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Lok Sabha Election 2019: BIG ISSUE: बांग्लादेश से बाबाधाम में शरणागत हिंदू परिवारों को नहीं मिला जमीन का पट्टा

अखंड बिहार के बख्तियारपुर रिफ्यूजी कैंप से यहां भेजा गया था। बरमसिया में 15 परिवार हैं। जब इन्हें यहां लगाया गया तो इनके पुनर्वास की व्यवस्था यहां की सरकार ने की थी।

By mritunjayEdited By: Published: Fri, 12 Apr 2019 11:57 AM (IST)Updated: Fri, 12 Apr 2019 11:57 AM (IST)
Lok Sabha Election 2019: BIG ISSUE: बांग्लादेश से बाबाधाम में शरणागत हिंदू परिवारों को नहीं मिला जमीन का पट्टा
Lok Sabha Election 2019: BIG ISSUE: बांग्लादेश से बाबाधाम में शरणागत हिंदू परिवारों को नहीं मिला जमीन का पट्टा

देवघर, राजीव। देश की आजादी के ठीक बाद भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में फैली हिंसा व जातीय दंगों में जान बचाकर भागे तकरीबन 80 हिंदू परिवार बाबा बैद्यनाथ की धरती देवघर में आ गए थे। देवघर के झौंसागढ़ी और बरसमिया में इनके लिए शरणार्थी कॉलोनी बसाई गई। इनके पूर्वज बांग्लादेश के ढाका, बड़ीसाल, फरीदपुर, नारायणगंज इलाकों से भागकर यहां आए थे। अब इनकी तीसरी पुश्त यहां रह रही है। इनको इस बात का मलाल है कि सरकार से उस समय जो जमीन मिली उसकी बंदोबस्ती आज तक नहीं हो सकी। 

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झौंसागढ़ी रिफ्यूजी कॉलोनी के 75 वर्षीय सतीश चंद्र बाला बताते हैं कि 1949-50 की बात है।पिता स्व.नित्यानंद बाला पूर्वी पाकिस्तान के बड़ीसाल में रहते थे। वे पिता से अलग अपने ननिहाल फरीदपुर में रहते थे। उम्र छह साल थी। बंटवारे के दौरान नानी के साथ जान बचाकर पश्चिम बंगाल के राणाघाट में शरण ली थी। बाद में छपरा के हथुआ और गया में बनाए गए रिफ्यूजी कैंप में समय बीता। स्थायी दायित्व शिविर झौंसागढ़ी देवघर में 1954 में लाकर बसाया गया। जब रांची के ब्रांबे शिविर में थे तभी पैतृक गांव बड़ीसाल से खबर आई थी कि पिता का निधन हो गया। बावजूद हालात ऐसे थे कि वे जा नहीं सके। शिविर में ही रहकर पिता का श्राद्धकर्म किया। यहां रहने वाली झरना देवी ने बताया कि वे 1950 में यहां आ गई थीं। यहां शत्रुघन सिंह से शादी की। अब पूरे परिवार के साथ रह रही हैं।

अमरनाथ दुबे ने बताया कि आजादी के ठीक हुए दंगों से हालात खराब थे। वे भी जान बचाकर राणाघाट होते हुए मुंगेर आए। फिर झौंसागढ़ी की रिफ्यूजी कॉलोनी में आकर बस गए। यहां की रहने वाली गीता देवी से शादी कर ली। इनके  तीन बेटियां हैं। अमरनाथ की पत्नी गीता बताती हैं कि दो बेटियों की शादी हो गई है। तीसरी बेटी पढ़ाई कर रही है। अमरनाथ बताते हैं कि सरकार के स्तर से पुनर्वास एवं ऋण की व्यवस्था तो की गई थी। वह मुकम्मल नहीं थी। प्रशासनिक स्तर पर भी विस्थापितों को ठीक से नहीं बसाए जाने की सूरत में हाईकोर्ट में गुहार लगाई। हाईकोर्ट ने सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का आदेश दिया था।

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी आदेश के अनुपालन का निर्देश प्रशासन को दिया था। वर्तमान सरकार को भी इस मामले में सहानुभूति पूर्वक विचार करना चाहिए। धीरेन राय बताते हैं कि पिता स्व.प्रफुल्ल राय परिवार के साथ जान बचाकर राणाघाट शिविर में शरण लिए थे। यहीं उनका जन्म हुआ था। हम लोगों के पास राशन कार्ड, वोटर कार्ड, आधार कार्ड है। बावजूद सरकार से मिली छह डिसमिल जमीन अब तक बंदोबस्ती नहीं हुई। इससे बैंक से ऋण नहीं मिलता है। सरकार रिकार्ड में दर्ज हम जैसे शरणार्थियों के नाम आवंटित भूभाग का सेटलमेंट कर दे। हमें पट्टा दे दे। ताकि परेशानी नहीं हो।

बरसमिया में रहने वाले तरुण कुमार दे बताते हैं कि उनके पिता स्व. निताईचंद्र दे 1950 के आसपास ढाका के नारायणगंज से पूरे परिवार के साथ जान बचाकर यहां आए थे। अखंड बिहार के बख्तियारपुर रिफ्यूजी कैंप से यहां भेजा गया था। बरमसिया में 15 परिवार हैं। जब इन्हें यहां लगाया गया तो इनके पुनर्वास की व्यवस्था यहां की सरकार ने की थी। छह डिसमिल जमीन के साथ जीवन बसर के लिए कुछ पैसे बतौर पेंशन का भी प्रावधान किया। तरुण बताते हैं कि अब तीसरी पीढ़ी पूरी तरह से भारतीय नागरिक बनकर रह रही है। हमें कभी भी बांग्लादेश की की याद नहीं आती है। मन में कभी रिफ्यूजी होने का भाव नहीं आता है क्योंकि यहां काफी मान-सम्मान से रहते हैं। भारतीय होने का हमें गौरव है। 

एनआरसी के बारे में अधिकांश अनभिज्ञ : देश का पहला राज्य असम है जहां भारतीय नागरिक पंजी (एनआरसी) है। नागरिक पंजी में उन भारतीय नागरिकों के नाम हैं जो असम में रहते हैं। इसे भारत की जनगणना 1951 के बाद तैयार किया गया था। इसे जनगणना के दौरान वर्णित सभी व्यक्तियों के विवरण के आधार पर तैयार किया गया था। जो लोग असम में बांग्लादेश बनने से पहले यानि 25 मार्च 1971 से पहले आए हैं, केवल उन्हें ही भारत का नागरिक माना जाएगा। देवघर में बांग्लादेश से आए इन हिंदू परिवारों को एनआरसी के बारे में जानकारी नहीं है। वैसे यहां के शरणार्थी परिवारों को 1950, 1954 और 1965 में शिविरों में रखे जाने के बाद स्थायी दायित्व शिविर के तहत जमीन मुहैया करा दी गई थी। 


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