Haryana Election: कांग्रेस के 'संकटमोचक' बन रहे पुराने क्षेत्रीय क्षत्रप, हुड्डा ने किया साबित
हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि कांग्रेस को अपनी राजनीतिक वापसी के लिए क्षेत्रीय क्षत्रपों का ही सहारा लेना होगा।
नई दिल्ली, संजय मिश्र। हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि कांग्रेस को अपनी राजनीतिक वापसी के लिए क्षेत्रीय क्षत्रपों का ही सहारा लेना होगा। त्रिशंकु विधानसभा की हालत में सत्ता का तराजू भले भाजपा के पक्ष में झुक जाए मगर भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने हरियाणा में कांग्रेस की सियासत के तराजू को एक बार फिर मजबूती से पकड़ लिया है। हरियाणा ही नहीं बीते तीन सालों के दौरान करीब आधा दर्जन राज्यों के चुनाव नतीजों से साफ है कि पुराने क्षत्रप ही कांग्रेस के संकटमोचक बन रहे हैं।
हरियाणा के नतीजों के बाद शायद इसीलिए भूपेंद्र सिंह हुड्डा को सूबे की कमान आखिरी समय में देने की कांग्रेस नेतृत्व की रणनीति पर सवाल उठाए जा रहे हैं। हाईकमान ने काफी मशक्कत के बाद हुड्डा को कमान तब सौंपी जब चुनाव में महीने भर का भी समय नहीं रह गया था। वैसे यह फैसला भी सोनिया गांधी के दुबारा अध्यक्ष बनने के बाद तब हुआ जब हुड्डा ने कांग्रेस छोड़ने तक की चेतावनी दे डाली। राहुल गांधी ने अध्यक्ष रहते हुए भूपेंद्र सिंह हुड्डा को सूबे की कमान सौंपने को तैयार नहीं थे। मगर हरियाणा के चुनाव में हुड्डा ने तमाम राजनीतिक पंडितों को गलत साबित करते हुए कांग्रेस के सीटों का आंकड़ा 30 के आंकड़ों को पार करा दिया। जबकि चुनाव से पहले ही नहीं मतदान के बाद खुद कांग्रेस के नेताओं की उम्मीद पार्टी का आंकड़ा बमुश्किल दोहरे अंकों तक पहुंचने से ज्यादा नहीं थी। मगर हुड्डा ने कुमारी शैलजा के साथ मिलकर महीने भर में ही पार्टी के ग्राफ को सत्ता की होड़ तक ला खड़ा किया है।
हरियाणा से पहले पड़ोसी राज्य पंजाब में भी 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं रही थी। पंजाब में आम आदमी पार्टी के बढ़ते ग्राफ की गूंज के बीच कैप्टन अमरिंदर ने अकाली-भाजपा के साथ आप की दोहरी चुनौती को धराशायी करते हुए कांग्रेस की जीत का परचम लहराया। वैसे कैप्टन अमरिंदर को भी कांग्रेस ने सूबे की चुनावी कमान बिल्कुल अंतिम में दिया और मुख्यमंत्री उम्मीदवार तो उन्हें चुनाव अभियान के दौरान घोषित किया गया। दिलचस्प यह है कि राहुल गांधी उस समय भी कैप्टन अमरिंदर को नेतृत्व सौंपने के पक्ष में नहीं थे। तब नाराज कैप्टन के अलग क्षेत्रीय पार्टी बनाने तक की अटकलें उड़ीं। उस वक्त भी सोनिया गांधी ने दखल देते हुए दस जनपथ में राहुल के साथ कैप्टन अमरिंदर की बैठक कराई और फिर उन्हें प्रदेश कांग्रेस की चुनावी बागडोर सौंपी गई। चुनाव नतीजों के बाद साफ हो गया कि कैप्टन की वजह से ही कांग्रेस को पंजाब की सत्ता मिली।
क्षेत्रीय नेताओं के सहारे गुजरात के 2017 के चुनाव में भाजपा को बेहद कांटे की टक्कर देने का अनुभव तो खुद राहुल गांधी ने सीधे महसूस किया। मगर 2018 में बात जब मध्यप्रदेश की आयी तो मामला एक बार फिर पुराने दिग्गजों और नयी पीढ़ी के नेतृत्व के बीच फंसा। इसीलिए मध्यप्रदेश में कमलनाथ को कांग्रेस का चेहरा बनाने में भी देरी हुई। लेकिन यहां भी दिग्गज कमलनाथ ने दूसरे क्षत्रप दिग्विजय सिंह को साथ लेकर भाजपा को शिकस्त देते हुए 15 साल बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी करायी।
छत्तीसगढ में भी पार्टी के पुराने भरोसेमंद नेता भूपेश बघेल पर दांव लगाना कांग्रेस के लिए फायदेमंद रहा। सूबे में 15 साल बाद पार्टी की सत्ता में वापसी ही नहीं हुई बल्कि भाजपा को सूबे में अपनी सबसे बुरी पराजय का सामना करना पड़ा। कर्नाटक में बेशक कांग्रेस को पिछले चुनाव में सत्ता गंवानी पड़ी मगर सिद्धारमैया की वजह से पार्टी राजनीतिक ताकत बरकरार रही है। शायद इसीलिए येदियुरप्पा सरकार बनने के बाद सोनिया गांधी ने सूबे के तमाम नेताओं के एतराज को दरकिनार करते हुए सिद्धारमैया को हाल ही में कर्नाटक में विपक्ष का नेता बना एक बार फिर क्षत्रप पर ही भरोसा करने का संदेश दिया। हुड्डा ने हरियाणा में कमाल दिखाकर पुराने क्षत्रपों के अब भी कांग्रेस के संकटमोचक बने रहने पर रही सही दुविधा को भी खत्म कर दिया है।