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Lok Sabha Election 2019: चुनौतियों के चक्रव्यूह से जूझती कांग्रेस की उम्मीद प्रियंका गांधी

प्रियंका गांधी की सक्रिय राजनीति में खामोशी से हुई एंट्री थोड़ी चौंकाने वाली रही तो सियासी दौरों में उमड़ी भीड़ भी विरोधियों को सकते में डालने वाली दिखी।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Sun, 31 Mar 2019 09:20 AM (IST)Updated: Sun, 31 Mar 2019 09:20 AM (IST)
Lok Sabha Election 2019: चुनौतियों के चक्रव्यूह से जूझती कांग्रेस की उम्मीद प्रियंका गांधी
Lok Sabha Election 2019: चुनौतियों के चक्रव्यूह से जूझती कांग्रेस की उम्मीद प्रियंका गांधी

कानपुर, नवीन सिंह पटेल। कानपुर प्रियंका वाड्रा जब छोटी थीं तो दादी इंदिरा की तरह राजनीति में आना चाहती थीं। लेकिन, समझ बढ़ी तो कहने लगीं कि राजनीति उनकी मूल जगह नहीं। पर, नियति देखिये कि यह उन्हें राजनीति में ही खींच लाई। 20 साल पहले से बेल्लारी रायबरेली से लेकर अमेठी तक मां और भाई का प्रचार-प्रबंधन संभालते-संभालते वह औपचारिक रूप से कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव बना दी गईं और पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी भी। उनके आने से लगा कि बेदम-बेजान और बिस्तर पर पड़ी कांग्रेस को थोड़ी प्राणवायु-सी मिल गई है।

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लखनऊ में पांच घंटे के रोड शो से लेकर काशी तक जनसमूह का उमड़ना यह इशारा करता है कि चुनौतियों के चक्रव्यूह के बावजूद कांग्रेस की यह वीरांगना खाली हाथ नहीं लौटने वाली। उनके भाषणों में नयापन है और सियासी हथियारों में थोड़ी धार भी। कांग्रेसी उनमें इंदिरा की छवि देखते हैं। एक बार लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि राजनीति में चेहरे इसलिए महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि उनसे विचार जुड़े होते हैं। प्रियंका के साथ भी खास परिवार और विचार जुड़ा हुआ है। पर, कड़वी राजनीतिक सच्चाई यह भी है कि प्रियंका के आगमन मात्र से कांग्रेस में कोई चमत्कार नहीं होने वाला। चुनावी महासमर की चुनौतियां बेहद कठिन हैं। जनता भी जीत के मुहाने पर खड़े दल के साथ ही नजर आती है।

यहां तो मुकाबिल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, उनका विराट व्यक्तित्व है। शायद इसीलिए प्रियंका भाजपा को उतना नहीं कोसतीं, जितना कि प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार की नीतियों को। उन्हें बखूबी मालूम है कि भाजपा के मजबूत संगठन से पार पाने से कहीं ज्यादा कठिन मोदी के सम्मोहन से निपटना है। उन्हें भविष्य की संभावनाओं को देखकर सपा-बसपा गठबंधन पर नरम होना था, सो हैं भी।

यह और बात है कि भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर से जब अचानक मिलने मेरठ पहुंचती हैं तो गैर-सियासी भेंट को बताने के बावजूद गठबंधन के खेमे को खूब मिर्च लगती है। चिढ़ी बसपा एलान कर देती है कि उत्तर प्रदेश के बाहर किसी भी राज्य में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करेंगे। शायद बसपा को यह डर है कि दलित-प्रेम दिखाकर प्रियंका कहीं उसका वोट न छीन लें। गठबंधन का आधार भी अनुसूचित जाति-जनजाति, मुस्लिम व यादव पर ही टिका है। इसमें तनिक भी टूट-फूट किसे बर्दाश्त। इसलिए, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव भी नसीहत देने से नहीं हिचके। बीती बात है, पर कांग्रेस का मूल जनाधार ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम ही हुआ करते थे। इसे वापस हासिल करना पहाड़-सी चुनौती बेशक है, लेकिन प्रियंका बढ़ चली हैं। सुर्खियां भी बटोर रही हैं। उनका बढ़ता आकर्षण और अल्पसंख्यकों में बढ़ती पैठ ने गठबंधन की चिंता बढ़ाई है।

हालांकि, अभी उनमें खांपों-जातियों में बंटे उप्र के जातीय परिदृश्य को बदल देने का माद्दा नहीं दिख रहा। पांच बरस पहले मोदी ने जातीय गोलबंदी तोड़ी थी तो अपने बूते सत्ता तक पहुंच गए थे। पर, अभी प्रियंका से ऐसे प्रदर्शन की उम्मीद ज्यादती होगी। यह जरूर संभव है कि कांग्रेस यूपी में पहले के मुकाबले कुछ ज्यादा सीटें हासिल कर ले, लेकिन उसका सुखद कारण प्रत्याशी का निजी दम-खम ही बनेगा। रिकॉर्ड बताता है कि 2014 में पार्टी को सूबे से सात फीसद वोट मिले थे और अमेठी-रायबरेली की दो परंपरागत सीटें हासिल हुई थीं। वह भी तब, जबकि सपा-बसपा ने उनके खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारे थे। 2009 के नतीजे जरूर स्वर्णिम रहे थे। तब, पार्टी की झोली में करीब 18 फीसद वोट और 21 सीटें आई थीं।

यही प्रदर्शन दोहराने की तगड़ी चुनौती है। इसके लिए बोट-यात्रा कर चुकीं प्रियंका अब ट्रेन यात्रा की तैयारी में हैं। राम की शरण में हैं और रहीम की भी। नरम हिंदुत्व की पोटली भी करीने से संभाले हुए हैं। कांग्रेसी खेमे को यह डर जरूर रहेगा कि प्रियंका सिर्फ सियासी बुलबुला बनकर न रह जाएं क्योंकि 30 साल से सूबे में सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस में न कार्यकर्ता बचे हैं, न ही कैडर। कुछ भी हो, मगर राजनीति में कैडर के बिना चमत्कार तो नहीं हुआ करते।


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