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मिशन 2019: तीन राज्‍यों में जीत से कांग्रेस के हौसले बुलंद, झारखंड के बाद अब बिहार पर नजर

तीन राज्‍यों में जीत के बाद बिहार में कांग्रेस के हौसले बुलंद हैं। पार्टी अब राज्‍य में अपनी खोई जमीन वापस पाने की तैयारी में है। नजरें लोकसभा चुनाव पर हैं। जानिए मामला

By Amit AlokEdited By: Published: Sun, 10 Feb 2019 10:36 AM (IST)Updated: Sun, 10 Feb 2019 03:38 PM (IST)
मिशन 2019: तीन राज्‍यों में जीत से कांग्रेस के हौसले बुलंद, झारखंड के बाद अब बिहार पर नजर
मिशन 2019: तीन राज्‍यों में जीत से कांग्रेस के हौसले बुलंद, झारखंड के बाद अब बिहार पर नजर

पटना [अरविंद शर्मा]। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की जीत से उत्साहित कांग्रेस बिहार में भी उसी रफ्तार से आगे बढऩा चाह रही है। चुनाव भले लोकसभा का है, किंतु सबक विधानसभा चुनाव के नतीजे से लिए जा रहे हैं। बिहार में तीन दशक के सियासी सूखे को हरियाली में तब्दील करने की कोशिशों में जुटी कांग्रेस को उत्‍तर प्रदेश (यूपी) में मायावती और अखिलेश यादव के पैंतरे से जो झटके लगे थे, उससे झारखंड ने काफी हद तक उबार लिया है। झारखंड के बाद कांग्रेस की नजर अब बिहार पर है।
झारखंड में मिलीं 14 में से सात सीटें
झारखंड की सबसे बड़ी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने चार दलों के गठबंधन में राज्य में कांग्रेस को सबसे बड़ी हिस्सेदारी देकर राहुल गांधी के राष्ट्रीय कद को स्वीकार और अंगीकार कर लिया है। झारखंड की कुल 14 संसदीय सीटों में से झामुमो ने सात कांग्रेस को सौंप दिया है। खुद के पास चार सीटें रखी हैं।

बिहार में अपनी किस्मत खुद तय करना चाहती कांग्रेस
झारखंड में प्रभावकारी भूमिका के बाद कांग्र्रेस की नजर अब बिहार पर है, जहां राष्‍ट्रीय जनता दल (राजद) की मंशा उसे आठ सीटों से आगे नहीं बढऩे देने की है। राजद की नीयत चाहे जो हो, लेकिन इतना साफ है कि कांग्रेस अब बिहार में अपनी किस्मत खुद तय करना चाहती है, किसी की गोद में बैठकर नहीं।

बिहार में चाहिए कम-से-कम 15 सीटें
बिहार-झारखंड में लोकसभा की कुल 54 सीटें हैं। बिहार में 40 और 14 झारखंड में। दोनों राज्यों में कांग्रेस कम से कम 22 सीटों पर लडऩे की तैयारी कर रही है। झारखंड में सात मिल भी चुकी है। अब बिहार की बारी है, जहां उसे कम से कम 15 चाहिए। इसी रणनीति के तहत कांग्रेस ने झारखंड में राजद का कोई खास वजूद नहीं रहने पर भी उसे एक सीट देकर साझीदार बना लिया। बिहार में भी कांग्रेस को लालू प्रसाद से ऐसी ही उदारता की दरकार है।
लोस चुनाव में फ्रंटफुट पर रहना चाहती पार्टी
झामुमो की तरह कांग्रेस राजद को भी बिहार में विधानसभा चुनाव का नेतृत्व सौंपने के लिए तैयार है, किंतु लोकसभा में वह फ्रंटफुट से ही खेलना चाहती है। राहुल गांधी ने 29 वर्षों के बाद तीन फरवरी को पटना के गांधी मैदान में बिहार कांग्रेस की आयोजित जन आकांक्षा रैली को संबोधित करते हुए अपने सहयोगी दलों को साफ भी कर दिया था कि वह बैकफुट पर रहना पसंद नहीं करेंगे।

अखाड़ा से पहले पहलवान तैयार
कांग्रेस को पिछले संसदीय चुनाव का वाकया याद है, जब बिहार में लालू प्रसाद की ओर से उसे पहलवान खोजने के बाद ही सीटों की हिस्सेदारी मांगने की नसीहत दी गई थी। दूध की जली कांग्रेस फूंक-फूंककर कदम रख रही है। अबकी अखाड़ा सजने से पहले ही पहलवान जुटा लिए गए हैं। जिन 15 सीटों पर मजबूत दावेदारी करनी है, वहां के लिए प्रत्याशी तैयार हैं।
पिछली बार दो सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली थी। सुपौल से रंजीत रंजन और किशनगंज से असरारुल हक जीते थे। असरारुल का निधन हो गया। उनकी जगह पर स्थानीय विधायक डॉ. जावेद की उम्मीदवारी तय है। उनके पिता मो. जावेद हुसैन भी कांग्र्रेस सरकार में मंत्री रह चुके थे। कटिहार से राकांपा के टिकट पर जीतने वाले तारिक अनवर अब कांग्रेस के साथ हैं। समस्तीपुर में अशोक राम मामूली वोट से हार गए थे। अबकी फिर तैयार हैं।
सासाराम में मीरा कुमार पर भी किंतु-परंतु नहीं है। बाकी दस सीटों के लिए भी दावेदार तैयार हैं। दरभंगा क्षेत्र के भाजपा सांसद कीर्ति झा आजाद और पिछली बार मधेपुरा से राजद के टिकट पर सांसद बने पप्पू यादव की एंट्री कांग्रेस में जल्द होने वाली है।
बाहुबली विधायक अनंत सिंह भी कांग्रेस के अब अपने हो गए हैं। मुंगेर से मैदान में ताल ठोक रहे हैं। औरंगाबाद से निखिल कुमार और अवधेश नारायण सिंह में किसी एक की किस्मत खुल सकती है। नवादा में अनिल शर्मा, श्याम सुंदर सिंह धीरज या विनोद शर्मा पर मंथन किया जा है।
पटना साहिब में भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा की करवट लेने का इंतजार है। शेखर सुमन भी दोबारा दस्तक दे रहे हैं। नालंदा सीट के लिए लव-कुश रैली वाले पूर्व विधायक सतीश कुमार की प्रोफाइल भी आलाकमान तक पहुंच गई है।
इनकार-इकरार और तकरार
कांग्रेस की दावेदारी वाली 15 सीटों पर अभी कई दौर की कवायद की जानी है। दिल्ली में आलाकमान के साथ पहले दौर की मीटिंग शनिवार को हो चुकी है। अब दोबारा 13 फरवरी को फिर होगी। इस दौरान पप्पू यादव के लिए मधेपुरा या पूर्णिया में प्लॉट तैयार किया जा रहा है। दोनों सीटों के लिए कांग्रेस के पास दो पप्पू हैं। भाजपा के पूर्व सांसद उदय सिंह उर्फ पप्पू सिंह की पूर्णिया पर सशक्त दावेदारी है। पप्पू यादव के रास्ते में तेजस्वी खड़े हैं। उनके इनकार को इकरार में बदलने की तरकीब लगाई जा रही है।
दरभंगा के लिए कांग्रेस के पास कीर्ति आजाद हैं, किंतु विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) के मुकेश सहनी भी मचल रहे हैं। मधुबनी से कांग्रेस के शकील अहमद की दावेदारी है, लेकिन राजद के पास एमएए फातमी और अब्दुल बारी सिद्दीकी सरीखे सशक्त दावेदार हैं। राजद को सामाजिक समीकरण भी साधना है। इसलिए उसे मधुबनी हर हाल में चाहिए। लोजपा से खफा चल रहे सांसद महबूब अली कैसर को भी खगडिय़ा में कांग्रेस का सहारा चाहिए।
दरभंगा और सुपौल की दावेदारी पर कांग्रेस समझौता करने के पक्ष में नहीं है। इसलिए तेजस्वी यादव की जनसभाओं के बावजूद कांग्रेस झुकने को तैयार नहीं है। मुंगेर से अनंत की दावेदारी पर भी राजद ने हरी झंडी नहीं दी है। कांग्रेस विधायक अमिता भूषण की भी मुंगेर पर नजर है। जहानाबाद के रालोसपा सांसद अरुण कुमार को आगे करके लालू प्रसाद कांग्रेस की झोली से मुंगेर सीट को निकालना चाह रहे हैं। बात नहीं बनी तो अरुण को नालंदा भी ऑफर किया जा सकता है। तय अभी कुछ भी नहीं है।
चुनाव दर चुनाव पतन की कहानी
आजादी के बाद से बिहार में चार छोटे गैर कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल अगर नजरअंदाज कर दें तो 1946 से 1990 तक कांग्रेस के पास ही सत्ता रही। 1946 में श्रीकृष्ण सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने, जो 1961 तक लगातार बने रहे। उनके निधन के बाद 1990 तक 29 वर्षों में कांग्र्रेस ने 23 बार मुख्यमंत्री बदले। पांच बार राष्ट्रपति शासन भी लगाए। इस दौरान संगठन कमजोर होती गई। रही सही कसर 1989 में भागलपुर दंगे ने पूरी कर दी। बिहार में कांग्रेस के पतन की कहानी इसी साल से शुरू हो गई।
1990 में जब विधानसभा चुनाव हुआ तो 196 विधायकों वाली कांग्रेस महज 71 सीटों पर सिमट गई। पतन का सिलसिला चलता रहा और हालत यह हो गई कि 2015 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ चार विधायक जीतकर आए।
2015 में महागठबंधन की राजनीति ने कांग्रेस में दोबारा जान डाल दी और 27 विधायक जीतकर आ गए। मनोबल ऊंचा हुआ। नेतृत्व की नजर पड़ी और फिर से अपने कंधे पर खड़े होने की कवायद शुरू हो गई। तीन दशक बाद गांधी मैदान में रैली बुलाकर ताकत का प्रदर्शन इसी मनोबल का हिस्सा है।
सिमटती गई कांग्रेस
- 1985 में संयुक्त बिहार की कुल 54 सीटों में से कांग्रेस जीती 48 पर
- 1989 के आम चुनाव में महज 04 सीटों से संतोष करना पड़ा
- 1991 में यह संख्या भी आधी हो गई, सिर्फ 02 लोग जीते 
- 30 सालों में सबसे बेहतर प्रदर्शन 1998 में रहा। 05 एमपी जीते

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तीस साल, यह हाल
1989 : 4
1991 : 2
1996 : 2
1998 : 5
1999 : 2
2004 : 3
2009 : 2
2014 : 2


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