LokSabha Election 2019: नेताजी! अन्नदाता को उसके हाल पर ना छोडिए
हमेशा से किसान चुनावी मुद्दों में तो रहा है लेकिन चुनाव जीतने के बाद सरकार उन्हें भूल जाती है। किसानों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है।
पानीपत, जेएनएन। बेबस किसान। खुद दर्द, मर्ज और कर्ज से पीडि़त, लेकिन दूसरों के लिए अन्नदाता। हाड़ कंपाकंपा देने वाली ठंड हो या भीषण गर्मी, इसे अपने काम से मतलब, मौसम कोई मायने नहीं रखता। प्राकृतिक आपदा की मार हो या फिर मार्केट में फसल के मिट्टी के समान भाव, इसमें सब सहने की हिम्मत कुदरत ने दी है।
सियासतदानों और सरकारों के सिस्टम ने इसे उसके हाल पर छोड़ दिया। हालात ये चुके हैं कि मंडी में अपनी फसल का भाव लगवाने के लिए व्यापारियों और आढ़तियों के सामने गिड़गिड़ाना पड़ता है। फसल का उत्पादन ज्यादा हो जाए तो खरीदार नहीं मिलता। मिलता भी है तो दाम औने-पौने मिलते हैं। कई-कई किमी दूर फसल बेचने जाना पड़ता है। पारंपरिक खेती के अलावा दूसरी काश्त करना जी का जंजाल साबित होता है। सवाल यही है कि आखिर खेती और किसानी की सुध क्यों नहीं ली जा रही? पेश है विशेष रिपोर्ट-
महंगाई रोकने के लिए किसानों की बलि
कुरुक्षेत्र लोकसभा क्षेत्र की बात करें तो किसान दशकों से समस्याओं के समाधान को आंदोलनरत हैं। किसानों का कहना है कि सरकार की ओर से खेती पर आने वाले खर्च के अनुसार समर्थन मूल्य नहीं दिया गया। किसान का घाटा साल दर साल बढ़ता जा रहा है। किसान यूनियन के प्रदेश प्रवक्ता राकेश बैंस ने बताया कि सरकार की एजेंसियां ये तो मान रही हैं कि प्रति क्विंटल किसान ज्यादा खर्च कर रहा है और उसके मूल्य कम मिल रहा है,
- फसल वर्ष उत्पादन पर खर्च कृषि लागत आयोग द्वारा अनुमोदित न्यूनतम समर्थन
- गेहूं 2016-17 2219 1625 1625
- गेहूं 2017-18 2050 1735 1735
- गेहूं 2018-19 2074 1840 1840
- धान 2016-17 2074 1510 1510
- धान 2017-18 2657 1590 1590
- धान 2018-19 2637 1770 1770
सरकारों ने धीरे-धीरे काट दिया गला
भाकियू के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष गुरनाम सिंह ने कहा कि किसानों की आय को एकदम नहीं बल्कि धीरे-धीरे कम किया गया है। जिसमें सरकार का ही हाथ है। महंगाई को कम रखने के लिए किसानों की बलि दे रही है। इसके लिए पिछले दशकों की सरकारों की कार्यप्रणाली को देखा जा सकता है। पहली बार सरकार की ओर से 1970 में गेहूं की एमएसपी जारी की गई थी। जो 76 रुपये प्रति क्विंटल थी और 2019 में 1840 रुपये है। जो 24 गुणा के आसपास ही बढ़ा है। इस दौरान सरकारी कर्मचारियों का मूल वेतन और डीए 120 गुना बढ़ा, प्रोफेसर रैंक में 150-170 गुना और कॉर्पोरेट सेक्टर में ये बढ़ोतरी 300-1000 गुणा की है। अगर उस अनुपात में किसान की तुलना करें तो गेहूं कम से कम आठ हजार रुपये क्विंटल होनी चाहिए। कैथल में 65 हजार परिवार हैं और पांच लाख लोग सीधे खेती से जुड़े हैं। भारतीय किसान यूनियन में प्रदेश में कोषाध्यक्ष व गांव दिल्लोंवाली के किसान सतपाल का कहना है कि मंडियों में सरसों की बेकद्री हो रही है। अब गेहूं की होगी। फसलें सड़कों पर पड़ी रहती है। गांव नैना के किसान गुलतान नैन का कहना है कि 2018 में धान की खरीद में बड़ा घोटाला हुआ था। सरकार ने जो समर्थन मूल्य दिया था उस पर किसानों की फसलें नहीं खरीदी गई।सब्जी की खेती करने वाले किसान सुभाष का कहना है कि सब्जी मंडी में हालात बदतर हैं। बिचौलियों की भरमार है। किसानों को सब्जियों का पूरा भाव नहीं दिया जाता है।
करनाल लोस क्षेत्र में भी कमोबेश यही हालात
कोई किसान की आय को दोगुना करने तो कोई कर्ज माफी करने से लेकर स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू करने का वादा करता है, लेकिन जब सत्ता हाथ लगती है तो वादे भुला दिए जाते है। पानीपत में 1.98 लाख किसानों में से 60-70 फीसद कर्ज के बोझ तले दबे हैं। किसान विनोद कुमार कहते है कि लागत बढऩे के कारण हर खेती घाटे का सौदा बनती जा रही है। आमदनी का 80 प्रतिशत फसल पर ही खर्च हो जाता है। गेंहू का औसतन उत्पादन 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ होता है। जिससे आमदनी करीब 30 हजार के आस पास होती है। वहीं प्रति एकड़ 12 से 15 हजार रुपये खर्च हो जाता है और मेहनत अलग से। हर वर्ष डीजल, डीएपी, यूरिया, पेस्टीसाइड के दाम बेहिसाब बढ़ रहे है। पहले 500 में मिलने वाला डीएपी आज 1400 का हो चुका है। 150 वाला यूरिया का बैग 300 में मिलता है। डीजल के दाम भी पैट्रोल के बराबर हो चले है।
गन्ने का दाम दस रुपये बढ़ा
कई किसानों ने बताया कि प्रति एकड़ 400 क्विंटल गन्ना निकलता है। जिस पर बिजाई, खाद, निराई, सिंचाई, बंधाई, छिलाई, ढुलाई का खर्च होता है। छुलाई के लिए लेबर प्रति क्विंटल 40 से 60 रुपये तक लेती है। कुल मिलाकर प्रति एकड़ 45 से 50 रुपये खर्च हो जाते है। जबकि आमदनी प्रति एकड़ सवा लाख तक मिल पाती है। इसलिए आमदनी का आधे से ज्यादा पैसा उसी पर खर्च हो जाता है। पांच साल में सिर्फ दस रुपये प्रति क्विंटल बढ़ा है।
मंडी में भी परेशानियां कम नहीं
अंबाला लोकसभा क्षेत्र के किसान की परेशानियां मंडी में अनाज की आवक के साथ ही किसान की परेशानियां भी शुरू हो जाती है। किसान को गेट पर एंट्री के वक्त जाम झेलना पड़ता है तो अंदर मूलभूत जरूरतों की कमी से दो चार होना पड़ता है। जिले में नन्योला, अंबाला छावनी, केसरी, मुलाना, बराड़ा, शहजादपुर, नारायणगढ़ व तलहेड़ी गुजरां आदि मंडियों में किसानों की एक जैसी ही समस्याएं हैं। किसानों के मुताबिक मंडियों में सीजन शुरू होने से पहले कोई व्यापक इंतजाम नहीं होते हैं। जलबेहड़ा किसान सुखविंद्र सिंह के मुताबिक शहर की मंडी फसल की आवक के हिसाब से छोटी है। मंडी में धान के सीजन में आधार कार्ड पर एंट्री होती थी। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश की धान मंडी में आई। इस योजना के तहत एक पर्ची पर 60 क्विंटल की एंट्री होती थी। किसान को बार बार लाइन में लगना पड़ता है। यमुनानगर में कुल 65 हजार किसान हैं। एक 1 लाख 11 हजार हेक्टयर कृषि योग्य भूमि है। 15339 किसानों ने बीमा योजना का लाभ उठाया है।
अब खेती का परंपरागत ढर्रा छोडऩा पड़ेगा
अब वे दिन लद गए। समय के साथ कदम बढ़ाना पड़ेगा। किसान फसल तैयार करने में पारंगत है, लेकिन उसकी मार्केटिंग भी करना सीखना पड़ेगा। यह जरूरी है। मेरे पास केवल दो एकड़ है। उसमें स्टीविया, एलोवेरा, लहसुन और तुलसी की खेती है। वर्ष-1996 में जड़ी बूटियों की खेती शुरू की। सबसे पहले अगरकरा, तुलसी, एलोवेरा और सफेद मूसली की खेती की। इसकी मार्केटिंग भी खुद की। नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन की ओर से आयोजित कार्यक्रम में मल्टी पपर्ज फूड प्रोसेसिंग मशीन के अविष्कार के लिए राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी सम्मानित कर चुके हैं। मेरे प्रोडक्ट अफ्रीका और नेपाल तक पहुंच चुके हैं। प्रोसेसिंग की ओर ध्यान देना पड़ेगा। जब प्रोसेसिंग होगी तभी इंकम बढ़ेगी। मान लीजिए हम गन्ना उगा रहे हैं तो इसकी चीनी कोई बेच रहा तो बगास से कोई और फायदा ले रहा है। गन्ने से महंगी तो बगास बिक रही है।
किसान धर्मवीर, राष्ट्रपति अवॉर्डी।
सिंचाई के लिए भी जूझना पड़ता
जींद में करीब 2.45 लाख हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य हैं और डेढ़ लाख से ज्यादा परिवार खेती से जुड़े हैं। रबी सीजन में मुख्यत: गेहूं की फसल होती है और छह-सात हजार हेक्टेयर में सरसों की फसल। खरीफ सीजन में कपास व धान की फसल होती है। वहीं 12 से लेकर 15 हजार एकड़ तक गन्ने का एरिया रहता है। धान व कपास की फसल में मेहनताना समेत 15 से 20 हजार रुपये खर्च आता है। अगर भाव अच्छा रहता है, तो जमींदार को कुछ बच जाता है। नहीं तो जमीन का ठेका व फसल की लागत भी निकालनी मुश्किल हो जाती है। ब्लॉक स्तर पर मंडियां बनने से फसल ले जाने में तो किसानों को किसी तरह की परेशानी नहीं है, लेकिन उचित मूल्य नहीं मिलना अहम मुद्दा है। सिंचाई की बात करें, तो नहरों में 40 दिन में पानी आता है। जिससे सिंचाई ट्यूबवेल पर ही निर्भर है। जिससे किसान की फसल पर लागत और बढ़ जाती है। जुलाना व पिल्लूखेड़ा क्षेत्र में भूमिगत पानी खराब है। वहीं सफीदों, अलेवा, उझाना में जल स्तर लगातार गिर रहा है।