राज्य में पंचायत चुनाव में गड़बड़ी और हिंसा को लेकर मामला शांत होने का नाम नहीं ले रहा है। विपक्षी दलों के इसे लेकर कोर्ट में जाने से मामला और पेचीदा हो गया है। कोर्ट के निर्देश पर राज्य चुनाव आयोग को अब नए सिरे से चुनाव की तिथि की घोषणा करनी पड़ी। राज्य चुनाव आयोग के इतिहास में यह पहला मामला है जब चुनाव आयोग जैसे एक संवैधानिक संस्था की इतनी किरकिरी हुई है, लेकिन सवाल यह है कि ऐसी स्थिति आई क्यों और इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने नामांकन के दौरार्न हिंसा और पंचायत चुनाव को लेकर जो गतिरोध पैदा हुआ है उस पूरी स्थिति पर चिंता जताई है। चटर्जी पूर्व लोकसभा अध्यक्ष के साथ-साथ प्रख्यात अधिवक्ता व कानूनविद् हैं और लंबे समय तक कम्युनिस्ट नेता के रूप में सक्रिय रहे हैं। चटर्जी ने राज्य की वर्तमान स्थिति खासकर पंचायत चुनाव के नामांकन में हिंसा और आतंक को देखते हुए यह भी कहा है कि राज्य में राष्ट्रपति शासन की चर्चा करने का समय आ गया है। जिस तरह विपक्षी दलों को नामांकन पत्र दाखिल करने नहीं दिया जा रहा है उससे तो यही साबित होता है कि राज्य में लोकतांत्रिक माहौल नहीं है।

लोकसभा अध्यक्ष रहने के दौरान पार्टी के निर्देशों का पालन नहीं करने पर माकपा ने चटर्जी को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। सोमनाथ अब किसी पार्टी में नहीं है। इसलिए उनकी चिंता दलगत भावना से ऊपर और स्थिति की अनुकूल मानी जाएगी। ऐसा मानना भी ठीक नहीं होगा कि चटर्जी ने किसी व्यक्तिगत द्वेष से अपनी चिंता जाहिर की है। उन्होंने तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का नाम लेते हुए यह भी कहा है कि उनको व्यापक समर्थन प्राप्त है। इस तरह आतंक और हिंसा फैलाने पर पुलिस और प्रशासन की भूमिका संदेह के घेरे में है। राज्य चुनाव आयोग भी कठघरे में है। चटर्जी ने राज्य की वर्तमान परिस्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए एक तरह से ममता को सुझाव भी दिया है। यदि यही स्थिति रही तो विपक्षी दलों को आगे चलकर राष्ट्रपति शासन लागू कर लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने की मांग करने का मौका मिल जाएगा। चटर्जी ने अपनी चिंता से भविष्य की ओर भी संकेत किया है। इसे सरकार को गंभीरता से लेकर लोकतांत्रिक माहौल सुनिश्चित करने की दिशा में सोचना चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय: पश्चिम बंगाल ]