Lok Sabha Election 2019: बढ़ रही त्रिकोणीय लड़ाई और अभी जारी रहेगा गठबंधन राजनीति का दौर
बहुमत का आंकड़ा तो 272 है पिछले लोकसभा चुनाव में लगभग 450 सीटों पर नतीजा ऐसा था कि दूसरे और तीसरे नंबर के प्रत्याशी का सम्मिलित वोट भी पहले नंबर से काफी पीछे था।
नई दिल्ली, आशुतोष झा। पिछले लोकसभा चुनाव में तीन दशक बाद त्रिशंकु संसद की परंपरा टूटी और किसी एक दल को बहुमत की संख्या मिली तो थी, लेकिन चुनाव दर चुनाव यह साबित होता जा रहा है कि गठबंधन और मजबूत स्थानीय गठबंधन की काट बहुत मुश्किल है। सरकार बनाने से पहले मतदान के वक्त भी गठबंधन बहुत अहम भूमिका निभाता है। वह चाहे 2014 की ‘मोदी सुनामी’ हो या फिर 1984 की ‘सहानुभूति लहर’ या फिर स्वतंत्रता के बाद 1952 का पहला चुनाव, यह बार बार साबित हुआ है कि त्रिकोणीय लड़ाई की जगह सीधी लड़ाई होती तो नतीजा कुछ अलग भी दिख सकता था।
यह सच है कि चुनाव में दो और दो चार नहीं होते और इसीलिए चुनाव को अंकगणित की बजाय केमिस्ट्री कहा जाता है, जिसमें यह भी मायने रखता है कि कौन से दो या अधिक दल किसके खिलाफ इकट्ठे हो रहे हैं। जिस एजेंडे के तहत इकट्ठे हो रहे हैं वह जनता से कितना जुड़ाव रखता है। जो दल साथ आ रहे हैं उनकी प्रकृति, उनका चुनावी अभियान, उनका वोट वर्ग इतना अलग और विरोधाभाषी तो नहीं कि आपस मे ही एक दूसरे का नुकसान कर दे। दरअसल हर दल को पड़ने वाले वोट का लगभग सत्तर फीसद हिस्सा तो संबंधित दल या उम्मीदवार का कमिटेड वोट होता है, लेकिन तीस फीसद हिस्सा सामने मौजूद दूसरे दलों या उम्मीदवारों के खिलाफ भी पड़ता है।यही कारण है कि जब दो दल इकट्ठे होते हैं तो एक तिहाई हिस्सा बिदकता है और इस लिहाज से चुनाव को केमिस्ट्री कहा जाता है।
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आंकड़े यह भी बताते हैं कि दूसरे फार्मूले के साथ अगर त्रिकोणीय लड़ाई भी सीधी लड़ाई में बदलती है तो नतीजे भी बदल सकते हैं। और यह कोई नया पहलू नहीं है। स्वतंत्रता के बाद से अब तक हर चुनाव में त्रिकोणीय लड़ाई बड़ी संख्या में सीटों के नतीजों पर प्रभाव डालती रही है। पहले चुनाव में ही 192 सीटें ऐसी थी, जहां दूसरे और तीसरे नंबर के प्रत्याशी के वोट मिला दिए जाएं तो जीतने वाले से ज्यादा वोट थे।
इस त्रिकोणीय लड़ाई को समझने के लिए सबसे रोचक तीन चार चुनाव रहे हैं। पहला चुनाव 1971 का जब विपक्ष इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ इकट्ठा हुआ था, लेकिन बंग्लादेश युद्ध में जीत का उत्साह इतना हावी था कि त्रिकोणीय लड़ाई का प्रभाव 110 सीटों तक सीमित रह गया था। दूसरा चुनाव 1977 का था, जब आपातकाल के बाद कांग्रेस और इंदिरा के खिलाफ माहौल था और विपक्ष हर स्तर पर एकजुट था। समाज का मुद्दा भी था, आपातकाल की परेशानियां। तब त्रिकोणीण लड़ाई का असर 49 तक सीमित था। भारतीय चुनावी इतिहास में त्रिकोणीय लड़ाई का यह सबसे कम अंक है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ही हत्या के बाद जब सहानुभूति लहर का दौर था तब भी कोई तीसरा उम्मीदवार बहुत दम नहीं दिखा पाया था।
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बहुमत का आंकड़ा तो 272 है, लेकिन लगभग 450 सीटों पर नतीजा ऐसा था कि दूसरे और तीसरे नंबर के प्रत्याशी का सम्मिलित वोट भी पहले नंबर से काफी पीछे थे। लोगों ने खुलकर किसी एक के पक्ष में वोट किया था। वहीं डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग जब दूसरी बार मैदान में उतरी थी तो लड़ाई सबसे ज्यादा थी। सरकार कुछ ही महीने पहले अमेरिका के साथ परमाणु करार के मामले पर इतनी दृढ़ दिखी कि उन वामदलों को भी अनसुना कर दिया था, जिसकी बैसाखी पर सरकार टिकी थी। दूसरी ओर विपक्ष की ओर से बहुत एकजुटता तो नहीं थी, लेकिन प्रतिद्वंद्वी के तौर पर एक चेहरा जरूर था।
नतीजा यह हुआ कि 543 सीटों के लिए हुए मतदान में 325 ऐसी थी जहां त्रिकोणीय का असर था। गठबंधन तभी प्रभावी होता है जब वह स्थानीय स्तर पर मजबूत दलों के बीच हो और उनको जोड़ने के लिए एक बड़ा मुद्दा हो जो समाज से जुड़ा हो। चुनाव में मुद्दा भावनात्मक हो इसका असर कम हो जाता है। अभी हाल में तेलंगाना में टीडीपी और कांग्रेस का गठबंधन कुछ ऐसा था जहां तेलंगाना गठन के विरोध की टीडीपी की छवि ने कांग्रेस को भी नुकसान पहुंचाया और अब आंध्र प्रदेश में बंटवारे के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा कर टीडीपी कांग्रेस से दूरी बनाकर चल रहा है। वहां भावनात्मक मुद्दा टीडीपी और कांग्रेस के बीच खड़ा है। भाजपा विरोध के नाम पर उनकी एकजुटता का असर नहीं दिखा।
तीन साल पहले पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ कांग्रेस और वाममोर्चा का गठबंधन इसलिए असर नहीं दिखा पाया क्योंकि वहां समाज से जुड़ा कोई मुद्दा नहीं था। वहीं बिहार में जदयू और राजद के घोर विरोधी होने के बावजूद गठबंधन कारगर साबित हुआ था। दरअसल, बिहार में यह गठबंधन जुड़ाव से ज्यादा आरक्षण पर हुआ था।