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बिहार विधानसभा चुनाव 2020 : रोजी-रोटी की तलाश में फिर लौटने लगे प्रवासी, मतदान प्रतिशत पर पड़ेगा असर

कोसी के मजदूर रोजगार की तलाश में बराबर पंजाब दिल्ली हरियाणा जैसे राज्यों की ओर पलायन कर जाते हैं। पेट के चलते यह बूढ़े माता-पिता व छोटे बच्चों की परवाह किए बगैर बाहर रहकर समय काटते हैं। इस बार भी चुनाव के बावजूद वे लोग लौटने लगे हैं।

By Dilip ShuklaEdited By: Published: Sat, 03 Oct 2020 07:34 PM (IST)Updated: Sat, 03 Oct 2020 07:34 PM (IST)
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 : रोजी-रोटी की तलाश में फिर लौटने लगे प्रवासी, मतदान प्रतिशत पर पड़ेगा असर
प्रवासी मजदूरों को लेकर पंजाब रवाना होती बस

सुपौल [सुनील कुमार]। पेट की समस्या के आगे ना कोरोना संक्रमण का भय है और ना ही लोकतंत्र के महापर्व की फिक्र। जिनकी यह समस्या है ऐसे लोगों के पांव चाहते हुए भी रुक नहीं रहे हैं। रोजी-रोटी की तलाश उन्हें अन्य राज्यों को जाने वाली बसों पर बैठने को मजबूर कर रही है। इससे गांव सूने हो रहे हैं।

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दरअसल, कोसी का यह इलाका कृषि प्रधान क्षेत्र माना जाता है। यहां के गरीबों की आजीविका मजदूरी पर ही निर्भर करती है। यहां के मजदूर रोजगार की तलाश में बराबर पंजाब, दिल्ली, हरियाणा जैसे राज्यों की ओर पलायन कर जाते हैं। पेट की आग बुझाने के चलते यह बूढ़े माता-पिता व छोटे बच्चों की परवाह किए बगैर बाहर रहकर समय काटते हैं, मजदूरी करते हैं।

घर लौटने की खुशी हुई काफूर

कुछ दिन पहले की ही बात है जब देश में कोरोना ने दस्तक दिया। लोग इस बीमारी के आगोश में आने लगे। इस महामारी ने ऐसा पासा पलटा कि रोजी-रोटी को छोड़ लोग अपने अपने घर वापस लौटने को मजबूर हो गए। घर वापस लौटे लोगों के चेहरों पर खुशी थी। उन्हें लग रहा था कि अब वे कोरोना से बच गए और अपने लोगों के साथ रह रहे हैं। परंतु पेट की आग के आगे यह खुशी काफूर हो गई। कोरोना संक्रमण के बावजूद उनके पांव अपनों से दूर बढ़ाने को ले मजबूर करने लगा। नतीजा है कि लोगों के परदेस जाने का सिलसिला इस कदर है कि हर दिन किसी न किसी गांव से बसें खुल रही है।

कहते हैं स्वजन

पिपरा प्रखंड की थुमहा पंचायत स्थित अनुसूचित जाति टोला की समतोलिया देवी कहती हैं कि उनका 10 सदस्यों का परिवार है। दो बेटा और पति कमाने वाला है। तीनो लॉकडाउन में घर वापस आए थे सप्ताह दिन पहले तीनों परदेस कमाने चले गए। यह पूछने पर कि कोरोना और चुनाव का समय है तो कहा कि आखिर हम गरीबों के जीवन का मोल ही क्या है । गांव में रोजगार नहीं है। यहां रहेंगे तो रोटी कहां से चलेगी। 70 वर्षीय कारी सादा ने कहा कि उनका दो बेटा और दो पोता परसों ही बाहर गए हैं। वे ही नहीं बल्कि उनसे पहले भी काफी मजदूर बाहर चले गए। महज 10 दिनों में इस मोहल्ले के करीब तीन सौ लोग बाहर गए हैं। महिचंदा गांव के महेंद्र पासवान, सरोज राम, दुखा पासवान ने बताया कि उनलोगों के घर का चूल्हा परदेस की कमाई से जलता है। आखिर कब तक कोरोना से डरते। भूखे भी तो मर ही जाते। माना कि सरकार ने विकास किया लेकिन पानी, बिजली, सड़क से रोजी रोटी तो नहीं मिल सकती।


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