नवनीत शर्मा, धर्मशाला। अंतत: हिमाचल प्रदेश के ऊर्जा मंत्री अनिल शर्मा ने मंत्रिपद छोड़ दिया। यह नैतिकता की लहर है तो भी बेहद महीन है जो मजबूरी से निकली है। अगर यह स्वेच्छा से उठाया हुआ कदम है तो बहुत देर से उठा है। वैसे इस्तीफे की पटकथा के लिए संवाद उसी दिन तैयार हो गए थे जिस दिन उन्होंने कह दिया था कि मुख्यमंत्री को तो हालात बनाते हैं... मंत्रिपद झुनझुना है...। मजे की बात यह है कि अनिल शर्मा उपरोक्त में से किसी को इस्तीफे का कारण नहीं बता रहे हैं। उनका ताजातरीन बयान यह है कि वह मुख्यमंत्री की बातों से आहत हुए हैं।
उन्होंने पूरा इतिहास बताने की कोशिश भी की कि भाजपा ने 1998 में सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस की मदद से सरकार चलाई और पांच साल पूरे करने वाली पहली गैर कांग्रेस सरकार को भूलना नहीं चाहिए। इसे सुखराम की कुर्बानी के तौर पर रेखांकित कर रहे हैं अनिल शर्मा। अगर सरकार बनवाना और उसमें शामिल होकर सत्ता सुख भोगना कुर्बानी है तो इस कुर्बानी के सदके। कोई मुख्यमंत्री इन सब बातों की इजाजत नहीं दे सकता कि उसका मंत्री उसी की पार्टी के लोकसभा प्रत्याशी के खिलाफ सक्रिय रहे, बॉस पर सवाल उठाए।
अब आया नैतिकता का सवाल। नैतिकता पूर्ण दिखाई देगी अगर अनिल शर्मा मंडी विधानसभा क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी के तौर पर मिले जनादेश को रद समझें और नया जनादेश लें। यानी नैतिकता के उच्च मानदंड स्थापित करते हुए पार्टी से त्यागपत्र दें और खुल कर बेटे की मदद करें। इस घुटन से उन्हें सिवाय विधायक पद के और क्या हासिल होगा? मुख्यमंत्री की बातों ने उन्हें इतना आहत किया है कि वह मंत्रिपद छोड़ रहे हैं, तो भाजपा और कांग्रेस का एक वर्ग भी तो उनके परिवार के लिए बहुत कुछ कह रहा है उससे भी आहत हों। फिर नया जनादेश लेने में क्या जाता है।
इतिहास ऐसे कई मंजर देखता आया है जहां लम्हे खता करते हैं और सजा पाने के लिए सदियां अभिशप्त होती हैं। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से गलती हुई थी जिसे मुख्यमंत्री और भाजपा को भुगतना पड़ रहा है। मुख्यमंत्री ने सुखराम के हलके में ठोकरें खाने का जिक्र अकारण नहीं किया था। इसके अलावा जनता को अगर कुछ भुगतना पड़ रहा है तो वह लगातार भंग हो रहा मोह है। दलबदल की यह प्रवृत्ति अब नगर निगम के वार्डों तक उतर रही है। जनता के सपनों की जिम्मेदार जनता स्वयं है और जहां रसूख हो वहां, दादा के सपने का जिम्मेदार पोता है। जिस धर्मसंकट का उच्चारण बार-बार हो रहा था, उसमें वस्तुत: जनता को लाया जा रहा है। भाजपा के एक नेता कहते हैं, 'मुझे यह बताइए... न यह परिवार कांग्रेस का हुआ, न यह परिवार अपनी ही पार्टी को बनाए रख सका, न यह भाजपा का हुआ.. अपने परिवार और अपने सपने के अलावा कोई लक्ष्य रहा है?Ó
इसी प्रकार आश्रय शर्मा के महत्वाकांक्षी होने में कुछ गलत नहीं है। राजनीति के अध्याय में अब यह शब्द इतना आम हो गया है कि पर्यायवाची लगता है। आश्रय से इतनी ही उम्मीद है कि वह सुविधा की राजनीति के पारिवारिक इतिहास को न दोहराते हुए अब कांग्रेस में ही रहेंगे, अपना रास्ता स्वयं बनाएंगे।
और जनता? उसे हर आदमी के अंदर मौजूद दस बीस आदमियों की पड़ताल के बाद ही सही चेहरा ढूंढऩा होगा ताकि यकीन... सिद्धांत... और निष्ठा जैसे शब्द अपना मुलम्मा न खो दें।
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