Move to Jagran APP

चुनाव सुधार: राजनीति में व्याप्त अपराधीकरण की सफाई का भी जिम्मा अदालतों पर

अब तक जितने भी सुधार लागू हुए हैं वह अदालत के आदेश का ही परिणाम हैं। यह सवाल भी छोड़ गए हैं कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की शक्ति कब तक सीमित रहेगी।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Sat, 30 Mar 2019 10:09 AM (IST)Updated: Sat, 30 Mar 2019 10:24 AM (IST)
चुनाव सुधार: राजनीति में व्याप्त अपराधीकरण की सफाई का भी जिम्मा अदालतों पर
चुनाव सुधार: राजनीति में व्याप्त अपराधीकरण की सफाई का भी जिम्मा अदालतों पर

नई दिल्ली, माला दीक्षित। यूं तो अदालत भी अतिसक्रियता के कठघरे में खड़ी होती है और इसीलिए बार-बार सीमा रेखा की बात होती रही है। लेकिन हर सीमा को लांघने वाले चुनावी समर पर अगर थोड़ी बहुत लगाम लग पाई है तो उसका पूरा श्रेय केवल अदालत को जाता है। अब तक जितने भी सुधार हो पाए हैं वह अदालत के आदेश से ही लागू हुए हैं और यह सवाल छोड़ गए हैं कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की शक्ति कब तक सीमित रहेगी। अब न कानफोड़ू चुनाव प्रचार है, न चारों ओर पोस्टरों बैनरों से रंगी अपनी किस्मत को रोती दीवारें और न ही पैसे और शराब का लालच देकर मतदाताओं को लुभाने के तौर तरीके।

loksabha election banner

क्या संसद कभी उम्मीदवार का ऐसा बायोडेटा मतदाताओं के हाथ में थमाती, जिसमें उम्मीदवार स्वयं ही घोषित करे कि उसके खिलाफ किस अदालत में कितने आपराधिक मामले लंबित हैं। और उनकी क्या स्थिति है। उसके और उसकी पत्नी बच्चों के नाम कुल कितनी संपत्ति है? नहीं। संसद ने जब सजायाफ्ता माननीय को भी अपील लंबित रहने तक सदन की शोभा बढ़ाने का हक दे दिया था तब भी सुप्रीम कोर्ट ने ही फैसला लिया था और उसे लागू करवाया था।

मतदाता के हाथ उम्मीदवार का बायोडेटा:

राजनीति से अपराधीकरण की सफाई की शुरुआत 2002 में हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार मतदाता के हाथ में उम्मीदवार का बायोडेटा थमाया था। कोर्ट ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह नामांकन भरते समय उम्मीदवार से एक हलफनामा ले जिसमें उम्मीदवार स्वयं की शैक्षणिक योग्यता,आपराधिक पृष्ठभूमि पत्नी व बच्चों की संपत्ति व देनदारियों का ब्योरा देगा। सुप्रीम कोर्ट ने 25 सितंबर 2018 को एक और अहम आदेश दिया। नामांकन भरने के बाद कम से कम तीन बार उम्मीदवार और संबंधित दल उम्मीदवार की आपराधिक पृष्ठभूमि व अन्य ब्योरे का अखबार, न्यूज चैनल में प्रचार करेंगे।

दागी की सदस्यता बचाए रखने का कानून किया रद:

कानून कहता है कि जो अदालत से दोषी करार होगा और सामान्य अपराध में दो वर्ष से ज्यादा की कैद होगी या फिर भ्रष्टाचार आदि कुछ चुनिंदा अपराधों में सिर्फ दोषी ही ठहरा दिया जाता है तो वह संसद या विधानसभा का सदस्य बनने के अयोग्य होगा। वह न तो चुनाव लड़ सकता है और न ही सजा के बाद सदस्य रह सकता है। माननीयों ने अपने हित सुरक्षित करते हुए कानून में संसोधन कर अपवाद जोड़ दिया।

इसमें कहा गया कि अगर कोई व्यक्ति अदालत से दोषी करार होने के बाद निश्चित समय में अपील दाखिल कर देता है तो अपील लंबित रहने तक उसकी सदस्यता नहीं जाएगी। दागियों को संसद और विधानसभा से बाहर निकालने का रास्ता भी सुप्रीम कोर्ट ने दिखाया। कोर्ट ने 10 जुलाई 2013 को सदस्यता बचाए रखने के इस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया। कोर्ट ने कहा कि जिस दिन से अदालत सजा सुनाती है सदस्य उसी दिन अयोग्य हो जाता है और उसकी सीट खाली हो जाती है।

जेल से चुनाव नहीं लड़ सकते:

10 जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने एक और अहम फैसला सुनाया था जिसमे पटना हाई कोर्ट के फैसले पर मुहर लगाते हुए व्यवस्था दी थी कि जेल में बंद व्यक्ति को जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 62 (5) में मत डालने का अधिकार नहीं होता क्योंकि वह मतदाता नहीं होता। इसलिए वह व्यक्ति संसद या विधानसभा का चुनाव लड़ने की योग्यता भी नहीं रखता। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से जेल में बंद बाहुबलियों के चुनाव लड़ने की कुप्रथा पर रोक लग गई।

माननीयों के मुकदमों के लिए विशेष अदालतें: 

कोर्ट ने सांसदों विधायकों के आपराधिक मुकदमों को विशेष अदालत गठित कर प्राथमिकता के आधार पर निबटाने के आदेश दिये थे। ताकि लंबित मुकदमों का सहारा लेकर नेता ज्यादा दिन तक अपना बचाव न कर सकें। उनके मामलों में जल्द फैसला हो अगर वे निर्दोष हैं तो राजनीत में बदस्तूर सक्रिया रहें और अगर दोषी हैं तो चुनावी राजनीति से बाहर निकलें।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.