प्रदेश में फसल खरीद में तत्परता के तमाम सरकारी आदेशों के बावजूद न समय पर खरीद हो पा रही है और न मंडियों से उठान हो पा रहा है। इसका परिणाम ही है कि धरतीपुत्र परेशान है। प्रदेश सरकार ने समय पूर्व सरसों की खरीद शुरू करवा दी थी, ताकि गेहूं के मंडी में पहुंचने से पूर्व सरसों का खरीद कार्य पूरा हो जाए और समय से गोदाम में पहुंच भी जाए। इसे अफसरों की ढिलाई कहें या खरीद एजेंसियों की लापरवाही मंडियां अभी भी सरसों से अटी पड़ी है। किसानों ने मेहनत से सोना उपजाया पर आज सड़कों पर उसकी बेकद्री हो रही है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है।

प्रति वर्ष ऐसी ही चुनौतियों व समस्याओं का सामना किसान को अपना उत्पाद बेचने के लिए करना पड़ता है। सरकारी तौर पर कड़े निर्देश भी जारी होते हैं लेकिन अफसरों व ठेकेदारों के गठजोड़ के समक्ष तमाम प्रबंध धराशायी हो जाते हैं। इतना ही नहीं पड़ोसी राज्यों से भी बड़ी मात्र में फसल मंडियों में पहुंचते हैं और व्यवस्था की परेशानी बढ़ा देते हैं। इन तमाम चुनौतियों के मद्देनजर आवश्यक है कि मंडी व्यवस्था में बड़े बदलाव हों। निजी कंपनियों को फसल खरीद में भागीदारी मिले। निजी कंपनियां फसल खरीदेंगी तो अपनी खरीद व्यवस्था भी चलाएंगी। इससे किसानों को फसल के लिए यहां-वहां नहीं भटकना पड़ेगा। आटा, तेल व अन्य खाद्य उत्पादों की निर्माता कंपनियां किसानों से सीधे फसल खरीदने को तत्पर हैं। चुनौती मंडी कर व अन्य व्यवस्था पर हो सकती है लेकिन उत्पाद पर सीधा कर जोड़कर इस राजस्व हानि की स्थिति से भी निपटा जा सकता है।

[ स्थानीय संपादकीय: हरियाणा ]