राफेल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर पुनर्विचार याचिकाओं की सुनवाई तय हो जाने से यह भी पता चल रहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े गंभीर मामलों को राजनीतिक रंग देकर किस तरह न्यायपालिका के जरिये खींचने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। राफेल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की रपट भी आ चुकी है, जो यह कहती है कि यह सौदा संप्रग सरकार के मुकाबले करीब तीन प्रतिशत सस्ता रहा। इसके पहले खुद सुप्रीम कोर्ट ने इस सौदे में किसी तरह की गड़बड़ी से इन्कार किया था। इसके अतिरिक्त राफेल बनाने वाली कंपनी दासौ और फ्रांस सरकार की ओर से भी यह स्पष्ट किया जा चुका है कि इस सौदे में गड़बड़ी के आरोप निराधार हैैं, लेकिन शायद कुछ लोग तय कर चुके हैैं कि उन्हें हर हाल में अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाना है।

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि राफेल सौदे को चुनौती देने वाले लोग मोदी सरकार को पसंद न करने वाले नेता ही हैैं। एक ओर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हैैं जो देश भर में घूम-घूम कर झूठे तथ्यों के सहारे राफेल सौदे पर जनता को गुमराह करने में लगे हुए हैैं दूसरी ओर यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण जैसे लोग हैैं जो मोदी सरकार के प्रति अपनी नाराजगी के चलते इस नतीजे पर पहुंच गए हैैं कि इस सौदे में गड़बड़ी हुई है। ये सभी बिना किसी तथ्यों के इस नतीजे पर भी पहुंच गए हैैं कि इस सौदे की ऑफसेट नीति के तहत अनिल अंबानी को अनुचित लाभ मिला। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कुछ भी नहीं पाया था, फिर भी मिथ्या आरोप मढ़ने का काम जारी है। यह सही है कि राफेल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में सरकार की ओर से दी गई जानकारी का उल्लेख सही तरह नहीं हुआ था, लेकिन यह भी साफ है कि यह समझने से जानबूझकर बचा जा रहा कि फैसले का आधार वह जानकारी नहीं जिसे छिपाने का हल्ला मचाया जा रहा है।

मोदी सरकार से खफा लोगों को राफेल सौदा रास न आना समझ आता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे अपने असंतोष को जाहिर करने और अपनी राजनीति चमकाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का इस्तेमाल करें। दुर्भाग्य से एक अर्से से यही हो रहा है। पिछले कुछ समय से सरकार के एक के बाद एक फैसलों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का जैसा सिलसिला कायम है वह हैरान करता है। सरकार के हर फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की सुविधा देना तो एक तरह से शासन प्रक्रिया को पंगु करना ही है।

कानूनी सक्रियता तभी तक उचित है जब तक वह अपनी हद पार करती न दिखे। आखिर ऐसा क्यों है कि कुछ वकीलों और संगठनों की करीब-करीब हर जनहित याचिका सुन ली जाती है? थोक के भाव में राजनीति प्रेरित जनहित याचिकाएं दायर होना अच्छा नहीं। यह न तो शासन व्यवस्था के लिए अच्छा है और न ही खुद सुप्रीम कोर्ट के लिए। बेहतर हो सुप्रीम कोर्ट यह भी देखे कि उसका बेजा इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति कैसे थमे?