CG Election 2018: छत्तीसगढ़ में नेताओं की चिंता, आंदोलनों ने क्या गुल खिलाया
CG Election 2018 नेताओं के घरों से लेकर दफ्तरों तक और बाजार से लेकर चौक-चौराहों तक अब यही चर्चा है कि कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है।
रायपुर । छत्तीसगढ़ के चुनाव में चुनाव पूर्व हुए विभिन्न् संगठनों के आंदोलनों का मतदान में क्या असर हुआ होगा यह नेताओं की चिंता का विषय बन गया है। चुनावी साल में यहां पुलिस, नर्स, लिपिक, शिक्षाकर्मी, पंचायतकर्मी, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, किसान, आदिवासी समेत तमाम संगठनों ने सरकार की नाक में दम कर रखा था। सबको पता था कि चुनावी साल है तो यही मौका है जिसमें सरकार से मांगें मनवाई जा सकती हैं। सरकार कई मामलों में झुकी भी। शिक्षाकर्मियों का संवियिलन कर दिया।
आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का मानदेय बढ़ाया। सरकारी कर्मचारियों को त्रिस्तरीय वेतनमान देने का एलान किया। आदिवासियों की कुछ मांगों को पूरा किया। और भी कई काम किए। लेकिन सभी को संतुष्ट तो कोई नहीं कर सकता।
इधर इन संगठनों की नाराजगी विपक्ष के लिए हथियार बनती दिखी। कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों ने संविदाकर्मियों को नियमित करने, बचे हुए शिक्षाकर्मियों को भी सरकारी नौकरी देने जैसे वादे कर दिए। चुनाव के दौरान यह बड़े मद्दे बनते भले नहीं दिखे हैं लेकिन प्रचार में नेता इन वर्गों की मांगों का जिक्र जरूर करते रहे।
अब चुनाव खत्म हो गया है लेकिन नतीजे नहीं आए हैं। नेताओं के घरों से लेकर दफ्तरों तक और बाजार से लेकर चौक-चौराहों तक अब यही चर्चा है कि कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है। ऐसे में आंदोलनों का क्या असर हुआ होगा इसकी चर्चा लाजिमी है।
ताबड़तोड़ आंदोलनों ने बढ़ाईं थीं सरकार की मुश्किलें
छत्तीसगढ़ में यह चुनावी साल आंदोलनों के लिए याद रखा जाएगा। शिक्षाकर्मियों ने ऐसी मुहिम छेड़ी कि सरकार को उनका संविलियन करना ही पड़ गया। सरकार ने संविलियन किया तो यह शर्त लगा दी कि जिनकी आठ साल की सेवा पूरी हो चुकी है वे ही संविलियन के काबिल माने जाएंगे।
प्रदेश में एक लाख 80 हजार शिक्षाकर्मियों में से करीब एक लाख तीन हजार का संविलियन हो गया। अब विपक्ष के पास ज्यादा कुछ तो था नहीं, लेकिन जिन लगभग 75 हजार शिक्षाकर्मियों का संविलियन नहीं हुआ है उनका गुस्सा भुनाने की कोशिश जरूर की गई। चुनाव के पहले सरकारी कर्मचारियों ने भी बार-बार धरना प्रदर्शन किया और रैली निकाली।
उन्होंने चार स्तरीय वेतन की मांग की। मुख्यमंत्री ने यह मांग मान ली लेकिन अधिकारियों ने आदेश निकाल तीन स्तरीय वेतनमान का। कर्मचारियों के महंगाई भत्ते और सातवें वेतनमान के एरियर्स के भुगतान की मांगों पर भी बहुत कुछ देने के बाद भी गतिरोध आचार संहिता लगने तक बना रहा था।
कोटवार संघ, रसोइया संघ, तेंदूपत्ता फड़ मुंशी संघ जैसे और भी तमाम संगठनों ने चुनाव से पहले अपनी मांगों को मनवाने की कोशिश की थी। इन सबका क्या असर होगा यह देखना रोचक हो सकता है।
अनियमित कर्मचारियों के वोट किसे
प्रदेश में डेढ़ लाख अनियमित कर्मचारियों ने आंदोलन छेड़ा लेकिन सरकार इनके आंदोलन पर चुप ही रही। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में वादा कर दिया कि उनकी सरकार आई तो सभी को नियमित कर दिया जाएगा। अब कांग्रेसी दावा कर रहे हैं कि इनके वोट तो हमें ही मिले होंगे जबकि भाजपा को उम्मीद है कि जैसे सबकी मांगे पूरी हुई वैसे ही हम आएंगे तो इनकी मांगों पर भी विचार कर लेंगे।
आदिवासी आंदोलन का प्रभाव कितना
चुनाव के पहले पांचवीं अनुसूची और पेसा कानून समेत कई दूसरे मुद्दों पर आदिवासी भी आंदोलित रहे। आदिवासियों को अपने पक्ष में रखने की जुगत सभी दलों ने की है। प्रदेश में 33 फीसद आदिवासी हैं जो किसी भी दल की सरकार बनाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। सरकार ने आदिवासियों के हित में किए गए काम गिनाए हैं। अब देखना है कि ये किसके पाले में जाते हैं।
किसानों का मुद्दा सबसे बड़ा
सबसे बड़ा आंदोलन किसानों का हुआ था। किसानों की मांग थी कि समर्थन मूल्य बढ़ाया जाए। कर्जमाफ किया जाए, बोनस दिया जाए। चुनाव से पहले सरकार ने बोनस देना शुरू किया। हालांकि विपक्ष ने किसानों को धान का समर्थन मूल्य 25 सौ देने की बात की है। किसान जिसके पाले में जाएंगे सरकार उसी की बनेगी यह तो तय ही है।