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गुजरात की गद्दी के लिए दिलचस्प लड़ाई, राह नहीं है आसान

गुजरात चुनाव में सियासी हालात ऐसे बन चुके हैं कि भाजपा व कांग्रेस को बराबर पसीना बहाना पड़ रहा है

By Lalit RaiEdited By: Published: Wed, 15 Nov 2017 10:16 AM (IST)Updated: Wed, 15 Nov 2017 10:17 AM (IST)
गुजरात की गद्दी के लिए दिलचस्प लड़ाई, राह नहीं है आसान
गुजरात की गद्दी के लिए दिलचस्प लड़ाई, राह नहीं है आसान


अनंत मित्तल

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गुजरात में चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में लगातार चौथी बार भाजपा सरकार बनने की भविष्यवाणी के बावजूद चुनाव में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह उत्तर प्रदेश से भी अधिक मेहनत कर रहे हैं। उनके नेतृत्व में केंद्रिय मंत्रियों से लेकर राज्य के मंत्री, विधायक और तमाम पदाधिकारी दर-दर वोट मांग रहे हैं। इसे चुनाव को युद्ध की तरह लड़ने की शाह-मोदी शैली की उत्कृष्ट बानगी माना जाए अथवा अपने अस्तित्व की लड़ाई? अतिरिक्त सक्रियता कहीं उन्हीं चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में अपने गढ़ उत्तरी गुजरात में भाजपा का हिस्सा घटने की आशंका का नतीजा तो नहीं है? दो साल पहले हुए निकाय चुनावों में भी पाटीदार अनेक निकाय कांग्रेस को सौंप कर नाराजगी जता चुके हैं।


ऐसे में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की मुहिम कितनी कारगर हो पाएगी? सर्वेक्षणों में भाजपा के पाटीदार ही नहीं,कांग्रेस के आदिवासी वोट बैंक में भी सेंध लगाने की आशंका इस लोकतांत्रिक मुकाबले को दिलचस्प बना रही है। साफ है कि आगामी 9 और 14 दिसंबर को प्रस्तावित मतदान के लिए इस बार पक्ष-विपक्ष दोनों को ही महीना भर पसीना-पसीना होना पड़ेगा। भाजपा की अतिरिक्त सक्रियता शायद राज्य सरकार के साथ गुजराती अस्मिता के प्रतीक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी केंद्र सरकार की छवि भी दाव पर होने के कारण है। भाजपा के खिलाफ कांग्रेस ने अपना प्रमुख औजार जीएसटी और नोटबंदी को बनाया है। वहीं इन कार्यक्रमों को भाजपा अपनी उपलब्धि बता रही है, लेकिन कांग्रेस इनसे अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठने का आरोप लगा रही है। दोनों पक्षों द्वारा वैधानिक और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के आंकड़ों की जोर आजमाइश के बीच राज्य का व्यापारी बेहद परेशान है।

कांग्रेस, राज्य में पाटीदार आरक्षण और दलित उत्पीड़न विरोधी आंदोलन के जरिये बढ़त पाने के जुगाड़ में है। पाटीदार आंदोलन के अगुआ महज 24 साल के हार्दिक पटेल के पीछे उनकी बिरादरी के युवा डटे हुए हैं। 2015 में पुलिस गोलीबारी में दो दर्जन की मौत और हजारों पर मुकदमों से पटेल युवा आग बबूला हैं। हालांकि आनंदीबेन सरकार ने 2015 में सामान्य वर्ग के विद्यार्थियों के लिए वजीफे और सब्सिडी देने का नियम बना कर पाटीदारों को मनाने की कोशिश की। फिर आर्थिक पिछड़ों को सरकारी संस्थानों में दाखिले और सरकारी नौकरी में नियुक्ति में दस फीसद आरक्षण देने का कानून बनाया, लेकिन उस पर गुजरात हाईकोर्ट ने 2016 में ही रोक लगा दी। राज्य सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती देने के बावजूद पाटीदार भड़के हुए हैं। उन्हीं के सतत समर्थन से भाजपा की सत्ता गुजरात में अंगद के पांव की तरह दो दशक से जमी हुई है।

चुनाव पूर्व सर्वेक्षण विधानसभा चुनाव में पाटीदारों के गढ़ उत्तरी गुजरात की 53 सीट पर कांग्रेस को 49 फीसद और भाजपा को 44 फीसद वोट मिलने के आसार जता रहे हैं। इससे साफ है कि पाटीदार युवाओं के लिए अब अस्तित्व की लड़ाई शायद हिंदुत्व से कहीं अधिक अहम हो गई है। सरदार पटेल के कारण अपने पीछे चार दशक तक लामबंद रहे पाटीदारों का चुनावी समर्थन फिर से जुटाने की कांग्रेस जी-तोड़ कोशिश कर रही है मगर आरक्षण का कांटा उसके भी हलक में गड़ रहा है। पाटीदार 1985 में मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी द्वारा सामाजिक एवं आर्थिक रूप में पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में दस फीसद आरक्षण देने में खुद को नजरअंदाज किए जाने पर कांग्रेस से नाराज रहे हैं। हालांकि पाटीदार अब कांग्रेस से ही सौदेबाजी कर रहे हैं। कांग्रेस ने उन्हें बताया है कि विशिष्ट पिछड़ी जाति, आर्थिक दुर्बल वर्ग अथवा पिछड़ी जातियों की सूची बढ़ा कर आरक्षण दिया जा सकता है, लेकिन पाटीदारों को कांग्रेस पिछड़ा कतई घोषित नहीं कर सकती क्योंकि पिछड़ों के नेता अल्पेश ठाकोर राहुल गांधी का हाथ थाम कर कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। इसीलिए कांग्रेस ने बाकी दो वर्ग में आरक्षण की पेशकश की है।

इसलिए पाटीदारों द्वारा कांग्रेस का समर्थन अभी तक अनिश्चित है। हालांकि कुछ दक्षिणी राज्यों में आर्थिक आरक्षण मौजूद है। फिर भी सत्तारूढ़ होने पर कांग्रेस ने उन्हें आरक्षण दिया तो अन्य जातीय समूह भी इसके लिए सड़क पर आ जाएंगे। ठीक वैसे ही जैसे 1985 के चुनाव के बाद पाटीदार आंदोलन ने ‘खाम’ समीकरण के रचयिता मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी को गद्दी से हटाकर ही दम लिया था। इस बार पाटीदार अनामत आंदोलन समिति से पिछड़ों की गुजरात क्षत्रिय ठाकोर सेना के तालमेल के बावजूद अपने कोटे में बंटवारा उन्हें मंजूर नहीं है। राज्य में पिछड़ों की 40 फीसद जनसंख्या पाटीदारों की 14 फीसद आबादी से करीब तीन गुना है। उनकी 146 जातियां आरक्षित हैं। सेना के नेता अल्पेश ठाकोर ओएसएस एकता मंच के संयोजक भी हैं। इस मोर्चे में उना में दलितों की कथित गोरक्षकों द्वारा पिटाई के खिलाफ बना राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच भी शामिल है। इसके नेता, युवा वकील जिग्नेश मेवानी हैं जो कांग्रेस से पींग बढ़ा रहे हैं।

भाजपा की चिंता यह है कि राज्य में दलित और मुसलमान कथित गोरक्षकों की ज्यादती से एकजुट हो गए हैं, जबकि गुजरात दंगों से दलित भी मुसलमानों के खिलाफ भाजपा के समर्थक हो गए थे। जिग्नेश समर्थकों को कुछ सीट देकर कांग्रेस ने दलितों का समर्थन पाने की कोशिश की है। आदिवासी भी शामिल हैं, लेकिन चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में भाजपा के पक्ष में उनमें टूट का इशारा है। विधानसभा में नेता विपक्ष शंकर सिंह वाघेला सहित 14 विधायकों का कांग्रेस छोड़ना भी उसके लिए चुनौती है। वाघेला की अपने जनविकल्प मोर्चे में सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कांग्रेस की चुनावी बिसात को बिखरा सकती है।

भाजपा की ही नहीं बल्कि राजनीति में अनाड़ी मगर अपने समुदायों के चहेते युवा नेताओं हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश की तिकड़ी और उनके समर्थन की आकांक्षी कांग्रेस की भी यह अग्निपरीक्षा है। देखना है कि इन युवाओं के आंदोलन के बूते गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन से 1975 की तरह राज्य में सत्ता पलटेगी अथवा पारंपरिक मिजाज के गुजराती, प्रधानमंत्री मोदी की खातिर भाजपा का ही राज तिलक करेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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