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Bihar Assembly Election 2020: अल्पसंख्यक बहुल किशनगंज बना प्रयोगशाला, चार मोर्चे हो गए तैयार

किशनगंज में एनडीए व महागठबंधन के अलावा ओवैसी की इंट्री के बाद अब पप्पू यादव का प्रगतिशील लोकतांत्रिक गठबंधन और लोजपा भी अपने प्रत्याशी को मैदान में उतारेगी। खासकर चुनाव दर चुनाव ओवैसी की मजबूत बनती जा रही पकड़ से मोदी विरोध की राजनीति भी कमजोर पड़ती दिख रही है।

By Dilip Kumar ShuklaEdited By: Published: Sat, 17 Oct 2020 05:08 PM (IST)Updated: Sat, 17 Oct 2020 05:08 PM (IST)
Bihar Assembly Election 2020: अल्पसंख्यक बहुल किशनगंज बना प्रयोगशाला, चार मोर्चे हो गए तैयार
कोसी-सीमांचल की राजनीति मोदी विरोध की राजनीति को धार देती रही है।

किशनगंज, जेएनएन। अल्पसंख्यक बहुल किशनगंज जिला राजनीति का प्रयोगशाला बन चुका है। 2014 में मोदी विरोध का एजेंडा सेट होने के बाद ओवैसी की पार्टी को मिली जीत से हर दल इस इलाके का रुख कर रहे हैं। एनडीए व महागठबंधन के अलावा ओवैसी की इंट्री के बाद अब पप्पू यादव का प्रगतिशील लोकतांत्रिक गठबंधन और लोजपा भी अपने प्रत्याशी को मैदान में उतारेगी। खासकर चुनाव दर चुनाव ओवैसी की मजबूत बनती जा रही पकड़ से मोदी विरोध की राजनीति भी कमजोर पड़ती दिख रही है।

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दरअसल कोसी-सीमांचल की राजनीति मोदी विरोध की राजनीति को धार देती रही है। 2014 के आम चुनाव में मोदी लहर को थाम कर इस इलाके ने एक मजबूत राजनीतिक संदेश दिया था। उसे देखते हुए बिहार में महागठबंधन की नींव पड़ी थी और 2015 के विधानसभा चुनाव में राजग को उसका खामियाजा भुगतना पड़ा था। लेकिन इस बार मोदी विरोध की राजनीति को धार देने वाला समीकरण पूरी तरह उलझ चुका है। अल्पसंख्यक बहुल सीटों पर औवैसी जरूर मजबूत दस्तक दे रहे हैं। वहीं लोजपा के अलग चुनाव लडऩे से भी समीकरण बदलता जा रहा है।

2014 में सीमांचल ने ही सेट किया था एजेंडा -

2014 के आम चुनाव में पूरा देश खाासकर बिहार जहां मोदी की लहर पर सवार हुआ था। वहीं सीमांचल ने मोदी की लहर को थाम कर पूरे देश को अलग संदेश दिया था। सीमांचल की राजनीति इस कदर करवट ली थी कि अररिया, पूर्णिया और कटिहार की सिङ्क्षटग सीट भी बचाने में भाजपा विफल हो गई। दूसरी तरफ सियासत का ऐसा ताना बाना बुना गया कि सीमांचल में किसी एक पार्टी या गठबंधन को तो नहीं बल्कि मोदी विरोध में डटे अलग-अलग पार्टियों के मजबूत प्रत्याशी को जनता का भरपूर समर्थन मिला। लिहाजा किशनगंज से कांग्रेस, कटिहार से एनसीपी, पूर्णिया से जदयू व अररिया से राजद के सांसद चुने गए। यहीं से मोदी विरोाध का एजेंडा सेट हुआ जो देश भर में विपक्षी दलों को एकजुट करने का सूत्रधार बना। 2015 में भी इसी एजेंडा के तहत महागठबंधन ने कोसी-सीमांचल में भाजपा को करारी शिकस्त दी थी।

ओवैसी की मजबूत होती पकड़ से ढ़ीली पड़ रही मोदी विरोधी की सियासत-

2014 के चुनाव परिणाम को देख हैदराबाद सांसद असदउद्दीन ओवैसी ने सीमांचल का रुख किया। 2015 के विधानसभा चुनाव अल्पसंख्य बहुल छह सीटों पर प्रत्याशी खड़ा कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। हालांकि कोचाधामन सीट को छोड़ अन्य जगहों पर इनके प्रत्याशी कुछ खास नहीं कर पाए। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में इन्हीं छह विधानसभा सीटों की बदौलत पार्टी तीसरे स्थान पर रही और वोट सीधा 80 हजार से पौने तीन लाख पहुंच गया। फिर उपचुनाव में किशनगंज सीट पर कब्जा के बाद ओवैसी की सीमांचल की राजनीति में मजबूत पकड़ बनती दिखाई दे रही है। इलाके के अल्पसंख्यक बहुल सीटों पर वे चुनाव लडऩे का ऐलान भी कर चुके हैं। लिहाजा ओवैसी के मजबूत दखल से मोदी विरोध की राजनीति ढ़ीली परती दिखाई दे रही है।


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