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तेलंगाना की पांच सीटों पर सलवा जुड़ूम के विस्थापितों का असर

तेलंगाना के नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं बस्तर के आदिवासी। तेलंगाना के चुनाव का माहौल सीमावर्ती बस्तर में देखा गया।

By Hemant UpadhyayEdited By: Published: Sun, 09 Dec 2018 07:10 PM (IST)Updated: Sun, 09 Dec 2018 07:10 PM (IST)
तेलंगाना की पांच सीटों पर सलवा जुड़ूम के विस्थापितों का असर
तेलंगाना की पांच सीटों पर सलवा जुड़ूम के विस्थापितों का असर

रायपुर। तेलंगाना के चुनाव में बस्तर के सलवा जुड़ूम प्रभावित वोटरों का खासा असर दिखा। सलवा जुड़ूम के दौरान पुलिस और नक्सलियों के बीच फंसे आदिवासी सीमा पार करके आंध्रप्रदेश और तेलंगाना गए तो उन्‍हें लंबा संघर्ष करना पड़ा। इन विस्थापितों को शुरू में कोई मदद नहीं मिल पाई।

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सीमापार के जंगलों में गांव बसा चुके आदिवासियों को कई बार तेलंगाना और आंध्रप्रदेश के वन विभाग और पुलिस ने खदेड़ा। उनकी बस्तियां उजाड़ी गईं। अस्थाई झोपड़ों में बसे इन आदिवासियों को वहां सरकारी सुविधाओं का मोहताज होना पड़ा। लेकिन एक दशक के बाद अब बस्तर के आदिवासी तेलंगाना के चुनाव में प्रभावी भूमिका निभाते दिखे। 7 दिसंबर को तेलंगाना की 119 विधानसभा सीटों पर वोट डाले गए।

इनमें से पांच विधानसभा सीटें ऐसी रहीं जिनमें जुड़ूम विस्थापितों के वोट हार जीत का निर्णय कर सकते हैं।

कांग्रेस ने इसपर ध्यान दिया। तेलंगाना के चुनाव में कांग्रेस ने राज्य स्तर पर जो भी रणनीति बनाई हो, जुड़ूम प्रभावितों के लिए कोंटा के आदिवासी विधायक कवासी लखमा को गुपचुप सीमाई कस्बों में भेजा गया। लखमा वहां एक हफ्ते तक डटे रहे।

उन्होंने नईदुनिया से बताया कि वहां पांच विधानसभा सीटों पर करीब एक लाख वोटर हैं। लखमा का कहना है कि वहां हर विधानसभा सीट पर 20 से 25 हजार बस्तरिया वोटर हैं। सालों तक संघर्ष करने के बाद अब उनकी बस्तियों को वहां की सरकार ने मान्यता दे दी है। यहां के आदिवासियों के वहां वोटर कार्ड बन चुके हैं। पहली बार बस्तर के वोटरों ने तेलंगाना में वोट डाला। कांग्रेस को भरोसा है कि इनका वोट कांग्रेस को ही मिलेगा।

आंध्र और तेलंगाना में बड़े पैमाने पर पलायन

बस्तर के नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा, सुकमा और बीजापुर जिलों में वर्ष 2005-2010 के दौरान सलवा जुड़ूम अभियान बेहद प्रभावी रहा। इस दौरान करीब 644 गांवों को विस्थापित किया गया। बस्तर के इन तीन जिलों में जुड़ूम विस्थापितों के 42 कैंप सरकार ने खोले।

इन कैंपों में रह रहे आदिवासी पुलिस के साथ हो गए जबकि जो गांव में छूट गए उन्हें नक्सलियों का सहयोगी माना गया। जुड़ूम समर्थक ऐसे गांवों में जाते और ग्रामीणों को सरेंडर कराते। नक्सली भी इन्हीं ग्रामीणों पर संदेह करते कि वे पुलिस से मिल गए हैं। जुड़ूम के दौरान आदिवासियों पर अत्याचार के कई आरोप लगे। इससे परेशान होकर बस्तर के हजारों आदिवासी सीमा के उस पार चले गए।

भाषा, भूगोल और संस्कृति में समानता

बस्तर से सटे आंध्र और तेलंगाना के आदिवासी इलाकों की भाषा, भूगोल और संस्कृति में काफी समानता है। सीमा के दोनों ओर इन आदिवासियों की रिश्तेदारियां हैं। कांेटा इलाके में आदिवासी दोरली बोलते हैं जो तेलगू से मिलती-जुलती है। उस पार गए आदिवासियों ने अपने रिश्तेदारों से मदद मांगी और जंगलों में झोपड़ी बनाकर रहने लगे। शुरू में इन्हें शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सहूलियतों के लिए भी संघर्ष करना पड़ा पर अब इनमें अधिकांश वहां के नागरिक हो चुके हैं।

आंध्र की दो सीटों पर भी जुड़ूम वाले प्रभावी

तेलंगाना में भद्राचलम, एलेंदू, करीमनगर, वारंगल, खम्मम आदि जगहों पर जुड़ूम विस्थापितों की बस्तियां हैं। आंध्रप्रदेश में पूर्वी गोदावरी जिले के पोलावरम और चिंतूर विधानसभा सीटों पर इनका असर है। इन सभी जगहों पर जुड़ूम के करीब डेढ़ लाख विस्थापित निवासरत हैं।  


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