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Jharkhand Assembly Election 2019: बिहार की छाया-छाप से मुक्ति की छटपटाहट Koderma Ground Report

Jharkhand Assembly Election 2019 झारखंड की सीमा में प्रवेश के साथ ही शुरू होता है खनिज का समृद्ध इलाका उत्तर में घने जंगल और पठार विभाजित करते हैं झारखंड को बिहार से।

By Alok ShahiEdited By: Published: Mon, 11 Nov 2019 08:01 PM (IST)Updated: Mon, 11 Nov 2019 08:01 PM (IST)
Jharkhand Assembly Election 2019: बिहार की छाया-छाप से मुक्ति की छटपटाहट Koderma Ground Report
Jharkhand Assembly Election 2019: बिहार की छाया-छाप से मुक्ति की छटपटाहट Koderma Ground Report

कोडरमा घाटी से प्रदीप सिंह Jharkhand Assembly Election 2019 झारखंड का आशय उस भूमि से है, जो झार यानी जंगलों का खंड (प्रदेश) है। 19 साल पहले बिहार से विभाजन का यही भौगोलिक अंतर एक बड़ा आधार बना। यहां का जल, जंगल, जमीन और उसके साथ जन (आदमी) भी। उत्तर दिशा में पड़ोसी बिहार से आरंभ होने वाली झारखंड की सीमा का पहला गांव है मेघातरी। आगे रपटीली तारा घाटी और उसके किनारे कई जगहों पर झोला लेकर बैठे पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का झुंड।

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अनजान चेहरों को देख इनके चेहरे पर झिझक और भय के भाव एक साथ उभरते हैं। इसका कारण झोले में चोरी-छिपे निकाला गया खनिज अभ्रक है, जिसे ये लोग ढिबरा कहते हैं। एक मायने में आज भी यही इनके गुजरबसर का एकमात्र स्रोत है। खनन कर छोड़े गए खदानों से ढिबरा निकालना और उसे व्यापारियों को बेच पेट पालना। ग्रुप का हेड अपनी पहचान छिपाने की शर्त पर बोलता है, हमारे बाप-दादा भी यही करते थे सर। हम भी इसी से जी रहे हैं। कुछ भी बदला नहीं। रोजगार की तलाश में कभी रांची जाते हैं, तो कभी पटना। लेकिन, लौटकर फिर ढिबरा चुनने वापस आना पड़ता है। 

कोडरमा घाटी में सरपट भागती गाडिय़ां। शाम ढलने को है और नीचे से आ रहा कोयले का धुआं वातावरण को मटमैला कर रहा है। यह समूह बिरहोरों का है, आदिवासियों की विलुप्त हो रही जनजाति में बिरहोर शुमार हैं। सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का बड़ा हिस्सा इनपर खर्च होता है, लेकिन इनके जीवनस्तर में बस यही बदलाव हुआ कि ये घने जंगलों से निकल अब सड़क किनारे डेरा जमाए रहते हैं। स्वभाव से शर्मीले, कंधे पर गुलेल। इस समूह का युवक डेमका बताता है, दिन जंगलों में भोजन खोजने में बीतता है। सूखी लकड़ी बटोरकर बेचते हैं बाजार में। कभी जंगल में खरहा-मुर्गी मिला गया, तो बहुत अच्छा। यानी कुल मिलाकर झारखंड गठन के वक्त जो हालात थे, उससे आगे गाड़ी बढ़ी नहीं।

भले ही जीवनस्तर और रोजगार के संसाधन कोडरमा में ठिठक गए हों, लेकिन राजनीति के मोर्चे पर यहां हाल के दिनों में जबरदस्त बदलाव आया है। बिहार की राजनीति का कभी पर्याय रहा लालटेन (राजद का चुनाव चिह्न) यहां बस टिमटिमा रहा है। इस संवाददाता ने 2001 का वह मंजर भी देखा है, जब फिलहाल चारा घोटाले के सजायाफ्ता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद गरीब रथ पर सवार होकर पहली बार मुकदमे के सिलसिले में रांची जा रहे थे कोर्ट में सरेंडर करने। तब नारा लगता था, 'जेल का फाटक टूटेगा, लालू यादव छूटेगा।'

झारखंड में लालू प्रसाद की छत्रछाया रहीं अन्नपूर्णा देवी ने अब पहले से कहीं और ज्यादा सुरक्षित राजनीतिक ठिकाना ढूंढ लिया है। उनके फैसले का असर यहां विधानसभा चुनाव में भी स्पष्ट दिखेगा। वैसे टिकट के मामले में उनकी पसंद का अधिक ख्याल नहीं रखा गया, लेकिन नतीजे पर उनकी पसंद-नापसंद का असर इस क्षेत्र के चुनाव परिणाम को प्रभावित करने का माद्दा रखता है। चुनाव तीसरे चरण में होना है और फिलहाल प्रमुख दलों के प्रत्याशियों की स्थिति स्पष्ट होने के बाद सियासी गतिविधि तेज होगी।

हजारों पेड़ धराशायी, 'जंगल' है कहां

तारा घाटी के घने जंगलों को निहारना अजीब सुकून देता है। लेकिन यह क्या, तिलैया में हजारों पेड़ धरती पर धराशायी लेटे हैं। जवाहर घाटी को चौड़ा करने के नाम पर इन्हें 'वीरगति' को प्राप्त होना पड़ा है। कुछ दिनों बाद तिलैया में खूबसूरत जलाशय का गहरा नीला पानी तो दिखेगा, लेकिन उसकी पहरेदारी करने वाले पेड़ नदारद होंगे। लगभग 15 हजार वृक्ष काटे जा चुके हैं।

ऑटोमेटिक आरी बेखटके पेड़ों को रेत रहे हैं। काम करने वाले मजदूरों को सबका काम तमाम करने का फरमान है। कोई जिम्मेदार नहीं मिलता यह बताने वाला कि काटे गए पेड़ के स्थान पर पौधारोपण कर भरपाई कैसे होगी? पांच हजार पेड़ों को यहां से उखाड़कर दूसरे जगह लगाने की योजना का आखिरकार क्या हुआ? झारखंड का झार यानी जंगल यहां खतरे में नहीं तो और क्या है।


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