गुजरात में बदलाव के आसार नहीं, हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश के इस्तेमाल से चूक गई कांग्रेस
गुजरात में नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री के तौर पर अपने व्यक्तित्व को जितना बड़ा कर लिया है, उस लिहाज से विजय रुपाणी कमजोर नजर आते हैं।
नई दिल्ली [हर्षवर्धन त्रिपाठी] । किसी सरकार के खिलाफ एक कार्यकाल के बाद ही जिस तरह से लोगों का सत्ता विरोधी रुझान बन जाता है, उसमें 22 साल से एक ही पार्टी की सरकार के खिलाफ माहौल आसानी से बनता दिख जाता है। गुजरात का चुनावी माहौल कुछ ऐसा ही है। यही माहौल टीवी स्क्रीन पर ज्यादा तेज आवाज कर रहा है, लेकिन गुजरात में आने पर साफ दिखता है कि सामान्य तौर पर यहां गुजराती चुनाव को लेकर यूपी, बिहार की तरह अति उत्साह में नहीं है। हां यह जरूर है कि विजय रुपाणी की कमी के बारे में लोग खुलकर बोलते हैं। हालांकि यह बात भी बोलने में गुजराती थोड़ा समय लेते हैं, लेकिन एक बार खुले तो रुपाणी और मोदी के बीच बड़े फासले को भाजपा के लिए मुश्किल बताते हैं। मगर गुजरातियों को लगता है कि एक गुजराती देश का ताकतवर प्रधानमंत्री है। इस गुजराती प्रधानमंत्री की वजह से दुनिया में गुजरातियों की हैसियत बढ़ी है।
अल्पेश-जिग्नेश-हार्दिक की साझा ताकत और कांग्रेस
बहरहाल अल्पेश-जिग्नेश-हार्दिक की साझा ताकत को इस्तेमाल करने से कांग्रेस चूक गई है। यह बात भी गुजरात में घूमते हुए साफ समझ में आती है। अब गुजरात चुनाव के नतीजे ही तय करेंगे कि क्या अल्पेश-जिग्नेश-हार्दिक के नेतृत्व वाले समूहों के आपसी विरोध की वजह से ही तीनों एक साथ मिलकर कांग्रेस के साथ नहीं आ पाए। हार्दिक की उम्र चुनाव लड़ने की नहीं है, इसलिए सवाल है कि उनके पीछे खड़ी भीड़ किसे वोट करेगी? कुछ हद तक इसका जवाब नवरंगपुरा की दर्शन सोसायटी के सामने के सैलून में बाल कटाते मुङो मिला। मेरे यह कहने पर कि पाटीदार तो बहुत नाराज हैं, उनको भाजपा से कुछ मिला नहीं। जवाब आया- पाटीदारों को नहीं मिला तो मिला किसको? भाजपा के राज में पाटीदारों की हैसियत सबसे ज्यादा रही है। कारोबार से लेकर सरकार तक पाटीदारों को ही भाजपा के राज में तवज्जो मिली है। ऐसे में हार्दिक के साथ भीड़ तो इकट्ठा हो रही है, लेकिन सीधे तौर पर लाभ पाए इस समूह के लोग मतदान केंद्र में कमल के निशान को अनदेखा कर पाएंगे, ऐसा कहना मुश्किल है।
ये है गुजरात का दूसरा रूप
राज्य के स्थानीय चैनलों पर भाजपा और कांग्रेस के चुनाव प्रचार में 22 साल का राज ही प्रमुख है। भाजपा के चुनावी प्रचार कह रहे हैं कि भाजपा के राजनीतिक तौर पर मरने का मतलब होगा, गुजरात का गुजराती अस्मिता का मरना। कांग्रेस, 22 साल में भाजप सरकार क्या-क्या नहीं कर सकी है, उसको उभार रही है। मगर प्रचार अभियान पर जनता से बात करने पर एक बात जो समझ में आती है कि 22 सालों और खासकर 2002 के बाद मोदी की अगुवाई में भाजपा के राज में गुजरातियों की जीवनशैली में जो स्थिरता आई है, उसे तोड़ने की मन:स्थिति गुजरातियों की बनती नहीं दिख रही है। रात के 11 बजे महिलाएं जिस तरह से गुजरात के शहरों में अपने लिए खरीदारी करती नजर आ जाती हैं, वह दूसरे राज्यों के लिए कल्पना नहीं की जा सकती है। हां, सीधे तौर पर इसे कहा जा सकता है कि गुजरात में दंगे अब नहीं होते और गुजरात में सुरक्षा का अद्भूत भाव है। इसके खिलाफ दिल्ली में बैठकर सबसे बड़ा तर्क यही आता है कि गुजरात में मुसलमानों में जो असुरक्षा का भाव है, उसकी बात कोई नहीं करता।
सांप्रदायिक सद्भाव और मीडिया
2002 के दंगे दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक हैं। उस दौरान हिंदू-मुसलमान के बीच की खाई भी बढ़ी। मगर पिछले 15 सालों में हिंदू-मुसलमान की एक से ज्यादा पीढ़ियां बड़ी हो गई हैं और उनको मीडिया सतर्क न करे तो उनके लिए हिंदू-मुस्लिम विभाजन रोजमर्रा में लगभग न के बराबर है। हां, टीवी कैमरे की रोशनी में या फिर पत्रकार ने कुरेदकर सवाल पूछना शुरू किया तो तय जवाब ही मिलेंगे। इसका अहसास मुझे साबरमती रिवरफ्रंट पर हुआ। 2 दिसंबर की रात साढ़े दस बजे के आसपास रिवरफ्रंट के खानपुरा की तरफ मैं भी घूम रहा था। रिवरफ्रंट के बड़े इलाके में बड़े मजे से मुसलमान लड़के-लड़कियां और महिला-पुरुष घूमते-बैठे दिखे। मैं जानबूझकर मुसलमानों के वहां मस्ती करने की जिक्र कर रहा हूं। क्योंकि बार-बार कहा जाता है कि गुजरात के विकास में मुसलमानों की हिस्सेदारी बहुत कम है।
साबरमती रिवरफ्रंट, जीएसटी और आम गुजराती
साबरमती रिवरफ्रंट जिस तरह से लोगों की शाम तनाव मुक्त होने का जरिया बना है, इसे समझना चाहिए। यहां आने पर शाम हिंदू-मुसलमान या दूसरे लोगों की भी एक बराबर तनाव मुक्त हो रही है। ऐसा ही एक समूह मुङो मिला। मुस्तकीम और उसके दोस्त। स्कूटी पर सवार दरियापुर से मुस्तकीम और उसके 4 दोस्त साबरमती रिवरफ्रंट पर मस्त थे। मैंने पूछा, तो मुस्तकीम ने कहा कि लगभग हर रोज देर शाम वे यहां आते हैं। मुस्तकीम बीकॉम पहले वर्ष में है, साथ में अपने पिता के कपड़े की दुकान पर भी बैठता है। मैंने पूछा, धंधा कैसा चल रहा है। उसका जवाब आया- मस्त। मैंने पूछा- जीएसटी से दिक्कत, उसने कहा, हमें क्यों होगी। फिर मैंने कहा- इसे रिकॉर्ड कर लूं। उसने एक मिनट में यह बातें बताई। पढ़ाई भी करता हूं और पापा का शोरूम है, उसको भी देखता हूं। अच्छा चल रहा है, शुकर है। जीएसटी का हमको कहां से गड़बड़ होगी। हम तो रिटेल वाले हैं, हमको क्यों गड़बड़ होगी। हमें तो टैक्स मिल ही रहा है, हम तो जनता से टैक्स ले लेते हैं, हमें टेंशन ही नहीं है जीएसटी का। यह सब बहाना है, जीएसटी हटाने का। होलसेल, रिटेल सबको जीएसटी कनवर्ट हो जाता है। मैंने अपने फोन पर इसे रिकॉर्ड किया और बताया भी कि इसे यूट्यूब पर अपलोड करूंगा। 5 मिनट बाद मुस्तकीम अपने स्कूटी पर तेजी से हमारे पीछे आया और कहा, सर इसका कुछ गड़बड़ तो नहीं होगा। दरअसल, उसे थोड़ी देर बाद अपने दोस्तों से बात करके लगा होगा कि पत्रकार को तो सीधी-सच्ची बात बताना ही नहीं है।
गुजरात के चुनावों को कवर करने गए ज्यादातर पत्रकारों से मासूम-ईमानदार मुस्तकीम नहीं बल्कि सतर्क मुस्तकीम ही बात करने को मिल रहे हैं। मुस्तकीम से लेकर परेश भाई या फिर कोई बेन भी हो सकती हैं। सतर्क गुजरातियों से बात करके गुजरात का चुनाव नहीं समझ आने वाला। नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री के तौर पर अपने व्यक्तित्व को जितना बड़ा कर लिया, उस लिहाज से विजय रुपाणी कम जोर नजर आते हैं। कांग्रेस की तरफ से एक मजबूत नेता की कमी, विजय रुपाणी की कमजोरी को ढंक ले रही है। इसलिए मोदी के बदले हुए गुजरात को गुजराती 2017 में तो बदलता नहीं दिख रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)