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    Bihar election 2025: एग्जिट पोल्स में जनसुराज शून्य की ओर, जानें पीके की असफलता की 11 बड़ी वजहें

    Updated: Wed, 12 Nov 2025 12:54 PM (IST)

    Bihar Vidhan sabha chunav 2025 के एग्जिट पोल्स में प्रशांत किशोर (PK) की जनसुराज पार्टी (JSP) को 0-2 सीटें का अनुमान लगा है, जो बड़ा झटका है। वोट प्रतिशत भी खास नहीं रहनेवाला है। एनडीए की मजबूत वापसी के बीच जेएसपी की शुरुआती हाइप ध्वस्त हुई। विश्लेषकों ने ग्रामीण पहुंच की कमी, संगठन की कमजोरी और पीके का खुद चुनाव न लड़ना सहित विफलता के कई कारण बताए। Election results में वोटकटवा जरूर हो सकते हैं। आंख खोलनेवाली रिपोर्ट।

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    जनसुराज को एग्जिट पोल्स से झटका: पीके का 'प्रयोग' विफल?

    डॉ चंदन शर्मा, पटना। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के एग्जिट पोल्स ने प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी (जेएसपी) को बड़ा झटका दिया है। लगभग सभी प्रमुख एग्जिट पोल्स, जैसे एक्सिस माई इंडिया, सी-वोटर, चाणक्य और मैट्रिज में पार्टी को 0-2 सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया है, जबकि वोट शेयर 10-12% के आसपास रह सकता है।

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    पोल ऑफ एग्जिट पोल्स में भी जनसुराज को नगण्य प्रदर्शन दिखाया गया है। यह एनडीए की मजबूत स्थिति के बीच पार्टी की शुरुआती हाइप को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है। सट्टा बाजार में भी जनसुराज को कोई बड़ा प्रभाव नहीं मिला, जहां एनडीए को 135-160 सीटों के साथ सत्ता में वापसी की भविष्यवाणी की गई है।

    चुनाव के पहले चरण के बाद सोशल मीडिया पर पार्टी की चर्चा तेज हुई, लेकिन इंफ्लूएंसर्स और ऑनलाइन कमेंट्स में इसे फ्लॉप करार दिया जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह प्रदर्शन जनसुराज की रणनीति पर सवाल खड़े करता है। राजनीतिक विश्लेषक ओमप्रकाश अश्क कहते हैं, जनसुराज की असफलता बिहार की जातीय राजनीति की जड़ों को दर्शाती है। बिना मजबूत स्थानीय आधार के कोई नई पार्टी यहां टिक नहीं सकती।

    पीके के साथ लंबे समय से काम कर रहे एक साथी ने बताया कि टिकट वितरण सही से ना होना और जमीन पर संगठन नहीं होना महत्वपूर्ण कारक रहा है। जन सुराज का संगठन खड़ा करने वाले लोगों को टिकट ना मिलना, पैरासूट लैंडिंग कर सीधे टिकट दे देने से नाराजगी बढ़ी। कार्यकर्ताओं ने क्षेत्र में चुनाव के दौरान साथ नहीं दिया। पीके से कई लोगों ने पैसे लेकर गलतफहमी बनाई रखी। कुछ लोगों ने सही फीडबैक भी उन तक पहुंचने नहीं दिया।

    राजनीतिक टिप्पणीकार डॉ शोभित सुमन का कहना है, प्रशांत किशोर की रणनीति युवाओं पर केंद्रित थी, लेकिन सोशल मीडिया की हाइप रीयल वोटों में नहीं बदली। यह बिहार में डिजिटल वर्सेज ग्राउंड रियलिटी का क्लासिक उदाहरण है। पार्टी की स्थापना से लेकर चुनावी मैदान तक की यात्रा में कई चुनौतियां सामने आईं, जिन्होंने इसे फ्लॉप शो बना दिया।

    इन 11 वजहों से समझें, क्यों पीके प्रयोग विफल रहा

    1. ग्रामीण इलाकों में कम पहचान और जागरूकता: बिहार की अधिकांश आबादी ग्रामीण है, लेकिन यहां जनसुराज की पहुंच सीमित रही। कई ग्रामीण मतदाताओं ने पार्टी के चुनाव चिह्न और उम्मीदवारों को नहीं पहचाना, जिससे वोट ट्रांसफर नहीं हो सका।

    2. अनटेस्टेड पार्टी के रूप में देखा जाना: मतदाता जनसुराज को एक 'अनटेस्टेड वैरिएबल' मान रहे हैं। वे अपने वोट को बर्बाद करने से डरते हैं और अगले चुनाव तक इंतजार करने को तैयार हैं, ताकि पार्टी की विश्वसनीयता साबित हो सके।

    3. प्रशांत किशोर का खुद चुनाव न लड़ना: पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने खुद चुनाव नहीं लड़ा, जिससे मतदाताओं में निराशा फैली। कई लोगों का मानना है कि अगर नेता खुद मैदान में नहीं उतरता, तो पार्टी को गंभीरता से क्यों लिया जाए। यह एक बड़ा नेगेटिव फैक्टर साबित हुआ।

    4. बीजेपी की बी-टीम के रूप में नकारात्मक छवि: विपक्षी दलों ने जनसुराज को बीजेपी की बी-टीम करार दिया, जिससे मतदाताओं में संदेह पैदा हुआ। कई सोशल मीडिया पोस्ट्स में इसे एनडीए वोटों को बांटने वाली स्पॉइलर पार्टी बताया गया।

    5. उम्मीदवारों का नामांकन वापस लेना और दबाव: चुनाव के दौरान कम से कम तीन उम्मीदवारों ने नामांकन वापस लिया, जिसे प्रशांत किशोर ने बीजेपी के दबाव का नतीजा बताया। इससे पार्टी की आंतरिक कमजोरी उजागर हुई और कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा।

    6. जातीय राजनीति का प्रभुत्व: बिहार में चुनाव जाति पर आधारित होते हैं, न कि विचारधारा पर। जनसुराज की अपील जातीय समीकरणों को तोड़ नहीं सकी, क्योंकि मतदाता परिवार और समुदाय की लाइनों पर वोट करते हैं।

    7. द्विध्रुवीय मुकाबले में जगह न बन पाना: बिहार की राजनीति एनडीए और महागठबंधन के बीच द्विध्रुवीय है। जनसुराज तीसरा मोर्चा बनने की कोशिश में थी, लेकिन पारंपरिक वोट बैंक की मजबूती ने इसे सीमित कर दिया।

    8. सरकारी योजनाओं का प्रभाव: नीतीश कुमार की सरकार की योजनाएं जैसे महिलाओं को पैसे ट्रांसफर, बुजुर्गों की पेंशन बढ़ाना और मुफ्त बिजली ने महिलाओं और मध्यम आयु वर्ग को एनडीए की ओर खींचा, जिससे जनसुराज का युवा आधार कमजोर पड़ा।

    9. स्थानीय नेतृत्व की कमी: पार्टी में राजनीतिक समझ वाले लोकप्रिय स्थानीय चेहरों की कमी रही। मतदाता सांप्रदायिक मुद्दों से ज्यादा प्रभावित होते हैं, और जनसुराज इस पर मजबूत स्टैंड नहीं ले सकी।

    10. सोशल मीडिया और इंफ्लूएंसर्स पर ज्यादा भरोसा: जनसुराज ने अपनी रणनीति में सोशल मीडिया और इंफ्लूएंसर्स पर अत्यधिक निर्भरता दिखाई, लेकिन बिहार के ग्रामीण मतदाताओं तक यह पहुंच नहीं बना सका। ऑनलाइन हाइप रीयल ग्राउंड सपोर्ट में नहीं बदली, जिससे युवा वोटर्स में शुरुआती उत्साह फीका पड़ गया और एग्जिट पोल्स में पार्टी को नुकसान हुआ।

    11. बूथ पर कोई पकड़ नहीं होना: चुनाव सिर पर था और जन सुराज अंतिम समय तक अपने बीएलए को ही ढूंढ रही थी। जो बीएलए बनाये भी गए, उनमें पार्टी के प्रति समर्पण की कोई भावना ही नहीं दिखी। इन्हें बूथ तक पहुंचने के लिए पीके की टीम सुबह चार बजे से ही बीएलए को फ़ोन करना शुरू कर देती थी, बावजूद सैकड़ों ऐसे बूथ पाए गए, जहां जन सुराज का BLA दिखा ही नहीं।

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    फोटो: औरंगाबाद के गोह में चुनाव से तीन दिन पहले जनसुराज के दफ्तर में खाली पड़ी कुर्सियां, जबकि 100 मीटर की दूरी पर एनडीए और महागठबंधन में रौनक थी। जागरण 

    सोशल मीडिया के हवाबाज ले डूबे

    कुछ विश्लेषकों का मानना है कि 8-10% वोट शेयर जनसुराज को भविष्य में मजबूत बना सकता है। इंटरनेट मीडिया के एक्सपर्ट व राजनीतिक विश्लेषक राजेश यादव कहते हैं, पीके को जमीन पर संगठन मजबूत करना होगा। सोशल मीडिया की हवाबाजी को वोट में कंवर्ट नहीं करा सकते। इमोशन कनेक्ट जमीन पर काम करने से ही मिलेगा।

    एक सच यह भी है कि पीके को सीटें भलें न मिले, वे एनडीए-महागठबंधन की टाइट फाइट वाले सीट में हार-जीत का फैक्टर जरूर बनेंगे। कम मार्जिन वाली सीटों में कई जगह वोट काट कर जनसुराज बड़े दलों व प्रत्याशियों को झटका दे सकता है। 

    आगे अगर पार्टी रोजगार और प्रवासन जैसे जमीनी मुद्दों पर फोकस रखे तो सफलता मिल सकती है। फिलहाल चुनाव परिणाम 14 नवंबर को आएंगे, जो पार्टी की किस्मत तय करेंगे। जनसुराज की यात्रा से साफ है कि बिहार की राजनीति में नया चेहरा लाना आसान नहीं।