निर्वाचन आयोग की ओर से पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा के बाद राजनीतिक हलचल में और तेजी आना स्वाभाविक है, लेकिन मौजूदा माहौल में इसकी आशंका अधिक है कि यह हलचल सियासी कलह को बढ़ाने का काम न करे। चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों के बीच नोंकझोंक और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला बढ़ना समझ में आता है, लेकिन अगर चुनावी प्रचार स्तरहीन राजनीति का पर्याय बन जाए तो वह न तो लोकतंत्र के लिए शुभ होता है और न ही राजनीति के लिए। विडंबना यह है कि अब मूल्यों, मर्यादा और शुचिता की राजनीति के लिए स्थान दिन-प्रतिदिन कम होता चला जा रहा है।

स्तरहीन राजनीति को थामने का काम मुख्यत: राजनीतिक दलों को ही करना चाहिए, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि उनकी ओर से ऐसी कोई पहल होगी। नि:संदेह निर्वाचन आयोग से यह अपेक्षा की जाती है कि वह चुनावी राजनीति के स्तर में एक सीमा से अधिक गिरावट न आने दे, लेकिन उसके सीमित अधिकारों को देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि वह तू-तू मैं-मैं की राजनीति को रोकने में समर्थ साबित हो सकता है। जिन पांच राज्यों में चुनावों की तिथि घोषित हो गई है वे भाजपा के साथ-साथ उसके विरोधी दलों की भी लोकप्रियता की परीक्षा का जरिया बनेंगे। दोनों ही पक्षों पर बेहतर चुनावी प्रदर्शन का दबाव है।

राष्ट्रीय दलों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो इन पांच राज्यों में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। यदि वह इनमें से किसी भी राज्य में सत्ता हासिल कर लेती है अथवा सत्ता के करीब पहुंच जाती है तो उसके लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी। भाजपा के समक्ष चुनौती यह है कि वह मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अपनी सत्ता कैसे बरकरार रखे। चूंकि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में वह एक लंबे अर्से से काबिज है इसलिए कांग्रेस इन दोनों राज्यों में अपने लिए अवसर देख रही है। वह ऐसा ही अवसर राजस्थान में खास तौर पर इसलिए देख रही है कि इस राज्य में हर पांच साल बाद सत्ता में परिवर्तन होता चला आ रहा है।

तेलंगाना में कांग्रेस और भाजपा, दोनों को ही तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख एवं मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव की लोकप्रियता से जूझना होगा। चुनाव नतीजे कुछ भी हों, लेकिन चंद्रशेखर राव ने समय से पहले चुनाव मैदान में जाकर यह साफ संकेत दिया है कि वह फिर से सत्ता हासिल करने के प्रबल दावेदार हैं।

जहां तक मिजोरम की बात है तो भले ही राष्ट्रीय राजनीति में पूर्वोत्तर के इस राज्य का चुनाव वाले अन्य राज्यों जितना राजनीतिक महत्व न हो, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि भाजपा यहां खुद को सत्ता के प्रबल दावेदार के तौर पर पेश कर रही है। चूंकि पूर्वोत्तर में यही एक अकेला ऐसा राज्य शेष है जहां भाजपा अथवा उसके सहयोगी दल सत्ता में नहीं हैं इसलिए यहां के चुनाव में शेष देश की भी दिलचस्पी होगी।

पांच राज्यों के चुनावी कार्यक्रम की घोषणा करते हुए निर्वाचन आयोग ने निष्पक्ष और साफ-सुथरे चुनाव कराने की घोषणा की है, लेकिन राजनीति एवं चुनाव से जुड़े सुधारों के अभाव में आयोग की चुनौतियां बढ़ती चली जा रही हैं।