राज्य का बड़ा भूभाग पिछले करीब दो हफ्ते से बाढ़ की विभीषिका झेल रहा है। इस सालाना आपदा ने वर्ष 2008 के बाद इस साल सर्वाधिक जन-धन की हानि की हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि ऐसी भयावह बाढ़ उन्होंने अपने जीवन में कभी नहीं देखी। मुख्यमंत्री लगभग रोज सड़क मार्ग या हेलिकॉप्टर से बाढग़्रस्त इलाकों में जा रहे हैं, पीडि़तों से मिल रहे हैं, शिविरों में उनके लिए आवासीय, खानपान और चिकित्सा सूुविधाओं का जायजा ले रहे हैं। मुख्यमंत्री खुद सामुदायिक रसोइयों में झांककर खाने की गुणवत्ता परख रहे हैं। बाढ़ की भयावहता देखते हुए 26 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी बिहार आ रहे हैं। वह भी बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का सर्वे करेंगे। कह सकते हैं कि इस बड़े संकट की घड़ी में राज्य सरकार की ओर से यथासंभव कारगर इंतजाम किए गए हैं। बहरहाल, बाढ़ पीडि़तों को अपने जन प्रतिनिधियों यानी सांसदों और विधायकों का अब तक इंतजार है जो उनके बीच आकर उनका मनोबल तो बढ़ा ही सकते थे। बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के अधिसंख्य सांसद और विधायक अपने निर्वाचन क्षेत्रों में नहीं हैं। चुनाव के समय मतदाताओं को भाग्यविधाता बताने वाले सांसदों-विधायकों का यह रवैया हैतरअंगेज है। दरअसल, परिदृश्य में जन प्रतिनिधियों की मौजूदगी का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि राहत कार्य में लगी सरकारी मशीनरी चुस्त रहती है। जन प्रतिनिधियों के माध्यम से बाढ़ पीडि़तों की शिकायतें भी शासन-प्रशासन की जानकारी में आ जाती हैं और उनका त्वरित समाधान भी हो जाता है। इसके अलावा सांसद-विधायक की मौजूदगी से आम लोगों को भावनात्मक बल भी मिलता है, पर इतनी आसान सी बात जन प्रतिनिधियों की समझ में नहीं आती। बाढ़ भले ही घटने लगी है, पर प्रभावित क्षेत्रों के हालात अभी भी विषम बने हुए हैं। उन क्षेत्रों में गंदगी, जलजमाव, मच्छरों और विषैले जंतुओं का प्रकोप, पेयजल प्रदूषण तथा संक्रामक रोगों जैसे संकट बरकरार हैं। बेहतर होगा कि देर से सही, सांसद और विधायक अब अविलंब अपने निर्वाचन क्षेत्रों में पहुंचें और लोगों को इस संकट की घड़ी में सहारा दें। जन प्रतिनिधियों के पास अपना कोष भी होता है जिससे वह लोगों की अविलंबनीय जरूरतें पूरी कर सकते हैं। बाढ़ पीडि़तों को सबसे बड़ा सहारा अपने सांसद-विधायक की मौजूदगी से मिलेगा। अब इसमें विलंब नहीं होना चाहिए।
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लोकतंत्र में जन और प्रतिनिधि का रिश्ता विचारधारा से कहीं अधिक भरोसे पर टिका होता है। राज्य की मौजूदा बाढ़ विभीषिका में यह रिश्ता दरकता दिख रहा है। बाढ़ की विनाशलीला से त्रस्त जन के बीच उनके प्रतिनिधियों की नामौजूदगी सियासत की विद्रूपता दर्शा रही है।

[ स्थानीय संपादकीय : बिहार ]