खेती और बागवानी पहाड़ी प्रदेश हिमाचल की आर्थिकी की रीढ़ है। प्रदेश की आबादी का बड़ा हिस्सा जीवन-यापन के लिए खेती-बागवानी पर निर्भर है। कुछ क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो प्रदेश के लोग खेती के लिए बारिश पर ही निर्भर हैं। अगर बारिश अच्छी हो गई तो बेहतर फसल की आस रहती है। मौसम के दगा देने पर कमाई तो दूर की बात जो खर्च किया जाता है, उसकी वसूली होना भी मुश्किल होता है। इस साल पहले सूखे जैसे हालात के कारण खेती पर संकट गहराता रहा। किसानों ने फसलों की बिजाई तो कर दी, लेकिन जमीन में इतनी नमी नहीं हो पाई कि बीज को पौधे में बदल सके। प्रदेश के साठ फीसद क्षेत्र में रबी की फसलों की बिजाई के बाद फसलें उग नहीं पाई हैं। अब जब फसल सहेजने की बारी आई तो बारिश-ओलावृष्टि और तेज हवाएं किसानों-बागवानों के अरमानों पर पानी फेर रही हैं। किसानों को मजबूर होकर आसमान की तरफ टकटकी लगानी पड़ रही है, यह देखने के लिए कि फसल को सहेजने का समय मिल सके। मौसम की बेरुखी और बीज, खाद, कृषि उपकरण, कीटनाशक आदि का खर्च बढ़ने और फसलों का उचित दाम न मिलने से खेती पहले से ही घाटे का सौदा साबित हो रही है। बंदरों, जंगली जानवरों व लावारिस पशु भी किसानों के लिए मुसीबत बन रहे हैं। इनसे दुखी होकर कई क्षेत्रों में लोगों ने खेती करना तक छोड़ दिया है।

एक अनुमान के मुताबिक प्रदेश में तीस फीसद से अधिक खेतीबाड़ी इनके कारण नहीं हो पा रही और खेत बंजर होते जा रहे हैं। हर वर्ष रबी फसल के तहत आने वाले क्षेत्र में पांच से दस फीसद तक की कमी ङोलनी पड़ रही हैं। इससे सरकार के खाद्यान्न उत्पादन के आंकड़े भी प्रभावित हो रहे हैं। प्रदेश में दावों व वादों के बावजूद सिंचाई सुविधाओं की विस्तार नहीं हो पाया है। प्रदेश सरकार को चाहिए किसानों के हित में योजनाएं बनाने के साथ सिंचाई सुविधाओं के विस्तार की दिशा में तेजी लाए। इससे प्रदेश के खेत हरे-भरे होंगे व किसानों को भी संबल मिलेगा। किसानों के हित के लिए बनने वाली योजनाओं की निगरानी होनी चाहिए कि ताकि सभी तक उनका लाभ पहुंच सके। लावारिस पशुओं के लिए नीति बनाना भी समय की मांग है।

[ स्थानीय संपादकीय: हिमाचल प्रदेश ]