इसमें दोराय नहीं कि अयोध्या विवाद के समाधान में देरी हो रही है और हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई अगले साल जनवरी तक टालकर शीघ्र फैसले की उम्मीदों पर पानी भी फेर दिया है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मंदिर निर्माण के प्रबल आकांक्षी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की जाए। संघ के सर कार्यवाह भैय्या जी जोशी की ओर से जिस तरह यह कहा गया कि अगर जरूरत पड़ी तो 1992 की तरह का आंदोलन फिर से चलाया जाएगा उससे तो यही ध्वनित होता है कि सरकार से ऐसे समय हस्तक्षेप चाहा जा रहा है जब उसके लिए ऐसा करना कहीं ज्यादा मुश्किल है। पहला सवाल तो यही उठेगा कि आखिर चार साल तक इस मामले की सुध क्यों नहीं ली गई और वह भी तब जब अयोध्या में मंदिर निर्माण भाजपा के एजेंडे में था? आम चुनाव के ठीक पहले किसी तरह की कानूनी पहल की व्याख्या इस रूप में भी होगी कि महज चुनावी लाभ लेने की दृष्टि से ऐसा किया जा रहा है। यह बात और है कि ऐसी व्याख्या करने में माहिर विपक्षी दल तब भी भाजपा पर तंज कसते हैं जब वह राम मंदिर निर्माण की बात नहीं करती। अयोध्या में मंदिर निर्माण के आकांक्षी यह भी ध्यान रखें कि परिपाटी यही है कि जो मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचाराधीन हो उस पर कानून बनाने अथवा अध्यादेश लाने से बचा जाता है। जो लोग राम मंदिर निर्माण के लिए कानून का सहारा लेने की मांग कर रहे है उन्हें इससे भी अवगत होना चाहिए कि अगर कानून का सहारा लिया जाता है तो उसे भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।

हालांकि संघ ने यह स्पष्ट नहीं किया कि जरूरत पड़ने पर आंदोलन छेड़ने से उसका आशय क्या है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आज केंद्र के साथ ही उत्तर प्रदेश में भी भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारें हैं। क्या यह आंदोलन इन्हीं सरकारों पर दबाव बनाने के लिए होगा? सवाल यह भी है कि जब देश आम चुनाव के मुहाने पर है तब राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन छेड़ना कितना उचित होगा? नि:संदेह ऐसे सवालों के बीच यह सवाल भी अपनी जगह है कि आखिर अयोध्या मामला सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता में क्यों नहीं है? इस मसले पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आए आठ साल बीत गए और फिर भी इसका अता-पता नहीं कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई कब करेगा? नि:संदेह ऐसे तर्को के लिए कोई बहुत अधिक गुंजाइश नहीं है कि चुनाव के वक्त अयोध्या मामले पर फैसला देना सही नहीं होगा, क्योंकि अदालतें यह नहीं देखतीं कि उनके फैसलों के वक्त कहीं चुनाव हो रहे हैं या नहीं? अयोध्या मामले में फैसला सुनाने में जरूरत से ज्यादा देरी के बावजूद उचित यही है कि जब इतनी प्रतीक्षा की गई है तब फिर कुछ दिन और इंतजार किया जाए। केवल इंतजार ही नहीं किया जाए, बल्कि सभी की ओर से यह कोशिश भी की जाए कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कैसे सद्भाव के माहौल में अमल किया जाए?