कहना कठिन है कि लोजपा इसकी पुनरावृति भी कर पाएगी।
बसपा: आशा की किरण
दलबदलुओं को ले-देकर आशा की किरण बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में दिखाई दे रही है। बसपा का एक हिस्सा सभी 40 सीटों पर उम्मीदवारी की वकालत कर रहा है। वह सभी सीटों पर लड़े तो कुछ नए लोगों का चुनाव लडऩे का अरमान पूरा जाएगा। फिर भी बसपा को समझदार उम्मीदवार मिल पाएंगे, संदेह है। क्योंकि राज्य में राजग और महागठबंधन के बीच सीधी लड़ाई की तस्वीर बन रही है। त्रिकोणीय संघर्ष की संभावना नहीं रहने के कारण बाहुबली और धनबली भी चुनाव लडऩे के प्रति उत्साह न दिखाएं तो यह ताज्जुब की बात नहीं होगी।